‘‘मैं मुक्ति चाहती हूं.’’ ‘‘किस से?’’
‘‘सब से.’’ ‘‘मनुष्यों से, अपने परिवेश से या भौतिक वस्तुओं से?’’
‘‘अपने परिवेश से, उस में रहने वाले लोगों से.’’ ‘‘यानी सुखसुविधाएं नहीं छोड़ना चाहती, केवल लोगों का त्याग करना चाहती हो. इस के पीछे तुम्हारा क्या कोई खास मकसद है?’’
‘‘मैं उन्हें त्यागना नहीं चाहती. न इसे छोड़ना कह सकते हैं. केवल मुक्ति चाहती हूं ताकि छू सकूं, उन्मुक्त आकाश को.’’ ‘‘इस के लिए किसी का त्याग करना आवश्यक नहीं है, साथ रहतेरहते भी खुली हवा को भीतर समेटा जा सकता है. कौन रोकता है तुम्हें आकाश छूने से. शायद तुम्हारी सोच में ही जंग लग गया है या तुम मुक्ति की परिभाषा से अपरिचित हो.’’
‘‘नहीं, यह सच नहीं है. उन्मुक्त आकाश को छूने के लिए अपने ही पैरों की जरूरत होती है, किसी सहारे या बैसाखी की नहीं. इसलिए मुझे मुक्ति चाहिए. संबंधों की तटस्थता या घुटन नहीं.’’ ‘‘यह तो पलायन होगा.’’
‘‘हां, हो भी सकता है, और नहीं भी.’’ ‘‘यानी?’’
‘‘मुक्ति मार्ग भी तो है, दिशा भी तो है. फिर पलायन कैसा?’’ निस्पृहता का गुंजन उस की आवाज में निहित था. ‘‘फिर घरपरिवार, पति, बच्चे, समाज का क्या होगा, उन के प्रति क्या तुम्हारी कोई जिम्मेदारी नहीं है?’’
‘‘जिम्मेदारी अशक्त व बेसहारों की होती है. वे सक्षम हैं, अपनी जरूरतें स्वयं पूरी कर सकते हैं.’’ ‘‘क्या तुम्हें उन की जरूरत नहीं?’’
‘‘कभी महसूस होती थी, पर अब नहीं. सब अपनाअपना जीवन जीना चाहते थे. कोई अतिक्रमण, न व्यवधान अपेक्षित है. फिर निरर्थक ही क्यों अपनी उपस्थिति को ले कर जीऊं.’’ ‘‘निरर्थकता कैसी, जगह स्थापित करनी पड़ती है, अपनी उपस्थिति का बोध कराना पड़ता है, वही तो संबल होती है. पलायन करने से क्या निरर्थकता का बोध कम हो जाएगा? नहीं, बल्कि और बढ़ेगा ही. पीछे भागने के बजाय अपने को पुख्ता कर सब में आत्मविश्वास बांटो, फिर देखना तुम कैसे महत्त्वपूर्ण हो जाओगी.’’