आधुनिक तकनीक न्यूट्रल नहीं बनाई जा रही है बल्कि स्त्री और पुरुष दो सोच से ग्रस्त हैं. अगर मर्दों को किचन में मिक्सचरग्राइंडर चलाना होता, खाना बनाना होता, डिशवाशर में बरतन धोने होते, वैक्यूम क्लीनर से घर साफ करना होता तो तकनीक जैंडरबायस न होती. आज भी हर तकनीक, हर निर्माण के पीछे पितृसत्तात्मक सोच वाला पुरुष है. कमांड उसी के हाथ में है. सीमा दत्ता के पति रोहित ने उस को करवाचौथ पर कार गिफ्ट की. चमचमाती रैड कलर की अमेज गाड़ी देख कर सीमा की खुशी का ठिकाना न रहा. वह खुशी से उछलने लगी. पति के गले लग गई. लेकिन यह खुशी दूसरे ही दिन हवा हो गई जब कार चलाने के लिए रोहित ने एक ड्राइवर भी रख लिया, जबकि अपनी कार वह खुद चला कर औफिस जाता है.

सीमा को बताया गया कि वह जहां जाना चाहे, ड्राइवर उस को ले कर आयाजाया करेगा. कार की देखभाल, साफसफाई सब ड्राइवर की जिम्मेदारी होगी. सीमा को तो बस कार में बैठ कर अपने हाई स्टेटस का शोऔफ करना है और एंजौय करना है. सीमा की आजादी पर निगरानी और जासूसी अब तक उस का पति करता था और अब यह ड्राइवर भी करेगा. रोहित ने नई सुविधा दे कर उसे एक और बंधन में बांध दिया था. कार देख कर सीमा ने सोचा था कि अब रोहित कहेगा कि वह ड्राइविंग सीख ले, इंडिपैंडैंट हो जाए, मगर उस ने तो उसे और ज्यादा गुलाम बना दिया. क्या फर्क रह गया इस कार में और प्राइवेट टैक्सी में? रोहित औफिस में होता था और सीमा को कहीं जाना होता था तो वह प्राइवेट टैक्सी बुक करवा लेती थी या औटो से चली जाती थी.

अब वह काम यह ड्राइवर करेगा, उस की अपनी कार होने के बावजूद वह पुरुषों पर ही निर्भर रहेगी. अपनी मरजी से कार ले कर वह कहीं भी उस तरह नहीं जा सकती जैसे कि उस का पति जाता है. सीमा उच्चवर्गीय गुलाम है. सीमा की तरह वे सभी औरतें पुरुषों की गुलाम हैं जो अपनी कार को खुद ड्राइव नहीं करतीं, जिन्हें कार के बारे में कोई जानकारी नहीं है, जो कहीं आनेजाने के लिए पति या ड्राइवर पर निर्भर हैं. आकांक्षा के घर में पहली बार वाशिंग मशीन आई. उस के मायके वाले गरीब हैं. वहां कभी वाशिंग मशीन नहीं लगी. वहां सब नहाने के बाद अपने कपड़े खुद ही धोते हैं. ससुराल वाले भी कोई अमीर नहीं हैं. निम्नमध्यवर्गीय लोग हैं. मगर आकांक्षा के पति ने थोड़ी बचत कर के उस के लिए वाशिंग मशीन खरीद दी. मगर यह मशीन आकांक्षा को अब आफत लगने लगी है. पहले सब नहाने के बाद अपने कपड़े खुद ही धोते थे, अब सब के कपड़े धोने की जिम्मेदारी आकांक्षा पर आ गई है. वह रोज सब के गंदे कपड़े इकट्ठा करती है. मशीन में डालती है.

तय समय पर निकाल कर टोकरा भर कर छत पर लगी अलगनी पर सूखने के लिए डाल कर आती है. शाम को उस को उतारने जाना पड़ता है. फिर कपड़ों के ढेर के आगे बैठ कर वह हर कपड़े की तह लगाती है. जो घर में प्रैस हो सकते हैं उन्हें अलग छांटती है और जो धोबी से प्रैस करवाने हैं उन को अलग रखती है. पहले घर का हर सदस्य अपनेअपने कपड़ों की जिम्मेदारी खुद उठाता था, कब धोने हैं, कौन से प्रैस होने हैं, सब अपनाअपना देख लेते थे, मगर मशीन आने के बाद सारी जिम्मेदारी आकांक्षा के सिर आ पड़ी है. ऐसे में किसी के कपड़े पर कोई दाग वगैरह रह जाए तो ताने अलग से सुनने पड़ते हैं कि इतनी महंगी मशीन खरीद कर दी, फिर भी भाभी का काम में मन नहीं लगता है. औरतों को काम में सुविधा देने वाली वाशिंग मशीन ने आकांक्षा के लिए असुविधाएं पैदा कर दी हैं. तकनीक ने उस का काम बढ़ा दिया है. महिलाओं को तकनीकी सुविधा कहने को तकनीक ने औरतों को सुविधा देने के नाम पर तमाम तरह की मशीनें ईजाद कर दी हैं. द्य किचन में सिलबट्टे पर मसाला पीसने में उसे पसीना न बहाना पड़े,

इसलिए मिक्सी-ग्राइंडर ईजाद हुआ. द्य कंडाकोयला इकट्ठा कर के मिट्टी का चूल्हा न फूंकना पड़े, उस के फेफड़ों को धुआं न खाना पड़े, इसलिए किचन में गैस चूल्हे आ गए. द्य खाना फटाफट गरम हो जाए तो किचन में माइक्रोवेव ओवन लगा दिए गए. द्य डिशवाशर, राइस कुकर, वैक्यूम क्लीनर जैसी तमाम तकनीकें आ गईं. दरअसल, उन के माध्यम से औरत को घर और किचन में कैद कर दिया गया है. इन सुविधाओं से न तो उस पर काम का बो झ कम हुआ है और न उस के अंदर आजादी, खुदमुख्तारी का एहसास जागा है. इन से पुरुषों को आजादी मिली है. उन्हें इन चीजों को उपलब्ध कराने की माथापच्ची नहीं करनी पड़ती. पहले कोयला पुरुष रिकशे में भरवा कर लाते थे, खाना ठंडा खाते थे, पानी भर कर लाते थे. वहीं सोचने वाली बात यह भी है कि क्या विज्ञान की ईजाद इन तमाम चीजों के साथ आदमी को जोड़ सकते हैं? क्या आप कल्पना कर सकती है कि घर का मर्द किचन में मिक्सरग्राइंडर चला रहा है, या डिश वाशर में बरतन धो रहा है, या वैक्यूम क्लीनर ले कर घर साफ कर रहा है? नहीं, क्योंकि तकनीक जैंडरबायस हो चुकी है.

तकनीक न्यूट्रल नहीं, बल्कि स्त्री और पुरुष की सोच से ग्रस्त है. हर तकनीक, हर निर्माण के पीछे पितृसत्तात्मक सोच वाला पुरुष है. कमांड उस के हाथ में है. अगर पुरुषों को ये काम करने होते तो इन की नई तकनीक कब की आ चुकी होती. पुरुष औरतों के कपड़े डिजाइन करता है. उस को कितना नंगा रखना है, कितना ढांकना है, यह वह तय करता है. पुरुष स्त्री के लिए ज्वैलरी डिजाइन करता है. खूबसूरत सोनेचांदी की बेडि़यां उस के शरीर पर कहांकहां और कैसेकैसे जकड़नी हैं, यह वह निश्चित करता है. वह स्त्री के लिए दुनियाभर के कौस्मैटिक्स बनाता है. ऊंची हील की जूतियांचप्पलें बनाता है ताकि उस की गति को कंट्रोल में रख सके, उसे नाजुक बनाए रखा जा सके. डर है कि कहीं औरतों ने पुरुषों के समान जूते पहन कर दौड़नाभागना शुरू कर दिया तो वे आदमियों को बहुत पीछे छोड़ देंगी. करवाचौथ पर कई जोक्स चले व्हाट्सऐप पर. किसी ने लिखा कि इस दिन मोबाइल कंपनी का दिवाला निकल गया क्योंकि औरतों के हाथों में मेहंदी लगी होने की वजह से व्हाट्सऐप यूज नहीं किया गया.

एक सर्वे के मुताबिक, औरतें व्हाट्सऐप पर चैटिंग पुरुषों से 1.3 गुना ज्यादा करती हैं. पर कितनी औरतें? आंकड़े बताते हैं कि हमारे देश की 61 करोड़ से ज्यादा औरतों में से सिर्फ 28 परसैंट के पास फोन हैं. इस 28 परसैंट में से सिर्फ 20 परसैंट डेटा एनबिल्ट फोन का इस्तेमाल करती हैं यानी वे व्हाट्सऐप चला पाती हैं. दरअसल, औरतों के पास फोन होते ही कम हैं. अधिकतर घरों में अगर एक फोन है तो वह पति के पास रहता है. औरत को फोन का क्या काम? वह तो पति के फोन से भी काम चला लेगी. अगर कहीं औरत के पास फोन होगा तो वह पति के फोन से कमतर होगा. बस, बात भर ही तो करनी है इसलिए. पति खरीदेगा 8 हजार का फोन और औरत को 1,500 रुपए के फोन से काम चलाना होगा. स्मार्ट होने का हक सिर्फ आदमी को है, इसलिए उस के हाथ में स्मार्टफोन है. औरत को स्मार्ट हो कर क्या करना है, कौन सा सारे दिन दफ्तर में खटना है? फिर जिन औरतों के पास स्मार्टफोन हैं, वे हर पल शक के दायरे में रहती हैं. पति जब मन करे उन का फोन चैक करते हैं. कौल हिस्ट्री खंगालते हैं.

व्हाट्सऐप पर किसकिस से चैट हुई देखते हैं. वह कहांकहां गई, उस की लोकेशन ट्रेस करते हैं. औरत के लिए स्मार्टफोन सुविधा नहीं, बल्कि जी का जंजाल हो गया है. मैट्रो और मौल्स में हाथों में स्मार्टफोन लिए लड़कियोंऔरतों के ऊर्जावान तबके को देखने वाले इस बात को नकारते हैं कि फोन से औरतों की मुसीबत बड़ी है. पर यह सिर्फ आप के अरबन चश्मे का दोष है. इन से बाहर निकलने पर स्थिति 360 डिग्री के कोण पर घूम जाती है. हमारे यहां अब भी खाप पंचायतें लड़कियों के फोन रखने पर बैन लगाती हैं. बाड़मेर, राजस्थान के गरारिया गांव में मुसलमान औरतें सिर्फ इसलिए फोन का इस्तेमाल नहीं कर सकतीं क्योंकि उन के धर्म और खाप की नजर में यह सामाजिक बुराई है. किशनगंज, बिहार में लड़कियों को मोबाइल फोन रखने के लिए 10 हजार रुपए तक का जुर्माना भरना पड़ सकता है.

आगरा के पास बसौली गांव में पंचायत ने 18 साल से कम उम्र की लड़कियों के लिए मोबाइल को बैन किया हुआ है. गुजरात की राजधानी अहमदाबाद से 100 किलोमीटर दूर सूरज गांव में औरतों के पास मोबाइल होने की सजा 2,100 रुपए का जुर्माना है और खबरी को इनाम के तौर पर 200 रुपए मिलते हैं. चेन्नई के कई इंजीनियरिंग कालेजों में कैंपस के बाहर लड़कियों को मोबाइल फोन रखने की इजाजत तो है लेकिन उन की रिंगटोन रोमांटिक नहीं होनी चाहिए. सोचिए कि ऐसे नियम और बंधन कहीं पुरुषों पर लागू होते हैं? डिजिटल इंडिया कैंपेन तब बगलें झांकने लगता है जब दिल्ली से जुड़े कितने ही गांवों में लड़कियों को मोबाइल छूने भी नहीं दिया जाता है. कुल जमा यह कि तकनीक औरतों और पुरुषों को अलगअलग चश्मे से देखती है. देश में मोबाइल जैंडर गैप बहुत बड़ा है. यहां पुरुषों के पास अगर 43 परसैंट मोबाइल फोन हैं तो औरतों के पास सिर्फ 28 परसैंट. लगभग 81 परसैंट औरतों ने इंटरनैट सर्फिंग कभी की ही नहीं है. फेसबुक पेज बनाने वाली भी सिर्फ 24 परसैंट औरतें हैं. अगर भारत में 7 करोड़ व्हाट्सऐप यूजर्स हैं तो सिर्फ 38 परसैंट औरतें आईपी मैसेजिंग का इस्तेमाल करती हैं.

इंटरनैट एंड मोबाइल एसोसिएशन औफ इंडिया द्वारा साल 2014 में किए गए एक सर्वे से पता चलता है कि तब तक सिर्फ 9 परसैंट औरतों को इंटरनैट सर्फ करना और ईमेल भेजना आता था. जानकार कहते हैं कि जब औरतों को डिजिटल फ्लूएंसी यानी बिना किसी बाधा के इंटरनैट के प्रयोग की सुविधा मिलेगी, तभी मर्दऔरत की असमानता को मिटाना मुमकिन होगा. इस से विकसित देशों में वर्कप्लेस यानी काम करने की जगहों पर उन के बीच 25 सालों में बराबरी आएगी और विकासशील देशों में 45 सालों में. भारत में काम तलाशने के लिए मोबाइल रखने वाले 81 परसैंट पुरुष डिजिटल स्पेस का प्रयोग करते हैं. औरतों की संख्या इस से काफी कम यानी 54 परसैंट ही है. अंतर्राष्ट्रीय श्रम संगठन का यह कहना काफी माने रखता है कि भारत की वर्कफोर्स में सिर्फ 27 परसैंट औरतें हैं.

अगर उन्हें तकनीक से रूबरू होने का मौका सही तरीके से मिलेगा तभी उन के लिए कंपीटिशन में टिके रहना आसान होगा. औरतों को हमेशा तकनीक से दूर ही रखने का प्रयास होता रहा है. मगर जहां उस को कुछ तकनीकी सुविधाएं दी भी गई हैं तो वे उस के लिए या तो मुसीबत पैदा कर रही हैं या इस एहसास को पुख्ता कर रही हैं कि वे सिर्फ मर्द की दासी ही हैं. और्डर फौलो करती फीमेल वर्चुअल वर्ल्ड की बात करें तो यहां औरतें सिर्फ हैल्पर हैं, कमांड आदमी के हाथ में है. माइक्रोसौफ्ट की कोर्टाना, अमेजन की एलेक्सा, गूगल की गूगल असिस्टैंट और एप्पल की सिरी, इन सब में एक बात समान है कि ये सभी वर्चुअल असिस्टैंट्स हैं और इन का जैंडर फीमेल है. बेंगलुरु के सेसना बिजनैस पार्क स्थित स्मार्टवर्क्स के दफ्तर में फीमेल रोबोट ‘मित्री’ को लौंच किया गया है. यह कंपनी की रिसैप्शनिस्ट है. यह महिला रोबोट दफ्तर में साफसफाई, हाउसकीपिंग का काम करती है.

गुलाबी फ्रौक पहने, नाजुक, फीमेल बौडी टाइप वाली इस रोबोट को बालाजी विश्वनाथन ने बनाया है. विश्वनाथन ने मित्र रोबोट भी बनाए हैं. ये मेल रोबोट हैं जो चौड़े कंधों वाले और वजनदार आवाज वाले हैं. ये दुकान में कारें बेचते हैं. जहां हैल्पर की जरूरत है वहां फीमेल ‘मित्री’ मदद के लिए हाजिर है. स्टीरियोटाइप्स हमेशा कायम रहते हैं, यही वजह है कि सारे वर्चुअल असिस्टैंट फीमेल जैंडर को रिफ्लैक्ट करते हैं. हालांकि, यूनेस्को ने इस तरह के रवैए पर ऐतराज जताया है. उस का कहना है कि डिजिटल असिस्टैंट्स के तौर पर महिला जैंडर का इस्तेमाल करने से लैंगिक भेद को मजबूती मिलती है. लोगों को लगता है कि सिर्फ एक बटन दबाने से औरतें किसी को खुश करने के लिए तैयार हो जाती हैं. इस से ज्यादातर समुदायों में इस बात को बल मिलता है कि महिलाएं पुरुषों के अधीन होती हैं और खराब व्यवहार को भी बरदाश्त कर सकती हैं.

यूनेस्को ने अपील की है कि डिजिटल असिस्टैंट्स को बायडिफौल्ट महिला न बनाया जाए और एक जैंडर न्यूट्रल मशीन पर काम किया जाए. आर्टिफिशियल इंटैलिजैंस तकनीक के तयशुदा जैंडर का कारण और कुछ नहीं, सिर्फ यह है कि ज्यादातर टैक कंपनियों में इंजीनियरिंग टीम के प्रमुख आदमी हैं जो पुरुष ग्राहकों को सोच कर ही सारे प्रोडक्ट तैयार करते हैं. पुरुष ही पुरुषों के लिए प्रोडक्ट बनाते हैं, इसीलिए रोबोट जैसे जैंडर न्यूट्रल आविष्कार भी मर्द और औरत में बंटे दिखाई देते हैं. रोबोट्स के डिजाइनर्स और यूजर्स तय करते हैं कि उन का जैंडर क्या होगा. ये दोनों समूह अपने पूर्वाग्रह के आधार पर काम करते हैं. यही वजह है कि टर्मिनेटर, स्टार वार्स, रोबो कौप, एवेंजर्स में साहसिक कार्य करने वाले पात्र तो पुरुषों के तौर पर कोडेड होते हैं जबकि औरतें वहां सिर्फ प्रेमिका या पीडि़ता या मददगार होती हैं. महिलाओं की धीमी, मधुर आवाज सब को भाती है. अगर वह और्डर देने लगे तो सब उस से कतराते हैं.

महिलाओं के बौसी होने से सब को चिढ़ होती है. आदमी धौंस देने के लिए चिल्लाए, डपटे तो लोग ज्यादा परेशान नहीं होते हैं. वर्ष 2015 में टेस्को ने ब्रिटेन के कई शहरों में अपने रिटेल स्टोर्स के सैल्फ सर्विस चैकआउट्स से फीमेल वौयस को हटा कर मेल वौयस का इस्तेमाल करना शुरू कर दिया. इस की वजह यह थी कि ग्राहकों को औरत की ‘बौसी’ किस्म की आवाज से शिकायत थी. हमारी परवरिश ऐसी है जो औरत के वर्चस्व व उस के काम को महत्त्व नहीं देती है. सालों से भविष्य में ऐसी दुनिया की कल्पना की जा रही है जब तकनीक हमारी जिंदगी को आसान बनाएगी, लेकिन उस दुनिया में भी औरतों की भूमिका तय होगी. पुरुष अधिपति होंगे और महिलाएं एप्रेन पहने, उन के काम करती रहेंगी.

गौरतलब है कि जिन क्षेत्रों में औरतों की संख्या मर्दों से ज्यादा है, वहां भी वे मर्दों को असिस्ट ही करती हैं, कमांड मर्दों के हाथ में होती है. फैसला मर्दों का होता है. घरों में काम करने वाली बाइयां, अस्पतालों में नर्सें, स्कूलों में छोटे बच्चों की टीचर, दफ्तरों में सैक्रेटरी और रिसैप्शनिस्ट, दुकान में सेल्स गर्ल्स, ये सब नईनई तकनीक का इस्तेमाल तो करती हैं, मगर ये उन की मालकिन नहीं होती हैं. महिलाओं के लिए तकनीकी आदर्श लोक तो तब बनेगा जब वर्चुअल सहायता का काम लिंग विशेष से जुड़ा न होगा. यों कोई भी काम लिंग विशेष तक सीमित क्यों हो? विज्ञान और तकनीक इंसान के लिंग को देख कर आगे बढ़ेंगे तो ये देश और समाज में भारी असमानता, डर, तनाव और अपराध को ही बढ़ाएंगे.

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