उसे याद आया, एक बार वह और महेन बैठे बातचीत कर रहे थे. उस ने महेन के कंधे पर सिर रखते हुए कहा था, ‘महेन, सचसच बताना, तुम मु?ा से शादी किसलिए कर रहे हो?’
महेन ने उस की आंखों में आंखें डालते हुए कहा था, ‘अब बता ही दूं?’
‘हां, हां, बताओ न?’
‘तुम कौफी बहुत अच्छी बनाती हो,’ और अंबिका ने उसे प्यार से एक धौल जमाई थी.
अंबिका को अब भी विश्वास नहीं होता था कि महेन जैसा व्यक्ति उसे अपना जीवनसाथी बनाना चाह रहा था. एक तरफ मन पुलकित हो रहा था, दूसरी तरफ एक अनजाने भविष्य की कल्पना से उस का दिल बैठा जा रहा था. क्या सचमुच उस के दिन पलटेंगे? 40 वर्ष एकाकी जीवन बिताने के बाद क्या उस की आशाएं फलीभूत होंगी? क्या उसे भी वह सबकुछ मिलेगा जो हर औरत चाहती है यानी घर, पति और बच्चे.
अंबिका को अपना सहमा बचपन याद आ गया. बीमार मां की तसवीर आंखों में तैर गई, उन का पीला चेहरा, दमे से जर्जर शरीर, आएदिन वे खाट पकड़ लेतीं और घर का भार नन्ही अंबिका के अपरिपक्व कंधों पर आ पड़ता.
मां के निधन के बाद अंबिका ने घर का भार संभाल लिया. गुडि़यों से खेलने की उम्र में नूनतेल की चिंता में डूब गई. कब बचपन बीता और कब जवानी में कदम रखा, इस का उसे पता ही न चला.
कभीकभी मातंगी बूआ गांव से महीनेभर के लिए आ जातीं और हर बार पिताजी से एक ही राग अलापतीं, ‘रघुनाथ, बिना औरत के तेरी गृहस्थी चौपट हो रही है, तू दूसरा ब्याह क्यों नहीं कर लेता?’