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‘मम्मी, तुम गंदी हो,’’ खुशी रोंआसे स्वर में बोली. उसे तरंग का इस तरह नंदिनी के साथ चले जाना बहुत अखर रहा था.

‘‘आप भी कह ही डालिए जो कहना है. इस तरह मुंह फुलाए क्यों बैठी हैं?’’ नम्रता पूर्णा देवी को चुप बैठे देख कर बोली.

‘‘मैं तो यही कहूंगी कि तुम से कहीं अधिक बुद्धिमान तो तुम्हारी 5 वर्षीय बेटी है. उस ने आज नंदिनी को अपने व्यवहार से वह सब जता दिया जो तुम कभी नहीं कर पाईं.’’

‘‘मैं आप के संकेतों की भाषा समझती हूं मांजी. पर क्या करूं? नंदिनी मेरी चचेरी बहन है.’’

‘‘चचेरी बहन... बात अपनी गृहस्थी बचाने की हो तो सगी बहन से भी सावधान रहना चाहिए,’’ पूर्णा देवी बोलीं.

‘‘नंदिनी को क्या दोष दूं मांजी, जब अपना पैसा ही खोटा निकल जाए. तरंग को तो अपनी पत्नी को छोड़ कर हर युवती में गुण ही गुण नजर आते हैं. आज नंदिनी है. उस से पहले तन्वी थी. विवाह से पहले की उन की रासलीलाओं के संबंध में तो आप जानती ही हैं.’’

‘‘मैं सब जानती हूं. पर मैं ने जिस लड़की को तरंग की पत्नी के रूप में चुना था वह तो जिजीविषा से भरपूर थी. तुम्हारा गुणगान अपने तो क्या पराए भी करते थे. फिर ऐसा क्या हो गया जो तुम सब से कट कर अपनी ही खोल में सिमट कर रह गई हो?’’

‘‘पता नहीं, पर दिनरात मेरी कमियों का रोना रो कर तरंग ने मुझे विश्वास दिला दिया है कि मैं किसी योग्य नहीं हूं. आप ने सुना नहीं था? तरंग नंदिनी से कह रहे थे कि अजनबियों के बीच जाते ही मेरी घिग्घी बंध जाती है. जबकि कालेज में मैं साहित्यिक क्लब की सर्वेसर्वा थी. पूरे 4 वर्षों तक मैं ने उस का संचालन किया था.’’

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