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“अरे, यह अपना सिराज ही है न?” मैं ने आबिद से पूछा. बरसों बाद मैं ने सिराज को देखा वह भी मुंबई में, इसलिए एकदम से पहचान नहीं पाया.

“हां यार, लग तो वही रहा है. लेकिन इस के तो रंगढंग ही बदले हुए हैं,” आबिद ने भी गौर से देखते हुए कहा. लंबी सी गाड़ी से उतरते हुए सिराज के बदन पर महंगे कपड़े, ख़ूबसूरत घड़ी, और हाथों में एकदम लेटेस्ट मौडल का आईफ़ोन देख कर हमें यक़ीन ही नहीं हो रहा था कि यह वही अपना सिराज है.

6ठी क्लास से हाईस्कूल तक सिराज हमारे साथ ही पढ़ा करता था. पढ़नेलिखने में उस का ज़रा भी मन न लगता था. बड़ी मुश्किल से किसी तरह पास होतेहोते वह हाईस्कूल तक पहुंच गया लेकिन बोर्ड की परीक्षा में वह 5 बार भी पास न हो पाया. उस के अब्बा हर बार उस की तबीयत से धुनाई करते, लेकिन वह 10वीं पास नहीं कर पाया. यहां तक कि उस का छोटा भाई इंटर पास कर के नगरपालिका में काम करने लगा. लेकिन सिराज के भेजे में पढ़ाई को न घुसना था, न घुसी वह.

3 साल फ़ेल होने के बाद सिराज के अब्बा ने उस को एक सुनार की दुकान पर काम सीखने के लिए लगवा दिया था. हमारे छोटे शहर में तो वैसे ही कोई ख़ास कामधंधा नहीं था, सिराज, बस, टाइम पास करने के लिए ही वहां जाता. वैसे दुकान पर उस का दिल लगता न था. उस को एक ही शौक था, फ़िल्में देखने का. चाहे कैसी भी फिल्म लगी हो, सिराज हमेशा फर्स्ट डे फर्स्ट शो में हाज़िर होता. अमिताभ बच्चन और मिथुन चक्रवर्ती का तो वह जबरा फैन था. वैसे उस के

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