वह आभा से ही ज्यादा प्यार करती थी. सोनम के इस प्यार का एक और भी कारण था. सोनम बचपन से ही पोलियो की शिकार थी. एक पैर में पोलियो का वह स्पैशल बूट पहनी हुई सोनम को जब पहली बार मैं ने देखा था, तब मेरे दिल में उस के लिए एक खास हमदर्दी पैदा हो गई थी. और फिर मैं कुछ ज्यादा ही भावुक हो कर उस से घुलनेमिलने आने लगी थी. हरदम उसे मदद करने की कोशिश करती रहती थी.
लेकिन आभा को मेरी वह हमदर्दी और भावुकता पसंद नहीं थी. और उसी से जब भी मैं सोनम को कुछ मदद करना चाहती, तभी आभा मुझे रोकती और मेरी भावुकता पर मानो लगाम लगाते हुए ही कहती, ‘‘डोंट हैल्प हर मच. शी विल लूज हर कौंफिडैंस…’’
और फिर सोनम से हंसखेल कर बतियाते हुए उसे मुझ से दूर ले जाती. आभा और मुझ में यही फर्क था. आभा सोनम जैसे बच्चों को मानसिक हिम्मत और ताकद दे कर उन्हें आत्मनिर्भर बनाना चाहती और मैं… मैं शायद ऐसे बच्चों को अपने भावुकता में लिपटा कर… खूब प्यार से उन्हें गले लगाना चाहती. दोनों का प्यार खरा और सच्चा था, मगर आभा का प्यार उन बच्चों का जीवन संवारने के लिए अधिक महत्वपूर्ण था.
आभा के साथ रह कर यह बात मैं समझने तो लगी थी, मगर लाख कोशिश कर के भी मैं आभा जैसी बन नहीं सकती थी. आखिर स्वभाव भी तो कोर्ई चीज होती है.
साथसाथ काम करने की वजह से आभा और मुझ से प्यार बेहद बढ़ता गया था और हम दोनों की दोस्ती ऊंची पक्की हो गई थी कि स्कूल की कोईकोई टीचर हमारी दोस्ती से अब जराजरा जलने भी लगी थी. लेकिन हम दोनों की दोस्ती में उस से कोई फर्क नहीं आता. हम दोनों अपनी दोस्ती को निभाते हुए भी क्लास के सभी बच्चों को खूब हंसतेखेलते पढ़ाते थे. बाल मानस शास्त्र के अनुसार ही बच्चों को पढ़ाई का बोझ ना लगे, इस का पूरा ध्यान रखते हुए ही हम बच्चों को पढ़ाते थे. उसी से बच्चों के मांबाप भी हम दोनों से काफी प्रभावित रहते और अपने बच्चों के मामले में कोर्ई भी समस्या हो, हमारे पास आ कर खुल कर बताते. हमारी राय उन के लिए शायद काफी महत्त्व रखती थी.
एक दिन ऐसे ही अपनी नीति और बहुत ही नाजुक सी समस्या ले कर सोनम की मां भी क्लास में आई थी.
उस दिन स्कूल पहुंच कर… रजिस्टर पर साइनवाइन कर मैं क्लास में पहुंची ही थी कि क्लास में लगभग घुसते हुए ही वह मेरे पास आई थी और कुछ हड़बड़ाते हुए बोली थी, ‘‘मैं सौनम वर्मा की मां हूं. आप… आप शोभा मैम ही हैं न.’’
‘‘नहीं… नहीं… मैं चिकलेट मैम…’’
“वो मैम आज छुट्टी पर हैं…”
‘‘ओहो… तो आप वही हैं, जिन्हें ये बच्चे ‘चिकलेट मैम’ कहते हैं.”
‘‘हां…हां… बच्चों को मेरा नाम शायद समझ नहीं आता. इसी से वे मुझे चिकलेट मैम कहते हैं. कोई बात नहीं… आखिर बच्चे ही हैं… कहिए… कुछ काम था क्या…’’
“आज सोनम नहीं आई आप के साथ…”
‘‘नहींनहीं… दरअसल, आज मैं एक बहुत ही पर्सनल बात आप से कहने आई हूं… जो कि सोनम के लिए बहुत ही जरूरी है…
“उस के बात करने का ढंग… और बोलने का लहजा ऐसा था कि मैं अकिंचन अवाक सी हो कर रह गई थी. लेकिन फिर भी बोली थी, ‘‘कहिए न… क्या बात है…’’
‘‘जी… आप से एक रिक्वैस्ट करनी थी कि स्कूल की छुट्टी होने के बाद सोनम को सिर्फ मेरे या मेरे पति के साथ ही घर वापस भेजिएगा. और कोई आता है… तो प्लीज, उन के साथ मत भेजिए…’’
‘‘और कोई… मतलब… उस के दादाजी ही आते हैं कभीकभी… और वह शुरू से आते रहते हैं… उन्हें कैसे मना कर सकते हैं…’’
‘‘प्लीज, प्लीज मैडमजी, मेरी बात सुन लीजिए. एक तो वह अब हमारे साथ रहते नहीं हैं… क्योंकि हम अब अलग रहते हैं… और… और कैसे कहूं… उन की आदत जरा ठीक नहीं है… बच्ची के साथ बड़ी बदतमीजी करते रहते हैं… समझ रही हैं न आप…’’
‘‘ओहो… अच्छाअच्छा… अब बात समझ आ रही है… डोंट वरी… अब आप चिंता मत कीजिए… अब सोनम सिर्फ आप के साथ या फिर उस के पिताजी के साथ घर वापस जाएगी…’’
‘‘थैंक यू मैमजी… बस यही कहना था. बस बच्ची पर थोड़ा ध्यान रखिएगा. अब चलती हूं. घर पर बड़े काम बाकी हैं… आप को थोड़ी तकलीफ दे रही हूं… इसलिए सौरी…”
जैसे आई थी वैसे ही किसी तूफान की तरह ही चली गई थी. लेकिन, मैं फिर जाने कितनी देर तक मन ही मन सोनम के बारे में ही सोचती रही थी.