लेखक–नीरज कुमार मिश्रा
आनंद रंजन अर्बन बैंक में क्लर्क थे. उन की आमदनी ठीकठाक ही थी. घर में सुघड़ पत्नी के अलावा 2 बेटियां और 1 बेटा बस इतना सा ही परिवार था आनंद रंजन का.
गांव में अम्मांबाबूजी बड़े भाई के साथ रहते थे, इसलिए उन की तरफ की जिम्मेदारियों से आनंद मुक्त थे, हां… पर गांव में हर महीने पैसे जरूर भेज दिया करते थे.
वैसे तो आनंद रंजन का किसी के साथ कोई मनमुटाव नहीं था. सब के साथ उन का मृदु स्वभाव उन्हें लोगों के बीच लोकप्रिय बनाए रखता था, चाहे बैंक का काम हो या सामाजिक काम, सब में आगे बढ़चढ़ कर हिस्सा लिया करते थे वे. साथ ही साथ अपने परिवार को आनंद रंजन पूरा समय भी देते थे. जहां हमारे देश में एक लड़के को ही वंश चलाने के लिए जरूरी माना जाता है और लड़कियों के बजाय लोग लड़कों को वरीयता देते हैं, वहीं आनंद की दोनों बेटियां, बड़ी बेटी निहारिका और छोटी बेटी रिया उन की आंखों का तारा थीं. बड़ी बेटी सीधीसादी और छोटी बेटी रिया थोड़ी चंचल थी.
आनंद रंजन बेटे और बेटियों दोनों को समान रूप से ही प्यार करते थे और यही वजह है कि जब बड़ी बेटी को इंटरमीडिएट की पढ़ाई के बाद आगे की पढ़ाई के लिए लखनऊ जाने की बात आई, तो आनंद रंजन सहर्ष ही बेटी को लखनऊ भेजने के लिए मान गए थे और लखनऊ विश्वविद्यालय में एडमिशन के लिए खुद वे अपनी बेटी निहारिका के साथ कई बार लखनऊ आएगए.
निहारिका को लखनऊ विश्वविद्यालय में एडमिशन मिल गया था और उस के रहने का इंतजाम भी आनंद रंजन ने एक पेइंग गेस्ट के तौर पर करा दिया था.
एक छोटे से कसबे से आई निहारिका एक बड़े शहर में आ कर पढ़ाई कर रही थी. एक नए माहौल, एक नए शहर ने उस की आंखों में और भी उत्साह भर दिया था.
यूनिवर्सिटी में आटोरिकशा ले कर पढ़ने जाना और वहां से आ कर रूममेट्स के साथ में मिलनाजुलना, निहारिका के मन में एक नया आत्मविश्वास जगा रहा था.
वैसे तो यूनिवर्सिटी में रैगिंग पर पूरी तरह से बैन लगा हुआ था, पर फिर भी सीनियर छात्र नए छात्रछात्राओं से चुहलबाजी करने से बाज नहीं आते थे.
‘‘ऐ… हां… तुम… इधर आओ…‘‘ अपनी क्लास के बाहर निकल कर जाते हुए निहारिका के कानों में एक भारी आवाज पड़ी.
एक बार तो निहारिका ने कुछ ध्यान नहीं दिया, पर दोबारा वही आवाज उसे ही टारगेट कर के आई तो निहारिका पलटी. उस ने देखा कि क्लास के बाहर बरामदे में 5-6 लड़कों का एक ग्रुप खड़ा हुआ था. उस में खड़ा एक दाढ़ी वाला लड़का उंगली से निहारिका को पास आने का इशारा कर रहा था.
यह देख निहारिका ऊपर से नीचे तक कांप उठी थी. उस ने यूनिवर्सिटी में दाखिला लेने से पहले विद्यार्थियों की रैगिंग के बारे में खूब सुन रखा था.
‘तो क्या ये लोग मेरी रैगिंग लेंगे…? क्या कहेंगे मुझ से ये…? मैं क्या कह पाऊंगी इन से…?‘ मन में इसी तरह की बातें सोचते हुए निहारिका उन लड़कों के पास जा पहुंची.
‘‘क्या नाम है तुम्हारा?”
‘‘ज… ज… जी… निहारिका.‘‘
‘‘हां, तो… इधर निहारो ना… इधर… उधर कहां ताक रही हो… जरा हम भी तो जानें कि इस बार कैसेकैसे चेहरे आए हैं बीए प्रथम वर्ष में,‘‘ दाढ़ी वाला लड़का बोला.
हलक तक सूख गया था निहारिका का. उन लड़कों की चुभती नजरें निहारिका के पूरे बदन पर घूम रही थीं. अपनी किताबों को अपने सीने से और कस कर चिपटा लिया था निहारिका ने.
‘‘अरे, तनिक ऊपर भी देखो न, नीचेनीचे ही नजरें गड़ाए रहोगे, तो गरदन में दर्द हो जाएगा,‘‘ उस ग्रुप में से दूसरा लड़का बोला.
निहारिका पत्थर हो गई थी. उसे समझ नहीं आ रहा था कि इन लड़कों को क्या जवाब दे. निश्चित रूप से इन लड़कों को पढ़ाई से कोई लेनादेना नहीं था. ये तो शोहदे थे जो नई लड़कियों को छेड़ने का काम करते थे.
‘‘अरे क्या बात है… क्यों छेड़ रहे हो… इस अकेली लड़की को भैया,‘‘ एक आवाज ने उन लड़कों को डिस्टर्ब किया और वे सारे लड़के वास्तव में डिस्टर्ब तो हो ही गए थे, क्योंकि राजवीर सिंह अपने दोस्तों के साथ वहां पहुंचा था और उस अकेली लड़की की रैगिंग होता देख उसे बचाने की नीयत से वहां आया था.
‘‘और तुम… जा सकती हो यहां से… कोई तुम्हें परेशान नहीं करेगा,’’ राजवीर की कड़क आवाज निहारिका के कानों से टकराई थी.
निहारिका ने सिर घुमा कर देखा तो एक लड़का, जिस की आंखें इस समय उन लड़कों को घूर रही थीं, निहारिका तुरंत ही वहां से लंबे कदमों से चल दी थी. जातेजाते उस के कान में उस लड़के की आवाज पड़ी थी, जो उन शोहदों से कह रहा था, ‘‘खबरदार, किसी फ्रेशर को छेड़ा तो ठीक नहीं होगा… ये कल्चर हमारे लिए सही नहीं है.‘‘
निहारिका मन ही मन उस अचानक से मदद के लिए आए लड़के का धन्यवाद कर रही थी और यह भी सोच रही थी कि कितनी मूर्ख है वह, जो उस लड़के को थैंक्स भी नहीं कह पाई… चलो, कोई बात नहीं, दोबारा मिलने पर जरूर कह देगी.
उस को थैंक्स कहने का मौका अगले ही दिन मिल गया, जब निहारिका क्लास खत्म कर के निकल रही थी. तब वही आवाज उस के कानों से टकराई, ‘‘अरे मैडम, आज किसी ने आप को छेड़ा तो नहीं ना.‘‘
देखा तो कल मदद करने वाला लड़का ही अपने दोनों हाथों को नमस्ते की शक्ल में जोड़ कर खड़ा हुआ था और निहारिका की आंखों में देख कर मुसकराए जा रहा था.
‘‘ज… जी, नहीं… पर कल जो आप ने मेरी मदद की, उस का बहुत शुक्रिया.‘‘
‘‘शुक्रिया की कोई बात नहीं… आगे से अगर आप को कोई भी मदद चाहिए हो तो आप मुझे तुरंत ही याद कर सकती हैं… ये मेरा कार्ड है… इस पर मेरा फोन नंबर भी है,‘‘ एक सुनहरा कार्ड आगे बढाते हुए उस लड़के ने कहा.
कार्ड पर नजर डालते हुए निहारिका ने देखा, ‘राजवीर सिंह, बीए तृतीय वर्ष.’
राजवीर एक राजनीतिक परिवार से ताल्लुक रखता था और उस ने एडमिशन तो विश्वविद्यालय में ले रखा था, पर उस का उद्देश्य प्रदेश की राजनीति तक पहुंचने का था और इसीलिए पढ़ाई के साथ ही उस ने छात्रसंघ के अध्यक्ष पद के लिए तैयारी शुरू कर दी थी.