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मन की कड़वाहट मन में ही दबा ली थी उस ने इस समय. कुछ ही देर पहले तो मां ने छोरियां जनने वाली डायन कहा था उसे. ‘मुझे तो पहले से ही शक था कि यह इस का अपना जाया नहीं है,’ जिज्जी बोली थीं. दोनों आंगन में चारपाई डाले साग बीन रही थीं. उन्हें पता नहीं था कि वह आंगन के ठीक ऊपर लगे लोहे के जाल की मुंडेर पर खड़ी सुन रही है. अभी नहा कर निकली थी वह. सफर में पहने अपने व सोनू के कपड़े धो डाले थे उस ने. तार पर सूखने को डाल रही थी. ‘इस औरत ने पता नहीं क्या जादू कर रखा है. अपना नीलाभ तो ऐसा कभी नहीं था. इतने साल भनक तक न लगने दी सचाई की. अब जो भी है, इस अपाहिज से पीछा तो छुड़ाना ही होगा भाई का,’ जिज्जी की जहरीली फुफकार से उस का रोमरोम जल उठा था. कोई स्त्री इतनी कठोर कैसे हो सकती है. मां कहती हैं, उन का बेटा उस के बहकावे में आ गया है. बेशक, अलग गृहस्थी बसा कर बैठी है, पर बहू है घर की, बहू बन कर रहे. सिर पर चढ़ कर नाचने न देंगे. नीलाभ अनाथ नहीं है, उस के सिर पर मां का साया है अभी. बहू हो कर इतना बड़ा निर्णय लेने का उस अकेली को कोई हक नहीं.’

कलेजा बर्फ हो गया था उस का. हाथपांव सुन्न हो गए थे. घरभर के ठंडे व उपेक्षित व्यवहार का कारण पलभर में उसे समझ आ गया था. उसे ट्रेन पर बिठाते ही नीलाभ ने इन लोगों के आगे वह सारा सच उगल दिया था जिसे वे दोनों आज तक अपनी परछाईं से भी छिपा कर रखते थे. मां ने क्या आग उगली, जिज्जी ने क्या दंश दिए, सब बेमानी हो गए थे नीलाभ के विश्वासघात के आगे. अपना वश नहीं चला तो उस पर घर वालों का दबाव बनाने की कोशिश कर रहे थे नीलाभ. यहीं चूक गए नीलाभ. पहचान नहीं पाए उसे. वह तो उसी क्षण उसी रात पूर्णरूपेण मां बन गई थी बेटे की. ममता भी कहीं आधीअधूरी होती है. अब शरर में कुछ दोष है तो है. इस नन्ही सी जान की सेवा के लिए परिवार या नीलाभ कौन होते हैं रोड़ा अटकाने वाले. अब यह तो नहीं हो सकता कि एक दिन अचानक से एक अनजान बालक को गोद में डाल दिया और कहा, ‘यह लो, बेटा बना लो. फिर कह दिया, नहीं, यह बेटा नहीं हो सकता, छोड़ आओ कहीं.’ वह हैरान थी कि कमी उजागर होते ही बेटे पर जान न्योछावर करने वाला पिता इतना कठोर हृदय कैसे हो सकता है.

भीतर की सारी उथलपुथल भीतर ही समेटे ऊपर से सामान्य दिखने की कोशिश में अपनी सारी ऊर्जा खर्च करती वह बूआ के घर में सब से मिलतीमिलाती रही थी. नामकरण से लौट कर रात को मां तथा जिज्जी ने उसे आ घेरा था. उन्हें हजम ही नहीं हो रहा था कि उस ने सब से इतना बड़ा झूठ बोला कैसे. शक तो पहले से ही था. न दिन चढ़ने की खबर लगने दी, न दर्द उठने की, सीधा छोरा जनने की खबर सुना दी थी. छोरा न हुआ, कुम्हड़ा हो गया कि गए और तोड़ लाए. ‘अब नीलाभ नहीं चाहता है तो तू क्यों सीने से चिपकाए है छोरे को. छोड़ क्यों नहीं देती इसे. पता नहीं किस जातकुजात का पाप है. अच्छा हुआ कि छोरा अपाहिज निकला वरना हमें कभी कानोंकान भनक न होती.’ बिफर तो सुबह से ही रही थीं दोनों, पर पता नहीं कैसे जब्त किए बैठी थीं. शायद उन्हें डर था कि ये सब बातें उठते ही क्लेश मच जाएगा घर में. उस के रोनेबिसूरने, विरोध तथा विद्रोह के स्वर इतने ऊंचे न हो जाएं कि उन की गूंज बूआ के घर एकत्र हुए मेहमानों तक पहुंच जाए. सब को पता था कि वह आई हुई है विशेष तौर पर समारोह में सम्मिलित होने. बिफर कर कहीं वहां जाने से इनकार कर देती तो बिरादरी में मां सब को क्या बतातीं उस के न आने का कारण.

सिर झुकाए बैठी वह सोच रही थी कि यदि सोनू की मां का कुछ अतापता होता तो नीलाभ अवश्य ही उसे वापस सौंप देते बच्चा. पर वह फिलहाल अनजान लड़की तो आसन्नप्रसवा थी जब नीलाभ के नर्सिंग होम में पहुंची थी. आधी रात का समय, स्टाफ और मरीज अधिक नहीं थे उस समय. बस, एक आपातकालीन मरीज की देखभाल करने के लिए रुके हुए थे नीलाभ. कुछ ही पलों में बच्चा जना और पता नहीं चुपचाप कब बच्चा वहीं छोड़ कर भाग निकली थी वह लड़की. पहले तो घबरा गए नीलाभ, पुलिस को सूचना देनी होगी. फिर अचानक उन की छठी इंद्रीय सक्रिय हो उठी. लड़का है. जो यों इसे पैदा कर के छोड़ कर भाग निकली है, वह वापस आने से तो रही. उन्होंने तुरंत उसे फोन किया तथा अस्पताल बुला लिया. एक बिस्तर पर लिटा कर पास ही पालने में वह नवजात शिशु लिटा दिया. सुबह  होतेहोते यह खबर चारों ओर फैल गई कि रात में पुत्र को जन्म दिया है डाक्टर साहब की पत्नी ने. सब हैरान थे. अच्छा, मैडम गर्भवती थी, पता ही न चला. अड़ोसपड़ोस भी हैरान था. सब को डाक्टर साहब ने अपनी बातों से संतुष्ट कर दिया. वैसे भी वह कहां ज्यादा उठतीबैठती थी पड़ोस में. छोटे शहरों में भी आजकल वह बात नहीं रही. कौन किस की इतनी खबर रखता है. बधाइयां दी गईं, मिठाइयां बांटी गईं, जश्न हुए. यही मां और जिज्जी बलाएं लेती न आघाती थीं. और अब इतना जहर. 5 बजे की ट्रेन थी उस की वापसी की. उस के निकलने से घंटा भर पहले सरिता आ पहुंची थी उस से मिलने. कोई और वक्त होता तो वह सौ गिलेशिकवे करती अपनी प्यारी ननद, अपनी बचपन की सखी सरिता से. पर जब से आई थी, इतने तनाव, क्लेश और परेशानियों में फंसी थी कि उसे स्वयं भी कहां याद रहा था एक बार सरिता को फोन ही कर लेना.

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