बात वर्ष 1975 की है. मेरी पहली संतान का जन्म होने वाला था. मैं उस समय हवलदार था और अरुणाचल प्रदेश के अलौंग में वर्कशाप की डिटैचमैंट में तैनात था. हमारी मेन यूनिट लेखाबाली में थी. मुझे इमरजैंसी में घर में बुलाया गया था. इस के लिए तार पहले मेन यूनिट में आया था. फिर मुझे भेजा गया था. मैं ने छुट्टी के लिए अप्लाई किया. छुट्टी मिल गई. पर मैं ऐसे ही छुट्टी पर नहीं जा सकता था, पूरे स्टोर की जिम्मेदारी मुझ पर थी. डिटैचमैंट में सभी कलपुर्जे और टूल्स की सप्लाई मेरी जिम्मेदारी थी.
जब तक मेन यूनिट से दूसरा स्टोरकीपर नहीं आ जाता, मैं छुट्टी पर नहीं जा सकता था. मेन यूनिट से दूसरा आदमी आने में 2 दिन लग गए. वह सोमवार को आया. मैं ने जल्दी से उसे चार्ज दिया और मंगलवार को मेन यूनिट में आने के लिए तैयार हुआ. वहां की सभी यूनिटों की छुट्टी पार्टी को ले कर गाड़ी केवल शनिवार को लेखाबाली जाती थी. मुझे मंगलवार को ही मेन यूनिट में पहुचना था. तभी बुधवार को मैं अपने घर जा सकता था.
सरकारी डाक ले कर ग्रैफ रोड बनाने वाली यूनिट की गाड़ी रोज लेखाबाली जाती थी. उन से गुजारिश की गई. बारिश वहां सारे साल होती है. ग्रैफ वालों ने कहा, ‘मौसम ठीक रहा तो गाड़ी जाएगी.’ मैं अपनी यूनिट की गाड़ी से वहां पहुचा. गाड़ी लेखाबाली जाने के लिए तैयार खड़ी थी. बारिश हो रही थी. सरकारी डाक को रोका नहीं जा सकता था.
गाड़ी में मैं था, ड्राइवर के साथ एक जवान था. जवान पीछे बैठ कर डंडामैन का काम करता था. पीछे से आने वाली गाड़ी को पास देना होता था तो डंडा मार कर ड्राइवर को सूचित करता था और वह पास दे देता था.