90 मिनट तक 110×75 यार्ड के मैदान में लगातार पसीना बहाते गेंद के पीछे भागते जरमनी के खिलाडि़यों की कर्मठता और जुझारूपन ने उन्हें फुटबाल की दुनिया का बेताज बादशाह बना दिया. दुनिया की खेल प्रतियोगिताओं में सब से रोमांचक मानी जाने वाली फैडरेशन इंटरनैशनल फुटबाल एसोसिएशन यानी फीफा वर्ल्ड कप की दीवानगी इतनी है कि आधी दुनिया इसे देखने के लिए अपनी नींद हराम करती है.
फुटबाल ऐसा खेल है जहां मैदान में अन्य खेलों की तरह आराम नहीं मिलता. चाय और लंच के लिए ब्रेक नहीं मिलता. मैदान को नए तरह से संवारने का मौका नहीं मिलता. बावजूद इस के खिलाडि़यों का मनोबल गिरता नहीं बल्कि जैसेजैसे समय बीतता है वैसेवैसे खिलाड़ी और भी जुझारू होते जाते हैं. पर हमारे देश के नौजवानों के पास यही जुझारूपन नहीं है. शायद हमारे यहां की सामाजिक व्यवस्था ही ऐसी है कि वे बिखर जाते हैं, टूट जाते हैं और कम समय में सबकुछ पाना चाहते हैं. वे शौर्टकट अपनाना चाहते हैं और औंधे मुंह गिरते हैं. छोटीछोटी बातों पर लड़ जाते हैं, यहां तक कि मरनेमारने पर उतारू हो जाते हैं. 4 जुलाई की बात है. दिल्ली के विकासपुरी इलाके में एक युवक के कंधे से एक राहगीर गलती से टकरा गया. बात बढ़ गई और उस युवक ने उस राहगीर की जान ले ली. यह बानगीभर है. ऐसी घटनाएं यहां अकसर घटती रहती हैं.
खेल और समाज
एक समय कहा जाता था कि पढ़ोगेलिखोगे तो बनोगे नवाब. पर अब कहा जाता है कि खेलोगेकूदोगे तो बनोगे नवाब. हालांकि आज भी हमारे समाज में इस मानसिकता के लोग कम ही हैं, जो अपने बच्चे को खेलने के लिए प्रेरित करते हों. अभी भी हम उस पुरानी मानसिकता को ढो रहे हैं और बच्चे को खेलने के बजाय केवल पढ़ने के लिए प्रेरित करते हैं. ऐसा करने के पीछे ठोस वजह यह है कि हमारी व्यवस्था ऐसी है ही नहीं कि हम अपने बच्चे को खेलने के लिए प्रेरित करें.
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