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रविवार होने के कारण अपर्णा सुबह की चाय का न्यूज पेपर के साथ आनंद लेने के लिए बालकनी में पड़ी आराम कुरसी पर आ कर बैठी ही थी कि उस का मोबाइल बज उठा. उस के देवर अरुण का फोन था.

‘‘भाभी, भैया बहुत बीमार हैं. प्लीज, आ कर मिल जाइए,’’ और फोन

कट गया.

फोन पर देवर अरुण की आवाज सुनते ही उस के तनबदन में आग लग गई. न्यूजपेपर और चाय भूल कर वह बड़बड़ाने लगी, ‘आज जिंदगी के 50 साल बीतने को आए, पर यह आदमी चैन से नहीं रहने देगा. कल मरता है तो आज मर जाए. जब आज से 20 साल पहले मेरी जरूरत नहीं थी तो आज क्यों जरूरत आन पड़ी.’ उसे अकेले बड़बड़ाते देख कर मां जमुनादेवी उस के निकट आईं और बोलीं, ‘‘अकेले क्या बड़बड़ाए जा रही है. क्या हो गया? किस का फोन था?’’

‘‘मां, आज से 20 साल पहले मैं नितिन से सारे नातेरिश्ते तोड़ कर यहां तबादला करवा कर आ गई थी और मैं ने फिर कभी पीछे मुड़ कर नहीं देखा. तब से ले कर आज तक न उन्होंने मेरी खबर ली और न मैं ने उन की. तो, अब क्यों मुझे याद किया जा रहा है?

‘‘मां, आज उन के गुरुजी और दोस्त कहां गए जो उन्हें मेरी याद आ रही है. अस्पताल में अकेले क्या कर रहे हैं. आश्रम वाले कहां चले गए,’’ बोलतेबोलते अपर्णा इतनी विचलित हो उठी कि उस का बीपी बढ़ गया. मां ने दवा दे कर उसे बिस्तर पर लिटा दिया.

50 वर्ष पूर्व जब नितिन से उस का विवाह हुआ तो वह बहुत खुश थी. उस की ससुराल साहित्य के क्षेत्र में अच्छाखासा नाम रखती थी. वह अपने परिवार में सब से छोटी लाड़ली और साहित्यप्रेमी थी. उसे लगा था कि साहित्यप्रेमी और सुशिक्षित परिवार में रह कर वह भी अपने साहित्यज्ञान में वृद्धि कर सकेगी. परंतु, वह विवाह हो कर जब आई तो उसे मायके और ससुराल के वातावरण में बहुत अंतर लगा.

ससुराल में केवल ससुरजी को साहित्य से लगाव था, दूसरे सदस्यों का तो साहित्य से कोई लेनादेना ही नहीं था. इस के अलावा मायके में जहां कोई ऊंची आवाज में बात तक नहीं करता था वहीं यहां घर का हर सदस्य क्रोधी था. ससुरजी अपने लेखन व यात्राओं में इतने व्यस्त रहते कि उन्हें घरपरिवार के बारे में अधिक पता ही नहीं रहता था. सास अल्पशिक्षित, घरेलू महिला थीं. वे अपने शौक, फैशन व किटी पार्टीज में व्यस्त रहतीं. घर नौकरों के भरोसे चलता. हर कोई अपनी जिंदगी मनमाने ढंग से जी रहा था. सभी भयंकर क्रोधी और परस्पर एकदूसरे पर चीखतेचिल्लाते रहते. इन

2 दिनों में ही नितिन को ही वह कई

बार क्रोधित होते देख चुकी थी. यहां

का वातावरण देख कर उसे डर लगने लगा था.

सुहागरात को जब नितिन कमरे में आए तो वह दबीसहमी सी कमरे में बैठी थी. नितिन उसे देख कर बोले, ‘क्या हुआ, ऐसे क्यों बैठी हो?’

‘कुछ नहीं, ऐसे ही,’ उस ने दबे स्वर में धीरे से कहा.

‘तो इतनी घबराई हुई क्यों हो?’

‘नहीं…वो… मुझे आप से डर लगता है,’ अपर्णा ने घबरा कर कहा.

‘अरे, डरने की क्या बात है,’ कह कर जब नितिन ने उसे अपने गले से लगा लिया तो वह अपना सब डर भूल गई.

विवाह को कुछ ही दिन हुए थे कि एक दिन डाकिया एक पीला लिफाफा लैटरबौक्स में डाल गया. जब नितिन ने खोल कर देखा तो उस में केंद्रीय विद्यालय में अपर्णा की नियुक्ति का आदेश था जिस के लिए उस ने विवाह से पूर्व आवेदन किया था. खैर, समस्त परिवार की सहमति से अपर्णा ने नौकरी जौइन कर ली. घर और बाहर दोनों संभालने में तकलीफ तो उठानी पड़ती, परंतु वह खुश थी कि उस का अपना कुछ वजूद तो है.

तनख्वाह मिलते ही नितिन ने उस का एटीएम कार्ड और चैकबुक यह कहते हुए ले लिया कि ‘मैं पैसे का मैनेजमैंट बहुत अच्छा करता हूं, इसलिए ये मेरे पास ही रहें तो अच्छा है. कहां कब कितना इन्वैस्ट करना है, मैं अपने अनुसार करता रहूंगा.’

मेरे पास रहे या इन के पास, यह सोच कर अपर्णा ने कभी इस ओर ध्यान ही नहीं दिया. इस बीच वह एक बेटे की मां भी बन गई. एक दिन जब वह घर आई तो नितिन मुंह लटकाए बैठा था. पूछने पर बोला कि वह जिस कंपनी में काम करता था वह घाटे में चली गई और उस की नौकरी भी चली गई.

अपर्णा बड़े प्यार से उस से बोली, ‘तो क्या हुआ, मैं तो कमा ही रही हूं. तुम क्यों चिंता करते हो. दूसरी ढूंढ़ लेना.’

‘अच्छा तो तुम मुझे अपनी नौकरी का ताना दे रही हो. नौकरी गई है, हाथपैर नहीं टूटे हैं अभी मेरे,’ नितिन क्रोध से बोला.

‘नितिन, तुम बात को कहां से कहां ले जा रहे हो. मैं ने ऐसा कब कहा?’

‘ज्यादा जबान मत चला, वरना काट दूंगा,’ नितिन की आंखों से मानो अंगारे बरस रहे थे.

उसे देख कर अपर्णा सहम गई. आज उसे नितिन के एक नए ही रूप के दर्शन हुए थे. वह चुपचाप दूसरे कमरे में जा कर अपना काम करने लगी. नौकरी चली जाने के बाद से अब नितिन पूरे समय घर में रहता और सुबह से शाम तक अपनी मरजी करता. एक दिन अपर्णा को घर आने में देर हो गई. जैसे ही वह घर में घुसी.

‘इतनी देर कैसे हो गई.’

‘आज इंस्पैक्शन था.’

‘झूठ बोलते शर्म नहीं आती, कहां से आ रही हो?’

‘तुम से बात करना बेकार है. खाली दिमाग शैतान का घर वाली कहावत तुम्हारे ऊपर बिलकुल सटीक बैठती है,’ कह कर अपर्णा गुस्से में अंदर चली गई.

पूरे घर पर नितिन का ही वर्चस्व था. अपर्णा को घर की किसी बात में दखल देने की इजाजत नहीं थी. वह कमाने की मशीन और मूकदर्शक मात्र थी. एक दिन जब वह घर में घुसी तो देखा कि पूरा घर फूलों से सजा हुआ है. पूछने पर पता चला कि आज कोई गुरुजी और उन के शिष्य घर पर पधार रहे हैं. इसीलिए रसोई में खाना भी बन रहा है.

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