साल 1975 में प्रदर्शित ‘आंधी’ फिल्म कभी चर्चाओं के दायरे से बाहर नहीं हुई. इस की वजह सिर्फ इतनी नहीं है कि यह कथित रूप से इंदिरा गांधी की जिंदगी पर बनी थी बल्कि यह है कि खालिस सियासत पर बनी यह पहली राजनीतिक हिंदी फिल्म थी जिस में एक कामयाब राजनीतिक महिला का द्वंद दिखाया गया था. एक ऐसी महिला जो घरगृहस्थी, पति और बच्चों के साथ भी जीना चाहती है और राजनीति में भी सक्रिय रहना चाहती है. आखिर में निर्देशक गुलजार दर्शकों को यह इशारा कर देने में सफल रहे हैं कि एक महिला के लिए यह यानी राजनीति दो नावों की सवारी ही साबित होती है.
‘आंधी’ को प्रदर्शित हुए 5 दशक पूरे होने को हैं लेकिन राजनीति में तेजी से सक्रिय हो रही महिलाओं की हैसियत और द्वंद कायम हैं कि वे क्या चुनें- चूल्हाचौका, घरगृहस्थी पति और बच्चे या फिर कामयाबी जिस के लिए लंबी बहुत लंबी लड़ाई लड़नी पड़ती है, संघर्ष करना पड़ता है क्योंकि यहां कुछ भी बैठेबिठाए अब किसी महिला को नहीं मिल जाता. पार्षद बनने के लिए भी एक महिला को लंबी और तगड़ी प्रतिस्पर्धा से हो कर गुजरना पड़ता है. छोटी सफलता और छोड़े पद के लिए भी महिला का महत्त्वाकांक्षी होना जरूरी है ठीक उतना ही जितना ‘आंधी’ फिल्म की नायिका आरती का होना था. यह भूमिका सुचित्रा सेन ने निभाई थी और इतनी शिद्दत से निभाई थी कि दर्शक और समीक्षक उन के कायल हो गए थे.
अब हर चुनावप्रचार में महिलाओं की टोलियां दिखना आम बात है. वे घरघर जा कर प्रचार करती हैं, हैंडबिल और मतदाता परचियां बांटती हैं, सभाओं में गला फाड़फाड़ कर नारे लगाती हैं, पार्टी का झंडा उठाती हैं, फर्श भी बिछातीउठाती हैं, सोशल मीडिया पर सक्रिय रहते अपनी पार्टी की नीतियोंरीतियों को भी आसान भाषा में वोटर को समझाने की कोशिश करती हैं. वे जुलूसों में नाचतीगाती हैं, गुलाल उड़ाती हैं, अपने बड़े नेता की जयजयकार भी करती हैं, थाल सजा कर उस की आरती उतारती हैं और माथे पर तिलक लगाती हैं. वे पार्टी के दफ्तर में गपशप करती भी दिखती हैं और सियासी पंडितों व विश्लेषकों की तरह सीटों की हारजीत का गुणाभाग भी करती खुद को एक गहन, गूढ़, ज्ञानी और अनुभवी जमीनी राजनेता होने का सुख या भ्रम कुछ भी कह लें पालती रहती हैं.
यह ठीक वैसा ही दृश्य है जैसे धार्मिक समारोहों और कलश यात्राओं में सिर पर कलश लिए महिलाओं का होता है. मसलन, गरमी और सर्दी में लंबी दूरी तय करते आरती-भजन गाते हुए चलना, इस के बाद बाबा के प्रवचन सुनना, जयजयकार करना और फिर वापस अपने घर आ कर कामकाज में जुट जाना. एक तरह से महिला धर्म की तरह ही राजनीति में भी शो पीस और नुमाइश की चीज है. वहां उसे कुछ मिलता जाता नहीं है, वह जहाज की पंछी है जो एक दायरे में उड़ती है और फिर वापस जहाज पर आ जाती है.
यह सोचना कि महिलाओं में कोई राजनातिक चेतना है, फुजूल की बात है. फेमिनिज्म भारत में एक अलग तरीके से पनपा, जिस के सारे सूत्र पुरुषों के हाथ में रहे. 70 के दशक में महिलाएं जागरूक और शिक्षित हो कर आत्मनिर्भर होने लगीं तो पुरुषों ने बड़ी खूबसूरती से उन्हें धर्म और राजनीति में मैदानी तौर पर सक्रिय रहने की छूट देना शुरू कर दी. तब इतने बड़े पैमाने पर आरक्षण राजनीति में नहीं था. केवल इंदिरा गांधी सरीखी पारिवारिक पृष्ठभूमि वाली महिलाएं ही राजनीति में आती थीं. कुछ विजयाराजे सिंधिया जैसी भी थीं जो राजघरानों से ताल्लुक रखती थीं. इन पर भी पारिवारिक और सामाजिक वर्जनाएं ढोने की जिम्मेदारी नहीं थी.
आम सवर्ण महिला की बड़े पैमाने पर एंट्री स्थानीय निकायों में आरक्षण के बाद हुई. इस में भी दिलचस्प बात यह रही कि पुरुषों ने ही उन्हें चारदीवारी लांघने के लिए उकसाया लेकिन इसलिए नहीं कि वे बराबरी की बात सोचने लगे थे (या हैं) बल्कि इसलिए कि उन की आड़ में उन्हें राजनीति करना थी. इन के और भी स्वार्थ थे, मसलन किसी को लाइसैंस चाहिए था तो किसी को ठेके की दरकार थी. यह जो महिला राजनीति में आई जिसे भले और अच्छे घर की समझा जाता है, वह दरअसल एक टूल थी. पार्षद पति और प्रधान. सरपंच पति जैसे शब्द अब बेहद आम हैं जो यह बताते हैं कि महिला राजनीति नहीं करती, वह राजनीति करने का जरिया मात्र है.
जैसे धर्म मोक्ष की सहूलियत महिलाओं को नहीं देता ठीक वैसे ही राजनीति में दोचार सीढ़ियां तो वे चढ़ जाती हैं लेकिन छत पुरुषों के लिए रिजर्व है. इसे समझने के लिए दो बड़ी पार्टियों के उदाहरण सामने हैं. कांग्रेस ने प्रियंका गांधी को राहुल गांधी के बराबर से आगे नहीं रखा क्योंकि प्रियंका को बच्चे पालने थे, अपना चूल्हाचौका देखना था. इस का यह मतलब नहीं कि उन्हें किचन में जा कर बच्चों का टिफिन बनाना था या बरतन माजने और कपड़े धोने थे बल्कि यह था कि उन्हें अपने पति और बच्चों को ज्यादा वक्त देना था. मुमकिन है प्रियंका ने अपनी दादी इंदिरा गांधी की जिंदगी से सबक लिया हो कि राजनीति में इतने दूर भी मत जाओ कि घरवापसी मुश्किल हो जाए.
भाजपा में यह और अलग तरीके से हुआ. साल 2014 में प्रधानमंत्री पद की दावेदार सुषमा स्वराज भी हो सकती थीं. वे नरेंद्र मोदी से कहीं ज्यादा अनुभवी, शिक्षित और समझदार होने के अलावा स्वीकार्य भी थीं लेकिन आलाकमान ने उन्हें मौका नहीं दिया क्योंकि वे धर्म संसद और साधुसंतों की पसंद एक महिला होने के नाते नहीं थीं. वे तय है कि अंबानी-अडानी से सौदेबाजी भी करने को तैयार नहीं होतीं और न किसी अन्ना हजारे के आंदोलन को हवा दे पातीं.
वे तो बाबा रामदेव जैसों को भी माहौल बनाने को राजी नहीं कर पातीं. हां, यह सब कोई और कर के उन्हें पीएम की कुरसी थाल में संजो कर दे देता तो वे खुशीखुशी यह जिम्मेदारी उठाने को तैयार हो जातीं. जाहिर है, सुषमा स्वराज की अपनी सीमाएं थीं जो किचन से शुरू हो कर किचन पर ही खत्म हो जाती हैं लेकिन इस का यह मतलब नहीं कि उन्हें कट्टर हिंदुत्व की राजनीति से कोई एतराज या परहेज था.
यह बहुत छोटे स्तर पर साफ देखा जा सकता है कि राजनीति में सक्रिय आम महिला 3 कमियों या कमजोरी की शिकार है. ये हैं- चुगली, चूल्हा और पूजापाठ जिन में महिलाओं का ज्यादा वक्त गुजरता है और इस बाबत उन्हें प्रोत्साहन भी खूब मिलता है. राजनीति हमेशा से ही फुलटाइम जौब रही है. ऐसा नहीं है कि महिलाओं के पास वक्त की कमी हो बल्कि उन्हें ऐसे गैरजरूरी कामों में पुरुषों ने उलझा कर रख दिया है कि वे पार्टटाइमर बन कर रह गई हैं.
एक दूसरी दिक्कत पैसों की भी महिलाओं के साथ है. अगर 15-20 फीसदी नौकरीपेशा महिलाओं को छोड़ दें तो महिलाओं की अपनी कोई आमदनी नहीं होती है. राजनीति में जमने के लिए अब भारीभरकम पैसों की जरूरत होती है जो उन्हें पुरुषों से ही मिलता है. यह पुरुष आमतौर पर उन का पति, भाई या पिता होता है. इस सेवाव्यवसाय में हरकोई पहले अपनी लागत निकालता है, फिर मुनाफा वसूलता है. भोपाल नगर निगम की एक पार्षद का नाम न छापने की शर्त पर कहना है कि पार्षदी के चुनाव में मरीगिरी हालत में 15-20 लाख रुपए का खर्च आता है. अब अगर यह पति ने लगाया है तो वह इसे सूद समेत वसूलता भी है. यही बात पिता और भाई पर भी लागू होती है.
भारत में निक्की हैली और कमला हैरिस जैसी महिलाएं न के बराबर ही होंगी जो अपनी कमाई से राजनीति कर सकें. जो 10-15 फीसदी महिलाएं खुद कमा रही हैं उन्हें राजनीति से कोई वास्ता नहीं रहता. सवर्ण समाज पार्टी की अध्यक्ष रही भोपाल की अर्चना श्रीवास्तव की मानें तो भारतीय पुरुष अब यह तो चाहने लगा है कि महिलाएं राजनीति में सक्रिय हों लेकिन वह अपनी पुरुषवादी सोच और पूर्वाग्रह छोड़ने तैयार नहीं हो रहा. एक छोटामोटा नेता भी रात को जब घर लौटता है तो पत्नी खाने पर उस का इंतजार करती है. लेकिन महिलाओं के साथ ऐसा नहीं है कि वे देररात लौटें तो पति खाने पर उन का इंतजार कर रहा हो, फिर दीगर बातों और अड़चनों का सहज अंदाजा लगाया जा सकता है. क्षेत्र कोई भी हो, एक महिला के लिए रौकेट साइंस नहीं होता. दबाव में या थोपा गया कोई भी काम अकसर बोझ ही साबित होता है और महिला राजनीति इस से अछूती नहीं है.
अर्चना यह भी मानती हैं कि महिलाओं का राजनीति में बहुत बेहतर भविष्य न पहले कभी था न आगे कभी होने की उम्मीद दिख रही है. आमतौर पर राजनातिक महिलाएं कौर्पोरेट की महिलाओं की तरह डैशिंग नहीं होतीं और न ही पुरुषों की तरह रिस्क उठा पाती हैं क्योंकि उन्हें बड़े तो दूर, अपने ही घर के छोटेमोटे फैसलों के लिए पुरुषों का मुहताज रहना पड़ता है. सार्वजनिक जीवन में उन्हें अपनी इमेज का भी खयाल रखना पड़ता है जिस से वे कुछ कदम ही तय कर पाती हैं.
सार यह कि महिलाएं राजनीति में हैं जरूर लेकिन वे वहां अपनी उपयोगिता के चलते हैं, महत्त्व के चलते नहीं. जब तक यह स्थिति नहीं बदलेगी तब तक आधी आबादी यहां भी नुमाइश की चीज बनी रहेगी.