लेखिका-रेणु दीप
भावना की ट्रेन तेज रफ्तार से आगे बढ़ती जा रही थी. पीछे छूटते जा रहे थे खेतखलिहान, नदीनाले और तालतलैया. मन अंदर से गुदगुदा रहा था, क्योंकि वह बच्चों के साथ 2 बरसों के बाद अपने मायके जा रही है अपने भाईर् अक्षत की कलाई पर राखी बांधने. गाड़ी की रफ्तार के साथसाथ उस का मन भी पिछली यादों में उल झ गया.
एक समय था जब वह महीनों पहले से रक्षाबंधन की प्रतीक्षा बहुत बेकरारी से किया करती थी. वे 5 बहनें और एक भाईर् था. भाई के जन्म के पहले न जाने कितने रक्षाबंधन बिना किसी की कलाई पर राखी बांधे ही बीते थे उस के. 5 बहनों के जन्म के बाद भाई अक्षत का जन्म हुआ था. सब से बड़ी बहन होने के नाते उस ने अक्षत को बेटे की तरह ही गोद में खिलाया था. सो, शादी के बाद शुरू के 4-5 वर्षों तक, जब तक उस के बच्चे छोटे रहे, वह बहुत ही चाव से हर रक्षाबंधन पर मांबाबूजी के निमंत्रण पर मायके जाती रही थी.
उसे आज तक भाई के विवाह के बाद पड़ा पहला रक्षाबंधन अच्छी तरह याद है. पति दिवाकर ने कितना मना किया था कि देखो, अब अक्षत का विवाह हो गया है, एक बहू के आने के बाद तुम्हारा वह पुराना राजपाट गया सम झो. अब किसी के ऊपर तुम्हारा पुराना दबदबा नहीं चलने वाला. अब तो बस, सालभर में महज एक मेहमान की तरह कुछ दिन ही मायके के हिसाब में रखा करो वह भी तब, जब भाभी तुम्हें खुद निमंत्रण भेजे आने का. लेकिन काश, तब उस ने पति की बात को खिल्ली में न उड़ा कर गंभीरता से लिया होता तो ननद व भाईभाभी के नाजुक रिश्ते में दिल को छलनी कर देने वाली वह दरार तो न पड़ती.
हर वर्ष की भांति उस वर्ष भी मांबाबूजी का दुलारभरा खत आया था, जिस में उन्होंने उसे रक्षाबंधन पर बुलाया था. भाभी के सामने पहले रक्षाबंधन पर जा रही हूं, यह सोच कर उस ने अपने बजट से कहीं ज्यादा खर्च कर भाई के लिए काफी महंगी पैंटशर्ट और भाभी के लिए बहुत बढि़या खालिस सिल्क की साड़ी व मोतियों का सुंदर जड़ाऊ सैट खरीदे थे.
मायके पहुंचते ही मांबाबूजी व भाई ने हमेशा की तरह ही पुलकित मन से भावना और दोनों बच्चों का सत्कार किया था. लेकिन जिस चेहरे को अपने स्नेहदुलार, ममता के रेशमी जाल में हमेशा के लिए जकड़ने आई थी, ननदभाभी के रिश्ते को नया रूप देने आईर् थी, घर पहुंचने के घंटेभर बाद तक भावना को वह चेहरा नजर नहीं आ पाया था. वह अपनी उत्सुकता को और न दबा पाते हुए झट से भाई से बोल पड़ी थी, ‘अरे अक्षत, तेरी बहू नहीं दिखाई दे रही. इस बार तो मैं उसी से मिलने और दोस्ती करने आई हूं. वरना तेरे जीजा तो मु झे आने ही नहीं दे रहे थे,’ ड्राइंगरूम में बैठे लोग बातें कर रहे थे कि भावना अपनी आदत के अनुसार धड़धड़ाती हुई नई बहू के शयनकक्ष में बिना खटखटाए ही घुस गई थी. बहू के खूबसूरत चेहरे को देखते ही भावना ने झट से उसे बांहों में भर लेने के लिए हाथ आगे बढ़ाए पर भाभी के चेहरे पर भावों को देख कर अपना हाथ पीछे खींच लिया. वह यह कह कर कमरे से बाहर आ गई थी, ‘वाणी, जल्दी से बाहर आ जाओ, मैं तो तुम से बातें करने को बुरी तरह से झटपटा रही हूं.’
वापस आ कर भावना यात्रा से पैदा हो आईर् थकान को अपनों के बीच बैठ, मां के हाथों की बनी मसाले वाली, सौंधीसौंधी महक वाली चाय के घूंटों से मिटाने का प्रयत्न कर रही थी. साथ ही साथ, उस की नजरें नई बहू से मिलने व बतियाने की ख्वाहिश में बारबार दरवाजे पर झूलते परदे की ओर खिंच जाती थीं. लेकिन पौना घंटा बीतने पर भी वाणी कमरे से बाहर नहीं आई थी. अक्षत भी बीच में उठ कर शायद वाणी को ही बुलाने चला गया था, लेकिन वह भी इस बार तनिक असहज मुद्रा में ही वापस लौटा था.
तकरीबन एक घंटे बाद वाणी अपने कमरे से बाहर आईर् थी पूरी तरह से सजधज के साथ. साड़ी से मेल खाती चूडि़यां, बिंदी, यहां तक कि गले और कान के गहने भी उस की साड़ी से मेल खा रहे थे, जिन्हें देख कर बिना सोचेसम झे वह यह पूछने की गलती कर बैठी थी, ‘यह क्या वाणी, कहीं जा रही हो क्या, जो इस तरह तैयार हो कर आई हो?’