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सुबह होते ही वह उठी और अपना सामान ले कर मायके चल दी. विवेक को पता भी नहीं चला. मायके में मांबाबूजी को अपनी आप- बीती सुना कर अंजली ने ठंडी सांस ली. बाबूजी गुस्से से तमतमा उठे, ‘विवेक की यह मजाल कि फूल सी नाजुक और गंगा सी पवित्र बेटी पर लांछन लगाता है. मैं उस नवाबजादे को छोडूंगा नहीं.’ ‘आप शांत रहिए और कुछ समय बीतने दीजिए. शायद विवेक को खुद अपनी गलती का एहसास हो जाए अन्यथा हम दोनों इस की ससुराल चलेंगे,’ मां ने बाबूजी को शांत करते हुए कहा. लेकिन वहां से न कोई आया न ही उन्होंने अंजली के मांबाप से कोई बात की.

बल्कि उन की पहल को ठुकराते हुए विवेक ने तलाक के कागज अंजली को भिजवाए तो पत्थर सी बनी अंजली ने यह सोच कर चुपचाप कागजों पर हस्ताक्षर कर दिए कि जहां एक बार बात बिगड़ गई वहां दोबारा सम्मान और प्यार पाने की उम्मीद नहीं की जा सकती. धीरेधीरे समय बीतता गया. सौरभ का जन्म हो गया. अंजली ने कई बार नौकरी करने की जिद की पर बाबूजी ने हमेशा यह कह कर मना कर दिया कि तुम अपना बच्चा संभालो. मैं अभी इतना कमाता हूं कि तुम्हारा भरणपोषण कर सकूं. एक दिन बाबूजी अंजली को समझाते हुए बोले, ‘बेटी, जिंदगी बहुत बड़ी होती है. मैं सोचता हूं कि तेरी शादी कहीं और कर दूं.’ ‘बाबूजी, शादीविवाह से मेरा विश्वास उठा चुका है,’ अंजली बोली, ‘अब तो सौरभ के सहारे मैं पूरा जीवन काट लूंगी.’ ‘बेटी, आज तो हम हैं लेकिन कल जब हम नहीं रहेंगे तब तुम किस के सहारे रहोगी?’ बाबूजी ने समझाया.

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