लेखक- शेख विकार अहमद
‘‘अरे बाबा, रहने भी दो,’’ अनवर ने कहा, ‘‘एक दिन बाहर खाना खा लूंगा. मैं ने तो जातेजाते तुम्हारा हाल जानने के लिए आवाज दी थी. अगर तबीयत ठीक न हो तो पहले डाक्टर के यहां चलते हैं. मैं आधे दिन की छुट्टी ले लूंगा.’’
‘‘नहीं, वैसा कुछ नहीं है. आप चिंता न करें. थोड़ी देर में मैं ठीक हो जाऊंगी,’’ सुरैया ने कहा तो अनवर औफिस के लिए निकल पड़े.
अनवर बगैर लंच लिए औफिस गए, यह सोच कर सुरैया का दिल अपनेआप को कोसने लगा. सुबह से न जाने क्यों उस का मन ठीक नहीं था. कल रात को ऐसा कुछ खाया भी नहीं था कि बदहजमी हो जाती. वह अपनेआप से अचरज करती हुई फिर सुबह के काम निबटाने में लग गई.
10 बजे तक घर में अम्मा यानी उस की सास और वह दोनों ही रह गए. रोज की तरह उस ने सारे काम निबटा लिए. उधर अम्मा रोज की तरह किताब पढ़ने के बाद खाली बैठी थीं. उन्हें खाना खाने को कहने आई थी और उन से बात कर ही रही थी कि उसे जोर से उबकाई आई और वह वाशबेसिन की तरफ दौड़ पड़ी. अम्मा उस की उबकाई देख कर हैरान हो गईं.
‘‘क्या हो गया, बहू?’’ उन्होंने पूछा.
‘‘पता नहीं, अम्मा. बस, सुबह से ही मेरा मन ठीक नहीं है. पता नहीं कैसे बदहजमी हो गई. कल तो ऐसा कुछ खाया भी नहीं था,’’ उस ने वाशबेसिन से लौट कर जवाब दिया.
अम्मा ने दुनिया देखी थी. कहीं यह इस उम्र में मां तो नहीं बनने जा रही है. यह सोच कर उन के मुंह से अनायास ही निकल पड़ा, ‘‘हाय, अब क्या होगा?’’