मैं ने सोचा था कि स्वरूप के यहां काफी गहमागहमी होगी. उस ने मेरे अतिरिक्त अन्य मित्रों को भी निमंत्रित किया होगा. जम कर पार्टी होगी. दिल खोल कर ठहाके लगेंगे. पर ऐसा कुछ होता नजर नहीं आया. स्वरूप का सुंदर, छोटा सा कोठीनुमा घर एक विचित्र श्मशानी खामोशी और निर्जनता से आतंकित था. सारे दरवाजे बंद, चारों ओर गहन अंधकार. ‘क्या मुझे निमंत्रित कर के ये लोग कहीं और चले गए हैं?’ मैं ने सोचा. पर अंतर ने इस विचार को अस्वीकार कर दिया. स्वरूप तथा माला मेरे साथ ऐसा नहीं कर सकते.
मैं ने दरवाजे के बाहर लगे घंटी के सफेद बटन को दबा दिया. सन्नाटा छटपटा गया, पर मानव गतिविधि का कोई आभास नहीं मिला. फिर वही सन्नाटा.
‘शायद घर में कोई नहीं है,’ मैं ने सोचा और अनायास फिर से मेरा हाथ घंटी के बटन की ओर बढ़ गया. बटन दबा कर मैं मुड़ गया, वापस लौटने के लिए. मुख्यद्वार से कोई 50 गज की दूरी पर पहुंचते ही मुझे एक करुणभीगी नारीस्वर सुनाई दिया, ‘‘कौन है?’’ मैं पलटा. लपक कर मुख्यद्वार के समीप पहुंचा. उस अविश्वसनीय दृश्य को देख कर मैं बुरी तरह चौंक गया और मेरे मुंह से अनायास निकल गया, ‘‘माला भाभी, आप?’’
‘‘राकेश भैया, आप,’’ जिस तरह मैं चौंका था, उसी तरह माला भाभी भी मेरी अनपेक्षित तथा आकस्मिक उपस्थिति को देख कर जैसे घबरा गई थीं. मेरे सारे प्रश्न जम गए. शंकाओं को जैसे लकवा मार गया. यह क्या हुआ माला भाभी को? अस्तव्यस्त बाल, लाल आंखें, गालों पर सूखे आंसुओं की अव्यक्त एवं अदृश्य रेखाएं. कंपकंपाते होंठ, थरथराता शरीर. पिछले 12 वर्षों में पहली बार मैं माला भाभी को इस रूप में देख रहा था. यह अचानक रूपांतर क्यों? आखिर इस खिले, महकते पुष्प को क्या हो गया, जो इस तरह मुरझा गया?