‘‘फाइनली शिफ्ट हो रही हूं.’’
‘‘हमेशा खुश रहो बच्चे. बीचबीच में आती रहना. भूलना नहीं हमें.’’
चौधरी चाचा ने यह कहा तो वसुधा की नम आंखें झाक गईं. अपने आंसू उन्हें कैसे दिखाती जिन्होंने पिता की तरह सदा ही सिर पर हाथ रखा. बस, हाथ जोड़ कर विदा ले ली और अपने कैरियर की ऊंचाइयों के सफर पर निकल पड़ी. ओह, चौदह घंटे, पूरे चौदह घंटे बिताने हैं जो आसान कतई नहीं है. मां के लिए एक कौमेडी सिनेमा लगाया और बेटे के लिए कार्टून मूवी और खुद अपने ही जीवन के चलचित्र में खो गई.
इंटर में थी जब सिर से पिता का साया उठ गया था. दो छोटे भाई, जवान मां और संपत्ति के नाम पर घर के अलावा कुछ नहीं था. गणित में अच्छी थी. गलीमहल्ले वाले ट्यूशन के लिए अपने बच्चे भेजने लगे. कुछ तो अपने बच्चों की शरारतों से निश्ंिचत होना था तो कुछ का मकसद उस के परिवार की मदद करना भी एक उद्देश्य था. ट्यूशन से भला कितने पैसे आते? स्कूल, कालेज की फीस का इंतजाम ही हो पाता.
किशोरवय के बढ़ते बच्चों की और भी आवश्यकताएं होती हैं. मां ने महल्ले के ही कपड़ों की दुकान पर नौकरी कर ली. घरबाहर कड़ी मेहनत करती मां सुषमाजी के मुख का तेज मलिन हुआ जा रहा था. यह सब देखती वसुधा जाने कैसे खुद को अभिभावक समझने लगी थी. छोटे भाइयों पर अंकुश रखती और मां की चिंता करती. उस ने मन ही मन तय कर लिया था कि पहली नौकरी मिलते ही मां को आराम देगी.
सब अपने स्कूलकालेज में अच्छा कर रहे थे. उसे अच्छी तरह से याद है बी कौम फाइनल ईयर का आखिरी परचा. दोनों भाइयों को उन की स्कूलबस में चढ़ा कर जब कालेज के लिए बस में चढ़ने लगी तब ध्यान आया कि अपना पर्स तो घर में ही भूल आई है. चुपचाप बस से उतर गई. कालेज काफी दूर था. घर वापस जा कर कालेज जाना संभव नहीं था. परीक्षाभवन बंद हो जाता और इस तरह उस का पूरा साल बरबाद हो जाता.
‘का हुआ बिटिया? बस से काहे उतर गई?’ चौधरी चाचा बसस्टौप के पास अपनी पान की दुकान से बैठेबैठे ही आवाज दे रहे थे.
‘वह मैं पर्स घर पर ही…,’ आंखों से बड़ीबड़ी बूंदें बरसने लगीं. बात पूरी ही न कर पाई. चाचा को जब पूरी बात पता चली तो उन्होंने औटो वाले को रोक कर उसे आनेजाने के पैसे दे दिए और कहा, ‘बड़े अच्छे इंसान थे तुम्हारे पिता. अगर तुम्हारे किसी काम आ सका तो उस लोक में उन्हें अपना मुंह तो दिखा सकूंगा. जा बिटिया, अच्छे से इम्तिहान देना. सब ठीक होगा.’
सचमुच चाचाजी का आशीर्वाद उस के काम आ गया था. उस ने यूनिवर्सिटी में प्रथम स्थान प्राप्त किया और साथ ही कैंपस सेलेक्शन से जौब भी लग गई. तभी से वह हर काम चौधरी चाचा के आशीर्वाद से ही शुरू करती. नौकरी लगते ही उस रोज भी उन का आशीर्वाद ले कर घर पहुंची थी तो मौसाजी को मां से बातें करते सुना.
‘घर की बड़ी बेटी है वसुधा. उस का रिश्ता समय पर कर दो. रोजरोज नहीं आते ऐसे रिश्ते,’ मौसाजी अपने भतीजे के लिए उस का हाथ मांग रहे थे.
‘लेकिन जीजाजी, अभी तो लड़की ने नौकरी शुरू ही की है. थोड़ा रुक कर करेंगे तो कुछ पैसे भी जमा हो जाएंगे.’
‘तुम्हें दुनियादारी की कोई समझ नहीं है, सुषमा. कमाऊ लड़की सोने की चिडि़या समान होती है. देर किया तो कोई और ले उड़ेगा.’
उस की भोली मां मौसाजी की चाल समझ ही नहीं पाई. वह एकमात्र कमाने वाली उसे घरगृहस्थी में फंसा कर मां की गृहस्थी चरमराना चाहते थे, साथ ही, अपने आवारा भतीजे को उस से शादी कर निबटाना भी ताकि किसी भी तरह यह परिवार, उन के परिवार से अधिक उन्नति न कर पाए. वैसे भी नानीमां का वह व्यवहार मौसीजी को नहीं भूला था कि मां के ब्याह के बाद वे अपने छोटे दामाद यानी उस के पिता को अधिक मान देती आई थीं और उन की इज्जत एक पैसे की भी न रह गई थी. बस, इस तरह से वे अपना बदला लेने पर आमदा थे.
‘‘वसुधा, बड़ी अच्छी लगी यह पिक्चर. तू ने नहीं देखी?’’ मां की आवाज सुन कर जैसे वह गहरी नींद से जागी.
‘‘जानती हो न मां, मैं फिल्में नहीं देखती.’’
‘‘हां बेटा, फिल्में भी उन्हें अच्छी लगती हैं जिन की खुद की जिंदगी में शांति हो.’’ मां की आवाज भर्राई तो उस से रहा न गया.
‘‘क्या कहती हो, मां, भूल जाओ सब.’’
‘‘कैसे भूल जाऊं? तुम ने हमारे लिए इतना कुछ किया और मैं ने तुम्हारी जिंदगी बरबाद. मां का कहतेकहते गला भर आया.’’
‘‘अरे, बहुत बढि़या जिंदगी है मेरी. तुम हो, रोहन है और साथ में इतनी बढि़या नौकरी, खुश रहने के लिए भला और क्या चाहिए,’’ कह कर वह रोहन से बातें करने लगी और सुषमाजी भारी मन से अतीत के गलियारे में खोती चली गईं.
वसुधा की शादी के 2 साल बाद अमित को अकाउंटैंट की नौकरी मिल गई थी. तब छोटे भाई सुमित को पढ़ाने की जिम्मेदारी उस ने अपने सिर ले ली. जीवन ठीकठाक ही चल रहा था जब तक सुमित के इंजीनियरिंग प्रवेश परीक्षा का रिजल्ट न आया था. सुमित को राज्य के टौप कालेज में एडमिशन मिला था. एडमिशन फीस के लिए उसे 50 हजार रुपयों की नितांत आवश्यकता थी. अमित के पास जोड़ कर दस ही निकले और दस उन्होंने अपनी ओर से मिला दिए. सुषमाजी को कुछ समझ में नहीं आ रहा था कि बाकी के पैसों के लिए किस से कहें. रिश्तेदारों ने तो पहले ही हाथ खड़े कर दिए थे. ऐसे में ‘आशा की किरण’ तो वसुधा ही थी. इधर वह भी काफी परेशान थी. क्रिकेट खेलते हुए दामादजी के पैरों में फ्रैक्चर हो गया था और वसुधा अस्पताल, घर व औफिस भागभाग कर तंग आ गई थी. ऐसे में बेटी से कहे या न कहे? तभी वसुधा की तरफ से ही फोन आ गया.
‘अम्मा, सुमित के एंट्रैंस का रिजल्ट आया क्या?’
‘हां, पर पैसे पूरे नहीं पड़ रहे. इस साल एडमिशन रहने देते हैं.’
‘अगले साल वह सीट भी न मिली तो? नहीं, यह नहीं होने दूंगी मैं. मेरा भाई एडमिशन लेगा और इसी साल लेगा. तू उसे मेरे औफिस भेज दे. मैं 30 हजार का चैक लिखती हूं.’
और उसी शाम वह हमेशा के लिए ससुराल छोड़ कर अपने घर वापस आ गई थी. उस के कानों से लगातार रक्तस्राव हो रहा था. कई दिनों तक अस्पताल में रहना पड़ा तब जा कर उस के सुनने की शक्ति वापस आ सकी थी. बहुत पूछने पर ही उस ने बताया कि बैंक मैनेजर ने वैरीफिकेशन के लिए पति को फोन कर दिया था कि वे यह रकम सचमुच निकालना चाहते हैं या किसी और ने… खैर, अपनी ही कमाई के पैसों को खर्चने की वीभत्स सजा पाई थी उस ने और वह भी उस वक्त जब वह अस्पताल के बिस्तर पर पड़े पति के स्नेह से वशीभूत खाने का निवाला उस के मुंह में धर रही थी. तड़ाक की जोरदार आवाज!
तभी उस ने फैसला कर लिया था कि अब वह ससुराल में कभी कदम नहीं रखेगी. सवाल एक थप्पड़ का नहीं था. सवाल उस के आत्मसम्मान का था. दिनरात की मेहनत के बाद भी एक नौकरानी का जीवन बसर कर रही थी. इस संघर्ष का अंत तो होना ही था. भाई की फीस तो एक माध्यम मात्र था. अब वह उस घर से आजाद होने के लिए तड़प उठी थी. एक साल के रोहन को गोद में उठा वह निकल आई थी. अपने बच्चे की किलकारी और क्रंदन दोनों ही वापस सुनने में उसे पूरा एक वर्ष लग गया था. घरेलू हिंसा के नाम पर तलाक आसानी से मिल गया था पर उस के जख्म अब भी हरे थे. बीते दिनों की याद से द्रवित हो सुषमाजी उस के गालों को सहलाती हुई बड़बड़ाने लगीं.
‘शादी के पहले कैसा बिल्ली सा था और बाद में शेर.’
‘‘शेर भी ढेर होते हैं मां. लेकिन यह क्या? तुम फिर से वही सब सोचने लगीं. पुरानी बातों को भुला कर हम लोग सुखचैन से रह सकें, इसीलिए तो सुमित ने अमेरिकी कंपनी जौइन की और तुम…’’
‘‘क्या करूं मेरे बच्चे? तेरा दुख.’’
‘‘वह देखो ‘स्टैच्यू औफ लिबर्टी,’ हम लैंड करने वाले हैं.’’
‘‘नानी, कानों में कौटन बौल्स रख लो वरना चिल्लाओगी आप,’’ रोहन बोला.
‘‘ला, शैतान दे जल्दी,’’ कह कर सुषमाजी हंस पड़ीं. सुमित एयरपोर्ट पर खड़ा था. उस के साथ ही एक जानीपहचानी सी शक्ल देख वसुधा बुरी तरह से चौंक गई. उस का सहपाठी विकास यहां सुमित के साथ, भला कैसे?
‘‘नो सवालजवाब दीदी. मैं जब से यहां आया हूं, विकास भैया ने मेरी हर तरह से मदद की है. इतना ही नहीं, वे तो कब से आप की राह देख रहे हैं. उन्होंने ही आप का जौब ट्रांसफर कराया है.’’
‘‘तुम ने सुमित का सहारा लिया, विकास, सीधेसीधे मुझ से भी तो कह सकते थे?’’
‘‘कब कहता? पहले तुम्हारे लायक बनने की कोशिश कर रहा था. पैरों पर खड़े होने के बाद तुम्हारी शादी और उस दुर्घटना की बात पता चली तो सामने आने की हिम्मत ही नहीं हुई.’’
‘‘और तुम छोटे मियां, तुम्हारी मिलीभगत है इस में,’’ वसुधा ने सुमित के कान पकड़े.
‘‘अरे दीदी, न न, कान नहीं.’’ सहसा वसुधा को अपना कान ध्यान आ गया तो वह फिर से सहम गई. सारा दर्द भूल पाना आसान तो नहीं था.
माहौल की गंभीरता देख विकास बोल उठा, ‘‘इस बेचारे की क्या गलती है, इस ने तो मेरा काम आसान किया है?’’ कह कर विकास ने सुमित के कंधे पर हाथ रखा पर नजरें वसुधा से जा टकराईं तो उस ने निगाहें नीची कर लीं. उस की पलकें जैसे लाज का परदा बन गई थीं.
‘‘कोई बताएगा मुझे कि क्या हो रहा है?’’ सुषमाजी चिल्ला पड़ीं.
‘‘दीदी की शादी हो रही है विकास भैया के साथ,’’ कह कर सुमित हंसने लगा. वसुधा अपने मित्र में अपना प्यार पा कर शर्म से दोहरी हो रही थी जबकि विकास ने बढ़ कर सुषमाजी के चरण छू लिए और हंसते हुए सुमित से कहा कि, ‘‘सही कहते हैं कि सारी खुदाई एक तरफ और जोरू का भाई एक तरफ.’’
उस की बात पर सभी हंस पड़े पर वसुधा रोहन को एयरपोर्ट के नियम समझने में व्यस्त थी. जानती थी कि इस रिश्ते में बंधने से पहले उसे नए सिरे से अपने 10 वर्षीय बेटे को मानसिक रूप से तैयार करना होगा और इस वक्त यही उस की सब से बड़ी जिम्मेदारी है और चुनौती भी. विकास वसुधा के मन के भावों को अच्छी तरह से समझ रहा था. भविष्य की कल्पना कर वह मन ही मन मुसकरा उठा.
लेखक – आर्या झा