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‘‘ऐसा नहीं कहते, बेटा,’’ साधना ने आगे बढ़ कर रज्जू के होंठों पर हथेली रखते हुए कहा, ‘‘तेरे पापा तो देवता हैं, बेटे. हमारे सुख के लिए निर्वासित सा जीवन बिता रहे हैं. हम सब मिल कर इस बार तेरे पापा से साफ कह देंगे कि या तो हमें साथ ले चलें या नौकरी छोड़ कर यहां चले आएं. रज्जू, मेहनत की तो तुम भी लैक्चरर बन ही जाओगे.’’

रज्जू ने मां से पैसे ले, आज्ञानुसार पर्स में रख और मुसकराता हुआ चल दिया.
साधना गृहस्थी के कामों में व्यस्त हो जाना चाहती थी, क्योंकि उस के पास यही तो एक तरकीब थी, जिस से श्रीकृष्ण शर्मा की मचलती स्मृतियों को समझाया करती थी. उस ने सिटकनी लगा दी. रज्जू के पिता की तसवीर को स्नेहपूर्वक आंचल से साफ किया और नतमस्तक खड़ी हो गई. उस की आंखें श्रद्धावश स्वत: ही मूंदने लगीं. सपने उमड़नेघुमड़ने लगे. उसे अब तक का सबकुछ चलचित्र सा तैरने लगा. उस के समक्ष, श्रीकृष्ण का रस भीगा मादक स्वर लहराया, ‘‘साधना, रज्जू को यह अहसास तक न हो कि तुम उस की मां नहीं हो. औलाद का सुख और विमाताओं के व्यवहारगत दुख को सुन कर, मैं तो दूसरी शादी के लिए कतई तैयार नहीं हूं, साधना आज से रज्जू और दोनों बच्चों की तमाम जिम्मेदारियां तुम्हें सौंप कर, मैं मुक्त होता हूं... इसी आशा के साथ तुम कभी भी मेरे विश्वास को आहत न होने दोगी.’’

‘‘अब आप के विश्वास की रक्षा करना ही तो मेरा धर्म है. आप ने जो किया है, वह तो कोई अपने सगों के लिए भी नहीं करता,’’ वह केवल इतना ही बोल पाई थी.

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