Storytelling : "उठो लाटसाहब, चाय पी लो. 7 बजने वाले हैं. मुझे बच्चों को स्कूल भी भेजना है."
उनींदे से गोकुल के कानों पर यह कर्कश आवाज़ पहुंची थी.
तभी दूसरी आवाज आती है, "गोकुल, उठ जा. रोज सुबहसुबह घर में कलह कराना तुझे अच्छा लगता है क्या?"
गोकुल की नींद खुल गई थी. भाभी और मां के प्रवचन रोज़ की तरह आज भी उस के कानों में घुल रहे थे पर वह बेफ़िक्र सा पड़ा था.
मां की बात तो एकबारगी बरदाश्त भी कर लेता पर भाभी का इस तरह से उलाहना देना उसे कतई मंजूर न था. उस का जी करता कि कानों में कोई शीशा पिघला कर भर दे. जहां तक चाय की बात थी, उस ने कभी गरम चाय की डिमांड नहीं की थी. जैसी मिलती वैसी पी लेता. फिर उस के बिस्तर से उठ जाने से कौन से घर के काम फटाफट होने लगेंगे बल्कि और कलह हो जाएगा.
भाभी को वह फूटी आंखों नहीं सुहाता था. वह नहीं समझ पाती थी कि टूर एंड ट्रैवल्स और ट्रेकिंग का काम थका देने वाला होता है. बड़ा भाई कुछ कहना भी चाहता तो पत्नी के सामने उस का मुंह न खुलता था. एक तरह से वह पत्नी की बातों का मूक समर्थन करता था.
मां जानती थी कि मेरा बेटा बिलकुल नालायक तो नहीं लेकिन ऐसे बेटे को लायक भी तो नहीं कहा जा सकता जिस की शादी की चिंता ने ही उस को इतना परेशान कर दिया हो. कितनी कोशिश नहीं की थी मां ने. जगहजगह रिश्तेदारों से कहा था. चिन्ह भेजा था पर कोई लड़की मिली ही नहीं.
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