रियो ओलिंपिक में सिल्वर पदक विजेता पी वी सिंधु और कांस्य पदक विजेता साक्षी मलिक पर सरकारी एजेंसियां और सरकारें मेहरबान हैं. करोड़ों रुपए उन्हें मिल चुके हैं. सिंधु को 13 करोड़ रुपए व साक्षी को 5.6 करोड़ रुपए मिले. उन के साथसाथ दीपा कर्माकर और ललिता बाबर को भी 20-20 लाख रुपए मिले. वैसे तो ओलिंपिक की पदक तालिका में भारत नगण्य है. 2 मैडल अगर इन दोनों खिलाडि़यों को नहीं मिलते तो खिलाड़ी इस बार शायद पदक के बिना खाली हाथ ही घर लौटते. गनीमत रही कि इन 2 लड़कियों ने देश की लाज रख ली.
यहां यह समझना भी जरूरी है कि इतनी बड़ी आबादी में खिलाडि़यों के ऐसे परफौर्मैंस के लिए जिम्मेदार आखिर कौन है? आंकड़े बताते हैं कि हमारे देश में खिलाडि़यों पर ट्रेनिंग के लिए विदेशों की तुलना में कम पैसे खर्च किए जाते हैं. ओलिंपिक से पहले भारत द्वारा ‘टारगेट ओलिंपिक पोडियम स्कीम’ के अंतर्गत 44 लाख रुपए सिंधु को, 12 लाख रुपए साक्षी को और महज 2 लाख रुपए दीपा को मिले, जबकि पदक के बाद मिलने वाली राशि उन की ट्रेनिंग के दौरान मिलने वाले खर्च से कई गुना अधिक है.
सरकार खेलों की जिम्मेदारी ले
इस बारे में मुंबई के स्पोर्ट्स डायरैक्टर और नैशनल ऐथलीट कोच हरीश बी सुवर्ना जो पिछले 20 वर्ष से इस क्षेत्र में हैं, कहते हैं कि सरकार पूरी तरह से खेलों की जिम्मेदारी नहीं लेती. विकसित देशों ने काफी फंड उस में डाला है. अगर हम चीन को देखें तो टेबल टैनिस के सलैक्शन में 4 हजार के लिए 50 हजार बच्चे आते हैं, उन का ट्रायल लेने के बाद 5 हजार चुने जाते हैं, जिन में से अंत तक केवल 2 हजार ही ट्रेनिंग के लिए रखे जाते हैं. ये बच्चे अधिकतर 5 वर्ष की उम्र के होते हैं. ऐसे में उन की शिक्षा, नौकरी और पूरी जिंदगी की गारंटी सरकार की होती है. हमारे यहां ऐसी कोई व्यवस्था नहीं है. यहां तो मैडल पाने के बाद पैसा फेंकते हैं. कोच गोपीचंद ने अपना घर गिरवी रख कर बैडमिंटन प्लेयर्स तैयार किए.
खेलों में अच्छी प्रतिभा के चयन के लिए निम्न बातों पर ध्यान देने की जरूरत है:
-देश में प्रतिभा की कमी नहीं है. शहर से अधिक गांवों में प्रतिभाएं देखने को मिलती हैं. वजह वहां के लोगों में पैशन और मेहनत कर आगे बढ़ने का जज्बा है, फिर चाहे वह दीपा कर्माकर हो, साक्षी मलिक हो या दत्तु भोकानल, सभी छोटे शहरों या गांव से ही हैं.
-किसी भी खेल में पैसे की जरूरत होती है. कोई भी परफौर्मर खुद पैसा खर्च कर आगे नहीं बढ़ सकता.
-हमारे देश में खेल पर विशेष ध्यान नहीं दिया जाता, लेकिन खेलों में हमें मैडल चाहिए होते हैं. हम हर 4 साल बाद जागते हैं, फिर दोष एकदूसरे को देते हैं.
-एक खिलाड़ी तैयार करने में 10 से 12 साल लगते हैं. इस के बाद वे एक लैवल तक पहुंचते हैं. अमेरिकी धावक उसैन बोल्ट ने 14 साल की उम्र में दौड़ना शुरू किया और करीब 10 साल बाद उसे पदक मिलने शुरू हुए.
प्रतिभावान बच्चों को मौका मिले
प्रतिभावान बच्चों का चुनाव कर उन के रहनेखाने और भविष्य को निश्चित करने की सुविधा सरकार को देनी होगी, तब आप को परिणाम मिलेगा. हालांकि हम ने काफी खर्च कर खिलाडि़यों को रियो भेजा पर उस का प्रतिशत बहुत कम है, जबकि विदेशों में यह 49% है. खेलों की तरफ सरकार का जुड़ाव न के बराबर है. उसे लगता है कि यह ‘डैड इन्वैस्टमैंट’ है. ऐसे में ओलिंपिक मैडल की कल्पना नहीं की जा सकती. आज किसी भी क्षेत्र में लोग तभी बढ़चढ़ कर हिस्सा लेते हैं, जब उन्हें वहां अपना भविष्य सुरक्षित नजर आता है. इस के अलावा बच्चों को सरकार की तरफ से स्कौलरशिप मिले, तभी अधिक से अधिक बच्चे इस तरफ आ सकते हैं.
आज मातापिता की इस तरफ रुचि है, लेकिन उन्हें आश्वस्त किया जाए कि उन के बच्चे का भविष्य यहां सुरक्षित है. 10वीं और 12वीं के बाद अधिकतर बच्चे खेल छोड़ देते हैं, क्योंकि इस में उन को उज्ज्वल भविष्य नहीं दिखता. 16 साल तक ही उन की प्रतियोगिता है. मैडल मिलने के बाद पैसों की बौछार होती है. इन खिलाडि़यों को टैलीविजन पर हर विज्ञापन में देखा जाता है. उन पर फिल्में बनती हैं, जिस से उन का ध्यान खेल से हट कर कहीं और चला जाता है. यही वजह है कि कई नामीगिरामी प्लेयर अब कहीं भी नहीं दिखते.
अच्छा कोच व तकनीक
इस के अलावा हरीश कहते हैं कि खेल में शोध की अधिक आवश्यकता है, जैसा कि विदेशों में होता है. हमारे यहां तो 20-30 साल पुरानी तकनीक चल रही है. इतना ही नहीं हमारे यहां खेलने के लिए अच्छे ग्राउंड नहीं हैं, जहां ग्राउंड के लिए जगह होती है, वहां पर बिल्डिंग्स बन जाती हैं. यहां रिसोर्स और मोटिवेशन की भी काफी कमी है.
दीपा का परफौर्मैंस अच्छा होने के बावजूद उसे मैडल न मिल पाना दुखदाई रहा. लेकिन यहां जिमनास्टिक को कोई इस लैवल तक कर सकेगा, इस की जानकारी नहीं थी. दीपा भी तब पहचानी गई जब उस ने ओलिंपिक के लिए क्वालिफाई किया. इस खेल में बच्चे को छोटी उम्र से ट्रेनिंग लेनी पड़ती है. कोच उसे सही तकनीक द्वारा ट्रेनिंग देता है. यहां जिमनास्टिक सैंटर तो है लेकिन विश्वस्तर की सुविधाएं नहीं हैं. समर साल्ट करने पर यदि हाथपैर टूट जाएं, तो उस का दायित्व कोई नहीं लेता. इस के अलावा ‘सेफ्टी गार्ड’ नहीं है. इन्फ्रास्ट्रक्चर की बहुत कमी है.
हमारे यहां कुशल लोगों की भी कमी है. मातापिता को भी इस बारे में पता नहीं होता. यदि बच्चे को ठीक समय पर सही खेल की जानकारी नहीं मिलेगी तो उस की क्षमता बेकार हो जाएगी और वह ठीक से परफौर्म नहीं कर पाएगा. जानकार कोच ही बता सकते हैं कि सही उम्र में, सही स्पर्धा में भाग लेना जरूरी है. खेल आयोजक करुणाकर शेट्टी कहते हैं कि मैं जिमखाना की तरफ से खेल का आयोजन करता हूं, जिस में मुंबई क्रीड़ा महोत्सव खास है. इस में पूरे महाराष्ट्र के करीब 5 हजार स्कूली बच्चे भाग लेते हैं. इंटर स्कूल प्रतियोगिता होती है जिस में बच्चे अपनी प्रतिभा को समझते हैं. ऐसे खेल और टूरनामैंट आयोजित होने चाहिए ताकि हर क्षेत्र में अच्छे खिलाड़ी मिलें.
खिलाडि़यों का खानपान
खिलाडि़यों के खानेपीने की व्यवस्था सही हो इस के लिए स्पोर्ट्स अथौरिटी औफ इंडिया स्कीम चला रही है. यहां बच्चों को एक साल के लिए अडौप्ट किया जाता है और उन्हें ट्रेनिंग दी जाती है. अगर वे रैगुलर नहीं हैं या अच्छी परफौर्मैंस नहीं दे पा रहे हैं तो उन्हें वापस भेज दिया जाता है. उन्हें डाइट भी न्यूट्रीशन के अनुसार दी जाती है. लौंग रन के लिए अधिक कार्बोहाइड्रेट की जरूरत होती है.
विदेशों में एक खिलाड़ी के साथ डाइटीशियन, मनोवैज्ञानिक, फिजियोथेरैपिस्ट आदि की टीम होती है. तब उस का रिजल्ट सब को दिखता है. हमारे देश में सब गोल्ड मैडल चाहते हैं, लेकिन शुरू से ही इस पर ध्यान नहीं दिया जाता. बैडमिंटन कोच गोपीचंद ने अपने पैसे लगा कर खिलाडि़यों को तैयार किया है.
खेलों में राजनीति
राजनीति खेलों में सब से अधिक हावी है, जिस से खिलाडि़यों का मनोबल टूटता है. हरीश कहते हैं कि हमारी मानसिकता में राजनीति घुसी हुई है. देश में सब से अधिक साधुसंत इसलिए आते हैं, क्योंकि हम उन्हें सुनते हैं, जिस दिन हम उन्हें सुनना बंद कर देंगे एक भी संत यहां नहीं दिखाई देगा. एसोसिएशन की भी मानसिकता है. जब तक हम एकजुट हो कर काम नहीं करेंगे तब तक हमें उचित परिणाम नहीं मिलेंगे.
खेल आयोजक करुणाकर कहते हैं कि खेल में राजनीति ग्राउंड लैवल से है जिसे खत्म करना चाहिए, जिस की अच्छी अप्रोच है, वही अपने खिलाड़ी को बिना प्रतिभा के आगे खेलने भेजते हैं. ऐसे में ठीक रिजल्ट नहीं मिलता. नैशनल कबड्डी प्लेयर सुबर्ना बारटक्के कहती हैं कि अंतर्राष्ट्रीय प्रतिस्पर्धा में खिलाडि़यों को अधिक ट्रेनिंग नहीं मिलती. यहां ओलिंपिक की तैयारी एक साल पहले की जाती है, जबकि विदेशों में अभी से लोग 2020 ओलिंपिक के लिए तैयार हैं. इस के अलावा खिलाडि़यों को इन्सैंटिव हर लैवल पर देना चाहिए. मुझे अच्छा लगा जब महाराष्ट्र सरकार ने मुझे नौकरी मेरी शिक्षा के हिसाब से औफिस लैवल की दी. ऐसी व्यवस्था हर स्टेट में प्लेयर के लिए होनी चाहिए.
खेलों में नशा
खेलों में ड्रग्स काफी हावी हो गया है. ट्रेनिंग के दौरान कई बार खिलाड़ी ड्रग्स लेते हैं. विदेशी प्लेयर्स मास्किंग करते हैं, जिस में वे ड्रग्स को छिपाने के लिए दूसरी दवा ले लेते हैं. ऐसा देखा गया है कि हमारे प्लेयर्स अधिकतर एडवांस ट्रेनिंग के लिए रूस जाते हैं, वहां ड्रग्स अधिक चलता है. अभी रूस में मास्किंग की सुविधा नहीं है. अपने स्तर से अधिक परफौर्मैंस के लिए खिलाड़ी ड्रग्स लेते हैं. कई बार सप्लिमैंट कह कर कुछ लोग जूनियर ग्रुप को ड्रग्स खिला देते हैं. मैं अपने प्लेयर्स को हमेशा प्रौपर डाइट की सलाह देता हूं.
हालांकि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने रियो में मैडल की गिरती साख को देख कर आननफानन में एक टास्क फोर्स का गठन अगले 3 ओलिंपिक खेलों 2020, 2024, 2028 के लिए कर दिया है, जहां खिलाडि़यों को अच्छी ट्रेनिंग, खेल से जुड़े संसाधन, खिलाडि़यों का चुनाव और तकनीक से जुड़े विषयों पर ध्यान दिया जाएगा. लेकिन देखना यह है कि यह कदम खिलाडि़यों के लिए कितना कारगर साबित होगा. उन्हें आगे बढ़ने के लिए कितना सहयोग मिलेगा. राजनीति से हट कर इस काम में सारे अधिकारी कितना काम कर पाएंगे, वह भी परखना पड़ेगा. क्या वाकई अगले ओलिंपिक में पदकों की संख्या बढ़ेगी? इस के लिए तो साल 2020 का इंतजार रहेगा.