रिश्तोें को मापने का नजरिया हर इनसान का अलगअलग होता है. जरूरी नहीं कि यह नजरिया औरों के अनुकूल भी हो. रिश्तों को ले कर ऐसा ही कुछ अलग नजरिया था शुभा का.

अजय कुछ दिन से चुपचुप सा है. समझ नहीं पा रही हूं कि क्या वजह है. मैं मानती हूं कि 18-20 साल की उम्र संवेदनशील होती है, मगर यही संवेदनशीलता अजय की चुप्पी का कारण होगी यह मानने को मेरा दिल नहीं मान रहा. अजय हंसमुख है, सदा मस्त रहता है फिर उस के मन में ऐसा क्या है, जो उसे गुपचुप सा बनाता जा रहा है.

‘‘क्या अकेला बच्चा स्वार्थी हो जाता है, मां?’’

‘‘क्या मतलब…मैं समझी नहीं?’’

सब्जी काटतेकाटते मेरे हाथ रुक से गए. अजय हमारी इकलौती संतान है, क्या वह अपने ही बारे में पूछ रहा है?

‘‘मैं ने मनोविज्ञान की एक किताब में पढ़ा है कि जो इनसान अपने मांबाप की इकलौती संतान होता है वह बेहद स्वार्थी होता है. उस की सोच सिर्फ अपने आसपास घूमती है. वह किसी के साथ न अपनी चीजें बांटना चाहता है न अधिकार. उस की सोच का दायरा इतना संकुचित होता है कि वह सिर्फ अपने सुखदुख के बारे में ही सोचता है…’’ कहताकहता अजय तनिक रुक गया. उस ने गौर से मेरा चेहरा देखा तो मुझे लगा मानो वह कुछ याद करने की कोशिश कर रहा हो.

‘‘मां, आप भी तो उस दिन कह रही थीं न कि आज का इनसान इसीलिए इतना स्वार्थी होता जा रहा है क्योंकि वह अकेला है. घर में 2 बच्चों में अकसर 1 बहन 1 भाई होने लगा है और बहन के ससुराल जाने के बाद बेटा मांबाप की हर चीज का एकमात्र अधिकारी बन जाता है.’’

‘‘बड़ी गहरी बातें करने लगा है मेरा बच्चा,’’ हंस पड़ी मैं, ‘‘हां, यह भी सत्य है, हर संस्कार बच्चा घर से ही तो ग्रहण करता है. लेनादेना भी तभी आएगा उसे जब वह इस प्रक्रिया से गुजरेगा. देने का सुख क्या होता है, यह वह कैसे जान सकता है जिस ने कभी किसी को कुछ दिया ही नहीं.’’

‘‘तो फिर दादी आप से इतनी घृणा क्यों करती हैं? क्या आप उन का अपमान करती रही हैं? जिस का फल वह आप से नफरत कर के आप को देना चाहती हैं?’’

अवाक् रह गई मैं. अजय का सवाल कहां से कहां चला आया था. कुछ दिन पहले वह अपनी दादी के साथ रहने गया था. मैं चाहती तो बेटे को वहां जाने से रोक सकती थी क्योंकि जिस औरत ने कभी मुझ से प्यार नहीं किया वह मेरे खून से प्यार कैसे करेगी? फिर भी भेज दिया था. मैं नहीं चाहती कि मेरा बेटा मेरे कहने पर अपना व्यवहार निर्धारित करे.

20 साल का बच्चा इतना भी छोटा या नासमझ नहीं होता कि उसे रिश्तों के बारे में उंगली पकड़ कर चलाया जाए. रिश्तों की समझ उसे उन रिश्तों के साथ जी कर ही आए तो वही ज्यादा अच्छा है. अजय जितना मेरा है उतना ही वह अपनी दादी का भी है न.

‘‘मां, दादी तुम से इतनी नफरत क्यों करती हैं?’’ अजय ने अपना प्रश्न दोहराया.

‘‘तुम दादी से ही पूछ लेते, यह सवाल मुझ से क्यों पूछ रहे हो?’’

हंस पड़ी मैं, यह सोच कर कि 3-4 दिन अपनी दादी के साथ रह कर मेरा बेटा यही बटोर पाया था. अब समझी मैं कि अजय इतना चुप क्यों है.

‘‘4 दिन मैं वहां रहा था मां. दादी ने जब भी आप से संबंधित कोई बात की उन की जबान की मिठास कड़वाहट में बदलती रही. एक बार भी उन के मुंह से आप का नाम नहीं सुना मैं ने. बूआ आईं तो उन्होंने भी आप के बारे में कुछ नहीं पूछा. पिछले दिनों आप अस्पताल में रहीं, आप का इतना बड़ा आपरेशन हुआ था. आप का हालचाल ही पूछ लेतीं एक बार.’’

‘‘तुम पूछते न उन से… पूछा क्यों नहीं…तुम्हारे पापा से भी मैं अकसर पूछती हूं पर वह भी कोई उत्तर नहीं देते. मुझे तो इतना ही समझ में आता है कि तुम्हारे पापा की पत्नी होना ही मेरा सब से बड़ा दोष है.’’

‘‘क्यों? क्या तुम्हारी शादी दादी की इच्छा के खिलाफ हुई थी?’’

‘‘नहीं तो. तुम्हारी दादी खुद गई थीं मेरा रिश्ता मांगने क्योंकि तुम्हारे पापा को मैं बहुत पसंद थी.’’

‘‘क्या पापा ने अपनी मां और बहन को मजबूर किया था इस शादी के लिए?’’

‘‘यह बात तुम अपने पापा से पूछना क्योेंकि कुछ सवालों का उत्तर मेरे पास है ही नहीं. लेकिन यह सच है कि तुम्हारी दादी ने हमारे 22 साल के विवाहित जीवन में कभी मुझ से प्यार के दो मीठे बोल नहीं बोले.’’

‘‘तुम तो उन के साथ भी नहीं रहती हो जो गिलेशिकवे की गुंजाइश उठती हो. जब भी हम घर जाते हैं या दादी यहां आती हैं वह आप से ज्यादा बात नहीं करतीं. हां, इतना जरूर है कि उन के आने से पापा का व्यवहार  बहुत अटपटा सा हो जाता है…अच्छा नहीं लगता मुझे… इसीलिए इस बार मैं उन के साथ रहने चला गया था यह सोच कर कि शायद मैं अकेला जाऊं तो उन्हें अच्छा लगे.’’

‘‘तो कैसा लगा उन्हें? क्या अच्छा लगा तुम्हें उन का व्यवहार?’’

‘‘मां, उन्हें तो मैं भी अच्छा नहीं लगा. एक दिन मैं ने इतना कह दिया था कि मां आलू की सब्जी बहुत अच्छी बनाती हैं. आप भी आज वैसी ही सब्जी बना कर खिलाएं. मेरा इतना कहना था कि दादी को गुस्सा आ गया. डोंगे में पड़ी सब्जी उठा कर बाहर डस्टबिन में गिरा दी. भूखा ही उठना पड़ा मुझे. रोेटियां भी उठा कर फेंक दीं. कहने लगीं कि इतनी अच्छी लगती है मां के हाथ की रोटी तो यहां क्या लेने आया है, जा, चला जा अपनी मां के पास…’’

अवाक् रह गई थी मैं. एक 80 साल की वृद्धा में इतनी जिद. बुरा तो लगा था मुझे लेकिन मेरे लिए यह नई बात नहीं थी.

‘‘क्या मैं अपनी मां के हाथ के खाने की तारीफ भी नहीं कर सकता हूं… आप का नाम लिया उस का फल यह मिला कि मुझे पूरी रात भूखा रहना पड़ा, ऐसा क्यों, मां?’’

मैं अपने बच्चे को उस क्यों का क्या उत्तर देती. मन भर आया मेरा. मेरा बच्चा पूरी रात भूखा रहा इस बात का अफसोस हुआ मुझे, मगर इतना संतोष भी हुआ कि मेरे सिवा कोई और भी है जिसे मेरी ही तरह अपमानित कर उस वृद्धा ने घर से बाहर निकलने पर मजबूर कर दिया. इस का मतलब अजय इसी वजह से जल्दी वापस चला आया होगा.

‘‘मेरे साथ तो तेरी दादी का व्यवहार ऐसा ही है. डोली से निक ली थी उस पल भी उन्होंने ऐसा ही व्यवहार किया था. तुम्हारे पापा ने तुम्हारी बूआ से बस, इतना ही कहा था कि दीदी, जरा शुभा को कुछ खिला देना, उस ने रास्ते में भी कुछ नहीं खाया. पर भाई के शगुन करना तो दूर, मांबेटी ने रोनापीटना शुरू कर दिया और उन के रोनेधोने से घर आए तमाम मेहमान जमा हो गए थे.’’

22 साल पुरानी वह घटना आज फिर आंखों के सामने साकार हो उठी.

‘‘ ‘भाभी, यह क्या पागलपन है? आते ही बहू को अपना यह क्या रूप दिखा रही हो. बेटे ने उस की जरा सी चिंता कर के ऐसा कौन सा पाप कर दिया जो बेटा छिन जाने का रोना ले कर बैठ गई हो… घरघर मांएं हैं, घर घर बहनें हैं… तुम क्या अनोखी मांबहन हो जो बहू का घर में पैर रखना ही तुम से सहा नहीं जा रहा. हमारी मां ने भी तो अपना सब से लाड़ला बेटा तुम्हें सौंपा था. क्या उस ने कभी ऐसा सलूक किया था तुम से, जैसा तुम कर रही हो?’ ’’ पति की बूआ ने किसी तरह सब ठीक करने का प्रयास किया था.

तब का उन का वह रूप और आज का उन का यह रूप. उन की जलन त्योंत्यों बढ़ती रही ज्योंज्यों मेरे पति अपने परिवार में रमते रहे.

हम साथ कभी नहीं रहे क्योंकि पति की नौकरी सदा बाहर की रही, लेकिन यह भी सच है, यदि साथ रहना पड़ता तो रह भी न पाते. मेरी सूरत देखते ही उन का चेहरा यों बिगड़ जाता है मानो कोई कड़वी दवा मुंह में घुल गई हो. अकसर मैं सोचती हूं कि क्या मैं इतनी बुरी हूं.

मैं ने ऐसा कभी नहीं चाहा कि मैं एक बुरी बहू बनूं मगर क्या करूं, मेरी बुराई इसी कड़वे सच में है कि मैं अपने पति की पत्नी बन कर ससुराल में चली आई थी. मेरा हर गुण, मेरी सारी अच्छाई उसी पल एक काले आवरण से ढक सी गई जिस पल मैं ने ससुराल की दहलीज पर पैर रखा था. मेरा दोष सिर्फ इतना सा रहा कि अजय के पिता को अजय की दादी मानसिक रूप से कभी अपने से अलग ही नहीं कर पाईं. लाख सफल मान लूं मैं स्वयं को मगर ससुराल में मैं सफल नहीं हो पाई. न अच्छी बहू बन सकी न ही अच्छी भाभी.

‘‘दादी अकेली संतान थीं न अपने घर में…बूआ भी अकेली बहन. यही वजह है कि दादी और बूआ ने अपने खून के अलावा किसी को अपना नहीं माना. जो बेटे में हिस्सा बांटने चली आई वही दुश्मन बन गई. मैं भले ही उन का पोता हूं लेकिन तुम से प्यार करता हूं इसलिए मुझे भी अपना दुश्मन समझ लिया.

‘‘मां, दादी की मानसिकता यह है कि वह अपने प्यार का दायरा बड़ा करना तो दूर उस दायरे में जरा सा रास्ता भी बनाना नहीं चाहतीं कि हम दोनों को उस में प्रवेश मिल सके. वह न हमारी बनती हैं न हमें अपना बनाती हैं. हमतुम भला कब तक बंद दरवाजे पर सिर फोड़ते रहेंगे.

‘‘जाने दो उन्हें, मां… मत सोचो उन के बारे में. अगर हमारे नसीब में उन का प्यार नहीं है तो वह भी कम बदनसीब नहीं हैं न, जिन के नसीब में हम दोनों ही नहीं. जिसे बदला न जा सके उसे स्वीकार लेना ही उचित है. वह वहां खुश हम यहां खुश…’’

सारी कहानी का सार मेरे सामने परोस दिया अजय ने. पहली बार लगा, ससुराल में कोई साथी मिल गया है जो मेरी पीड़ा को जीता भी है और महसूस भी करता है. सब ठीक चल रहा था फिर भी अजय उदास रहता था. मैं कुरेदती तो गरदन हिला देता.

मेरी एक सहेली के पति एक शाम हमारे घर आए तो सहसा मैं ने अपने मन की बात उन से कह दी. उन के बडे़ भाई एक अच्छे मनोवैज्ञानिक हैं.

‘‘भैया, आप अजय को किसी बहाने से उन्हें दिखा देंगे क्या? मैं कहूंगी तो शायद न उसे अच्छा लगेगा न उस के पापा को. हर पल चुपचुप रहता है और उदास भी.’’

उन्होंने आश्वासन दे दिया और जल्दी ही ऐसा संयोग भी बन गया. मेरी उसी सहेली के घर पर कोई पारिवारिक समारोह था. परिवार सहित हम भी आमंत्रित थे. सभी परिवार आपस में खेल खेल रहे थे. कोई ताश, कोई कैरम.  सहेली के जेठ भी वहीं थे, जो बड़ी देर तक अजय से बतियाते रहे थे और ताश भी खेलते रहे थे. उस दिन अजय खुश था. न कहीं उदासी थी न चुप्पी.

दूसरे दिन उन का फोन आया. मेरे पति से उन की खुल कर बात हुई. मेरे पति चुप रह गए.

‘‘क्या बात है, क्या कहा डाक्टर साहब ने?’’

कुछ देर तक मेरे पति मेरा चेहरा बड़े गौर से पढ़ते रहे फिर कुछ सोच कर बोले, ‘‘अजय अकेलेपन से पीडि़त है. उस के यारदोस्त 2-2, 3-3 भाईबहन हैं. उन के भरेपूरे परिवार को देख कर अजय को ऐसा लगता है कि एक वही है जो संसार में अकेला है.’’

क्या कहती मैं? एक ही संतान रखने की जिद भी मेरी ही थी. अब जो हो गया सो हो गया. बीता वक्त लौटाया तो नहीं जा सकता न. शाम को अजय कालिज से आया तो मन हुआ उस से कुछ बात करूं…फिर सोचा, भला क्या बात करूं… माना मांबेटे दोनों काफी हद तक दोस्त बन कर रहते हैं फिर भी भाईबहन की कमी तो है ही. पति अपने काम में व्यस्त रहते हैं और मेरी अपनी सीमाएं हैं, जो नहीं है उसे पूरा कैसे करूं?

अजय की हंसी धीरेधीरे और कम होने लगी थी. मैं ने जोर दे कर कुरेदा तो सहसा बोला, ‘‘मां, क्या मेरा कोई भाईबहन नहीं हो सकता?’’

हैरान रह गई मैं. अपने कानों पर विश्वास ही नहीं हुआ मुझे. बड़े गौर से मैं ने अपने बेटे की आंखों में देखा और कहा, ‘‘तुम 20 साल के होने वाले हो, अजय. इस उम्र में अगर तुम्हारा कोई भाई आ गया तो लोग क्या कहेंगे, क्या शरम नहीं आएगी तुम्हें?’’

‘‘इस में शरम जैसा क्या है, अधूराअधूरा सा लगता है मुझे अपना जीना. कमी लगती है, घर में कोई बांटने वाला नहीं, कोई मुझ से लेने वाला नहीं… अकेले जी नहीं लगता मेरा.’’

‘‘मैं हूं न बेटा, मुझ से बात करो, मुझ से बांटो अपना सुख, अपना दुख… हम अच्छे दोस्त हैं.’’

‘‘आप तो मुझ से बड़ी हैं… आप तो सदा देती हैं मुझे, कोई ऐसा हो जो मुझ से मांगे, कोई ऐसा जिसे देख कर मुझे भी बड़े होने का एहसास हो… मैं स्वार्थी बन कर जीना नहीं चाहता… मैं अपनी दादी, अपनी बूआ की तरह इतने छोटे दिल का मालिक नहीं बनना चाहता कि रिश्तों को ले कर निपट कंगाल रह जाऊं, मेरा अपना कौन होगा मां. सुखदुख में मेरे काम कौन आएगा?’’

‘‘तुम्हारे पापा हर सुखदुख में तुम्हारी बूआ के काम आते हैं न. मां की एक आवाज पर भागे चले जाते हैं लेकिन जब उन की पत्नी अस्पताल में पड़ी थी तब कौन आया था उन के काम? क्या दादी या बूआ आई थीं यहां. मुझे किस ने संभाला था? कौन था मेरे पास?

‘‘रिश्तों के होते हुए भी क्या कभी तुम ने हमारे परिवार को सुखदुख बांटते देखा है? उम्मीद करना मनुष्य की सब से बड़ी कमजोरी है, अजय. वही सुखी है जिस ने कभी किसी से कोई उम्मीद नहीं की. जीवन की लड़ाई हमेशा अकेले ही लड़नी पड़ती है और सुखदुख में काम आता है हमारा चरित्र, हमारा व्यवहार. किसी के बन जाओ या किसी को अपना बना लो.

‘‘मैं 15 दिन अस्पताल में रही… कौन हमारा खानापीना देखता रहा, क्या तुम नहीं जानते? हमारा आसपड़ोस, तुम्हारे पापा के मित्र, मेरी सहेलियां. तुम्हारे दोस्त ने तो मुझे खून भी दिया था. जो लोग हमारे काम आए क्या वे हमारे सगेसंबंधी थे? बोलो?

‘‘भाईबहन के न होने से तुम्हारा दिल छोटा कैसे रह जाएगा? रिश्तों के होते हुए हमारा कौन सा काम हो गया जो तुम्हारा नहीं होगा. किसी की तरफ प्यार भरा ईमानदार हाथ बढ़ा कर देखना अजय, वही तुम्हारा हो जाएगा. प्यार बांटोगे तो प्यार मिलेगा.’’

‘‘मुझे एक भाई चाहिए, मां,’’ रोने लगा अजय.

‘‘जिन के भाई हैं क्या उन का झगड़ा नहीं देखा तुम ने? क्या वे सुखी हैं? हर घर का आज यही झगड़ा है… भाई ही भाई को सहना नहीं चाहता. किस मृगतृष्णा में हो… कल अगर तुम्हारा भाई तुम्हारा साथ छोड़ कर चला जाएगा तो तुम्हें अकेले ही तो जीना होगा…अगर हमारी संपत्ति को ले कर ही तुम्हारा भाई तुम से झगड़ा करेगा तब कहां जाएगी रिश्तेदारी, अपनापन जिस के लिए आज तुम रो रहे हो?

‘‘अजय, तुम्हारी अपनी संतान होगी, अपनी पत्नी, अपना घर. तब तुम अपने बच्चों के लिए करोगे या भाई के लिए? तुम से 20 साल छोटा भाई तुम्हारे लिए संतान के बराबर होगा. दोनों के बीच पिस जाओगे, जिस तरह तुम्हारे पापा पिसते हैं, मां की बिना वजह की दुत्कार भी सहते हैं और बहन के ताने भी सहते हैं…अच्छा पुत्र, अच्छा भाई बनने का पूरा प्रयास करते हैं तुम्हारे पापा फिर भी उन्हें खुश नहीं कर सके. उन का दोष सिर्फ इतना है कि उन्हें अपनी पत्नी, अपने बच्चे से भी प्यार है, जो उन की मांबहन के गले नहीं उतरता.

‘‘कल यही सब तुम्हारे साथ भी होगा. जरूरत से ज्यादा प्यार भी इनसान को संकुचित और स्वार्थी बना देता है. तुम्हारी दादी और बूआ का तुम्हारे पापा के साथ हद से ज्यादा प्यार ही सारी पीड़ा की जड़ है और यह सब आज हर तीसरे घर में होता है, सदा से होता आया है. जिस दिन पराया खून प्यारा लगने लगेगा उसी दिन सारे संताप समाप्त हो पाएंगे.

‘‘शायद तुम्हारी पत्नी का खून मुझे पानी जैसा न लगे…शायद मेरी बहू की पीड़ा पर मेरी भी नसें टूटने लगें… शायद वह मुझे तुम से भी ज्यादा प्यारी लगने लगे. इसी शायद के सहारे तो मैं ने अपनी एक ही संतान रखने का निर्णय लिया था ताकि मेरी ममता इतनी स्वार्थी न हो जाए कि बहू को ही नकार दे. मैं अपनी बेटी के सामने अपनी बहू का अपमान कभी न कर पाऊं इसीलिए तो बेटी को जन्म नहीं दिया…क्या तुम मेरे इस प्रयास को नकार दोगे, अजय?’’

आंखें फाड़ कर अजय मेरा मुंह देखने लगा था. उस के पापा भी पता नहीं कब चले आए थे और चुपचाप मेरी बातें सुन कर मेरा चेहरा देख रहे थे.

‘‘जीवन इसी का नाम है, अजय. वे घर भी हैं जहां बहुएं दिनरात बुजुर्गों का अपमान करती हैं और एक हमारा घर है जहां पहले दिन से मेरी सास मेरा अपमान कर रही हैं, जहां बेटी के तो सभी शगुन मनाए जाते हैं और बहू का मानसम्मान घर की नौकरानी से भी कम. बेटी का साम्राज्य घर के चप्पेचप्पे पर है और बहू 22 साल बाद भी अपनी नहीं हो सकी.’’

आवेश में पता नहीं क्याक्या निकल गया मेरे मुंह से. अजय के पापा चुप थे. अजय भी चुप था. मैं नहीं जानती वह क्या सोच रहा है. उस की सोच कुछ ही शब्दों से बदल गई होगी ऐसी उम्मीद भी नहीं की जा सकती लेकिन यह सत्य मेरी समझ में अवश्य आ गया है कि जीवन को नापने का सब का अपनाअपना फीता होता है. जरूरी नहीं किसी के पैमाने में मेरा सच या मेरा झूठ पूरी तरह फिट बैठ जाए.

मैं ने अपने जीवन को उसी फीते से नापा है जो फीता मेरे अपनों ने मुझे दिया है. मैं यह भी नहीं कह सकती कि अगर मेरी कोई बेटी होती तो मैं बहू को उस के सामने सदा अपमानित ही करती. हो सकता है मैं दोनों रिश्तों में एक उचित तालमेल बिठा लेती. हो सकता है मैं यह सत्य पहले से ही समझ जाती कि मेरा बुढ़ापा इसी पराए खून के साथ कटने वाला है, इसलिए प्यार पाने के लिए मुझे प्यार और सम्मान देना भी पड़ेगा.

हो सकता है मैं एक अच्छी सास बन कर बहू को अपने घर और अपने मन में एक प्यारा सा मीठा सा कोना दे देती. हो सकता है मैं बेटी का स्थान बेटी को देती और बहू का लाड़प्यार बहू को. होने को तो ऐसा बहुत कुछ हो सकता था लेकिन जो वास्तव में हुआ वह यह कि मैं ने अपनी दूसरी संतान कभी नहीं चाही, क्योंकि रिश्तों की भीड़ में रह कर भी अकेला रहना कितना तकलीफदेह है यह मुझ से बेहतर कौन समझ सकता है जिस ने ताउम्र रिश्तों को जिया नहीं सिर्फ ढोया है. खून के रिश्ते सिर्फ दाहसंस्कार करने के काम ही नहीं आते जीतेजी भी जलाते हैं.

तो बुरा क्या है अगर मनुष्य खून के रिश्तों से आजाद अकेला रहे, प्यार करे, प्यार बांटे. किसी को अपना बनाए, किसी का बने. बिना किसी पर कोई अधिकार जमाए सिर्फ दोस्त ही बनाए, ऐसे दोस्त जिन से कभी कोई बंटवारा नहीं होता. जिन से कभी अधिकार का रोना नहीं रोया जाता, जो कभी दिल नहीं जलाते, जिन के प्यार और अपनत्व की चाह में जीवन एक मृगतृष्णा नहीं बन जाता.

और कहानियां पढ़ने के लिए क्लिक करें...