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‘‘किस बात का डर?’’

‘‘क्या महेन से शादी कर के मैं सही कदम उठा रही हूं.’’

‘‘अरे, पागल हुई हो क्या? यह सब सोचने लग गईं आप?’’

‘‘बूआ की बातों ने मन में भारी डर पैदा कर दिया है.’’

‘‘ओह, दीदी, तुम तो जानती हो बूआ को, तिल का ताड़ बना देती हैं.’’

‘‘फिर भी जरा सोचा जाए तो महेन के बारे में हम जानते ही क्या हैं? न उस के घरवालों से मिले हैं. पता नहीं हमारी निभेगी या नहीं.’’

‘‘ओह दीदी, अब यह सब सोचना छोड़ो.’’

‘‘जब शादी की उम्र थी तो शादी न की, अब इस ढलती उम्र में दुलहन बनूंगी तो लोग हंसेंगे नहीं?’’

‘‘लोगों के कहने की, हंसने की तुम्हें इतनी परवा क्यों है? दीदी, तुम्हारा मन गवाही देता है कि महेन भला आदमी है, तुम्हारे योग्य है तो और क्या चाहिए.’’

‘‘सोचती हूं, अब शादी कर के क्या होगा? तुम और दिनेश तो हो ही सहारे के लिए. क्यों राधिका, तू अपनी दीदी को बुढ़ापे में सहारा देगी न?’’

राधिका भावविभोर हो कर अंबिका से लिपट गई, ‘‘वाह... दीदी, यह भी कोई पूछने की बात है? यदि तुम ने आसरा न दिया होता तो मैं और मेरे बच्चे भीख मांगते होते. दिनेश को तो तुम जानती हो, जमानेभर का नकारा.’’

‘‘छोड़ वह सब. अब यह तय रहा, मैं महेन से शादी नहीं करूंगी.’’

‘‘अच्छी तरह सोचविचार कर लो.’’

‘‘सोच चुकी.’’

अगली सुबह अंबिका उठी तो ऐसा लग रहा था कि मन में एक भारी बो?ा उतर गया है. घर से निकल कर रिकशे की तलाश में नजरें घुमा रही थी कि अचानक कानों में आवाज पड़ी, ‘‘अंबिका, तुम?’’

उस ने चौंक कर सिर उठाया. अविनाश उस के सामने खड़ा था.

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