लेखक-नम्रता सरन "सोना"
आशी ने टीवी औन किया, उस पर चारों तरफ मचा कुहराम, औक्सीजन की कमी, दवाओं की कालाबाजारी, इंजैक्शन की कालाबाजारी, लाशों के ढेर...यह सब देख कर घबरा कर आशी ने अगले पल ही टीवी बंद कर दिया. सोफे से सिर टिका दिया.आंखों की कोर से आंसू बह निकले.
उस ने मन ही मन कहा,'इस समस्या का हल हो तो कैसे?'
अब फोन पर ही पापा, मम्मी और अमित की स्थिति जान पाती वह.कभी बुखार बढ़ जाता, कभी औक्सीजन लेवल कम हो जाता... तबीयत स्थिर ही बनी हुई थी, पापा की रिकवरी तो बिलकुल न के बराबर थी.
पापा को ऐडमिट हुए करीब 20 दिन हो गए थे और मम्मी व अमित को भी 14-15 दिन, लेकिन अस्पताल से कोई अच्छी खबर नहीं मिल पा रही थी.
आशी ने दोबारा टैस्ट करवाया था. उस की रिपोर्ट 2 दिन बाद आनी थी.आज की रात आशी को बहुत बैचेनी हो रही थी. वह बैड पर बैठेबैठे समय काट रही थी. उसे नींद नहीं आ रही थी, मन किसी अनहोनी की आशंका से सिहर जाता था.
रात ढाई बजे मोबाइल बजा और खबर सुन कर आशी का दिल बैठ गया.
"मिस्टर अरूण इज नो मोर..."
"पापा..." हाथ से मोबाइल छूट गया. आशी कटी पतंग की तरह निढाल बैड पर गिर पड़ी. क्या करती, कोई कंधा नहीं था जिस पर सिर रख कर वह रोती. कोई साथ नहीं, कोई हाथ नहीं, जो सिर पर हाथ रख कर दिलासा दे सके. समझ में नहीं आ रहा था कि क्या करे वह...
'मम्मी और अमित तो खुद जिंदगी और मौत के बीच झूल रहे हैं, उन तक तो यह खबर का पहुंचना भी उन के लिए कितना घातक हो सकता है,' यह सोच कर ही वह कांप गई.
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