दिल के कहीं किसी कोने में कुछ दरकता सा महसूस हुआ. न जाने क्यों शिखा का मन ज़ारज़ार रोने को कर रहा था. पर उस के शिक्षित और सभ्य मन ने उसे डांट कर सख्ती से रोक लिया.

कितनी आसानी से हिमांशु ने कहा दिया था- "तुम भी न, क्या ले कर बैठ गई हो, क्या फर्क पड़ता है, तुम्हें कौन सा रहना है उस घर में, ईंट और गारे से बने उस निर्जीव से घर के लिए इतना मोह. अपने पापामम्मी को समझाओ कि फालतू में मरम्मत के नाम पर पैसा बरबाद करने की जरूरत नहीं. आज नहीं तो कल उन्हें उस घर को छोड़ कर बेटों के पास जाना ही पड़ेगा."

निर्जीव...हिमांशु को क्या पता वह घर आज भी शिखा के तनमन में सांसें ले रहा था. पिछले साल की ही तो बात है, गरमी की छुट्टियों में शिखा को गांव वाले घर जाने का मौका मिला था. सच पूछो तो इस में नया क्या था, कुछ भी तो नहीं, साधारण सी तो बात थी. पर न जाने क्यों जर्जर होती उस घर की दीवारों को देख कर मन कैसाकैसा हो गया था. आखिर उस घर में बचपन बीता था उस का. चिरपरिचित सी दीवारें, घर का एकएक कोना न जाने क्यों शिखा को अपरचितों की तरह देख रहा था.

घर में नाममात्र के पड़े हुए फर्नीचर पर हाथ फेरने के लिए बढ़ाया हुआ शिखा का हाथ न जाने क्या सोच कर रुक गया. यादों के सारे पन्ने एकएक कर खुलने लगे. याद है उसे आज भी वह दिन. शादी के बाद पहली बार वह मम्मीपापा के साथ कुल देवता की पूजा करने आई थी. लाल महावर से रचे शिखा के पैरों ने जब घर की चौखट पर कदम रखा तो लगा मानो घर का कोनाकोना उस का स्वागत कर रहा था.

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