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‘‘मैं लौटना नहीं चाहती. अगर ऐसा होता तो निकलती ही क्यों. मैं ने बहुत चाहा कि अपने भीतर के कोलाहल को हृदय के कपाटों से बंद कर दूं पर शायद कमजोर थी, इसलिए ऐसा न कर सकी. तभी तो फट पड़ा है कोलाहल. अब कैसे शांत करूं उसे? कोई रास्ता नहीं दिखा, तभी तो भागी चली आई मुक्ति की तलाश में.’’ ‘‘पलायन कौन से कोलाहल को शांत कर सकता है, बल्कि और हलचल ही मचा देता है. कोरी शून्यता है जो तुम्हें लगता है कि भर जाएगी. रिक्तता की पूर्ति कैसे होगी? इस पूर्णता की प्राप्ति के लिए तुम कहां भागोगी? कोई दिशा निर्धारित की है क्या तुम ने?’’

‘‘मुझे कुछ सुझाई नहीं दे रहा है. अगर रोशनी की हलकी सी कौंध भी देख पाती तो यों आप के पास दौड़ी चली नहीं आती उत्तर पाने, समाधान ढूंढ़ने.’’

सुमित्रा की कातरता बढ़ती ही जा रही थी और रात की नीरवता भी.

संध्या तक जो हवा कोमल लग रही थी वही अब कंपकंपाने लगी थी. फरवरी की शामें चाहे गुनगुनी हों पर रातें अभी भी ठंडी थीं. रात का मौन और नींदों में प्रवेश होने के बाद बंद कपाटों से उत्पन्न सन्नाटा लीलने को आतुर था. कभीकभी कोलाहल से त्रस्त हो इंसान सिर्फ सन्नाटे की अपेक्षा करता है, उसे ढूंढ़ने के लिए स्थान खोजता है और कभी वही सन्नाटा उसे खंजर से भी अधिक नुकीला महसूस होता है. तब वही आतुर निगाहों से अपने आसपास किसी को देखने की चाह करने लगता है. सुमित्रा क्या इन दोनों ही स्थितियों से परे है या फिर वह अनजान बन रही है ताकि किसी तरह कमजोर या लक्ष्यहीन न महसूस करे. तभी अपने आसपास के वातावरण के प्रति कितनी तटस्थ लग रही है. इसीलिए तो मात्र एक साड़ी में लिपटे होने पर भी ठंड उसे कंपा नहीं रही थी.

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