कहानी के बाकी भाग पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें

लेखिका-रेणु दीप

उसी दिन शाम को घर वापस लौटने के लिए उस ने अपना सामान बांधना शुरू कर दिया था. भाई के कमरे के सामने से गुजरते हुए अनायास ही वाणी के कठोर शब्द कानों में पड़े थे, ‘क्यों जी, यह दीदी क्या हमेशा यों ही इतने महंगे उपहार देदे कर जाती हैं? फिर तो वापसी में इन्हें भी इतने महंगे उपहार देने की आफत आती होगी. देखोजी, एक बात ध्यान से सुन लेना, मैं अपने मायके से लाईर् चीजों में से एक तिनका भी नहीं देने वाली. इन लोगों को जो कुछ भी लेनादेना हो, उसे तुम्हें अपनी तनख्वाह से ही देना होगा.’

तभी अक्षत के तीखे स्वर कानों में पड़े थे, ‘यह क्या, तुम दीदी के लाड़प्यार को लेनदेन के तराजू पर तोलने लगीं? इस घर में आज तक तो हम ने दीदी के इतने प्यारभरे तोहफों को कभी इस दृष्टिकोण से नहीं सोचा कि इन्हें दे कर दीदी ने अपना बो झ हम पर लाद दिया. स्नेहभरे इन तोहफों में लिपटी अपनत्व और प्यार की खुशबू भी पहचानना सीखो, इन से जुड़ी उन के निश्च्छल प्यार की अनमोल भावनाओं को पहचानना सीखो. लेनदेन में मिलने वाली बेहिसाब खुशियों की सुखद अनुभूति की पहचान करना सीखो, नहीं तो जीवनभर बस, उस की कीमत के जोड़घटाव में ही अपना समय जाया कर बैठोगी.’

भाई के मुंह से अपनी ममता का सही मोल आंके जाने के सुखद एहसास ने भाभी के कड़वे स्वरों से उमड़ आए आंखों के आंसुओं को भीतर ही भीतर सुखा डाला था.

भाई के विवाह के बाद पड़े पहले रक्षाबंधन की कटु यादें उस की स्मृति में हमेशा जीवन के कड़वे अनुभवों में शायद सदैव सब से ऊपर दर्ज रहेंगी. इस बार करीब 2 वर्षों की लंबी अवधि बीत जाने पर भाई के साथ भाभी के न्योते का भी मनुहारभरा खत पा उस का मन रक्षाबंधन का त्योहार वहीं मनाने के लिए मचल उठा था. सो, 2 दिनों के संक्षिप्त प्रवास की तैयारी कर वह भाई के घर पहुंच गईर् थी.

आगे की कहानी पढ़ने के लिए सब्सक्राइब करें

डिजिटल

(1 साल)
USD10
 
सब्सक्राइब करें

डिजिटल + 24 प्रिंट मैगजीन

(1 साल)
USD79
 
सब्सक्राइब करें
और कहानियां पढ़ने के लिए क्लिक करें...