ईस्ट दिल्ली में रहनेवाली श्यामा की मां को कैंसर से मरे हुए 4 साल हो गए, मगर आज तक वह डिप्रेशन का इलाज करवा रही है. अंतिम समय में मां की सेवा न कर पाने का अपराध बोध उसे नासूर की तरह सालता रहता है. वह रोते हुए कहती हैं, ‘काश, उस वक्त मैंने स्टैंड लिया होता. मैं भी क्या करती/ मेरे हसबैंड और सास ने कह दिया था कि मां की सेवा करनी है, तो घर से निकल जाओ. मैं क्या करती/ कैंसर से पीड़ित मां को कजिन के रहमों-करम पर रखना पड़ा. मां तो चली गई, मगर मैं आज तक खुद को माफ नहीं कर पाई.’

कमोबेश श्यामा जैसे दर्द से समाज की उन तमाम औरतों को गुजरना पड़ता है, जिन्हें बचपन से यही सिखाया-पढ़ाया जाता है कि शादी के बाद पति का घर ही उनका अपना है और अब अपने माता-पिता के बजाय उनकी सारी जिम्मेदारी ससुराल की तरफ है. ऐसे में कई बेटियां तो चाहते हुए भी अपने पैरंट्स के लिए कुछ कर पाने से लाचार रह जाती हैं, मगर बॉम्बे हाई कोर्ट का यह फैसला न केवल वुमन इक्वैलिटी को समाज में मजबूत करेगा, बल्कि बुजुर्गों की दयनीय हालत में भी सुधार आएगा.

दरअसल, हाई कोर्ट ने वसंत वर्सेज गोविंदराव उपासराव के केस में अपना जजमेंट सुनाते हुए कहा कि शादीशुदा लड़की को अपने पैरंट्स की जिम्मेदारी शेयर करनी होगी. अदालत ने इस पूर्व धारणा को खारिज कर दिया कि विवाहित बेटी के सारे फर्ज ससुराल की तरफ हैं. माता-पिता की ओर नहीं.

सीनियर सिटीजंस और उनके परिवारों के वेलफेयर के लिए काम करनेवाली ‘सिल्वर इनिंग्ज’ नामक फाउंडेशन के संस्थापक शैलेश मिश्रा के अनुसार, ‘हमारी संस्कृति ऐसी है कि मां-बाप की जिम्मेदारी बेटा ही उठाएगा. हमारे पास कई ऐसे बुजुर्ग आते हैं, जो अकेलेपन, बीमारी और लाचारी का शिकार होते हैं. बेटियों को उनके देखभाल की जिम्मेदारी देकर अदालत ने सकारात्मक पहल की है, मगर हम चाहते हैं सरकार ऐसे बुजुर्गों की जिम्मेदारी ले, जिनका कोई नहीं.

हिमाचल के कांगड़ा में एक 87 महिला कौशल्या देवी अकेली रहने पर मजबूर है. उसका कोई नहीं है. वह रोज सुबह उठकर अपने घर पर पर्ची लगाकर लिखती है, ‘मैं जिंदा हूं’, वहीं महिलाओं और सामाजिक सरोकारों के लिए काम करनेवाली संस्था मजलिस की ऑड्रे एग्निस कहती हैं, ‘बेटी पराया धन होती है’ यह कॉन्सेप्ट हमारे देश में इतना प्रबल है कि उस सोच को तोड़ पाना बहुत मुश्किल है. कई जगहों पर तो बेटी के घर का खाना भी बुरा समझा जाता है. माता-पिता यही सोचकर बेटी को ज्यादा पढ़ाते-लिखाते नहीं कि उसने तो पराए घर जाना है, मगर अब कानून का सहारा मिलने पर उसे मायके में महत्व मिलेगा.’

बूढ़े पिता को मारते थे पोता और बहू

बूढ़े-बुजुर्गों के लिए सालों से कार्यरत हेल्पेज इंडिया के डायरेक्टर प्रकाश बोरगांवकर कहते हैं, ‘मैं आपको बता दूं कि मेंटेनेंस एंड वेल्फेयर ऑफ पैरंट्स एंड सीनियर सिटिजन ऐक्ट, 2007 के अंतर्गत कानून है कि बेटा हो या बेटी, दोनों को अपने माता-पिता का खयाल रखना है, वरना शिकायत होने पर उन्हें 3 महीने की सजा हो सकती है. हालांकि, इस कानून के तहत कोर्ट-कचहरी नहीं होती, ये केस ट्रिब्यूनल में लाए जाते हैं और इनकी सुनवाई और फैसला 4 महीने के भीतर किया जाता है, मगर सच यह है कि कई बार कानून सामजिक और नैतिक जिम्मेदारी के लिए मददगार नहीं हो पाता.

हाल ही में मैं एक केस डील कर रहा हूं, जहां तीन बेटों के बावजूद पिता को बेटी के पास रहना पड़ा. पिता की शिकायत थी बहू और पोता उन्हें मारते थे. बॉम्बे हाई कोर्ट के इस फैसले से महिलाओं को अपने माता-पिता की देखरेख अधिकार मिलेगा ही, साथ ही बुजुर्गों को भी सम्मान मिलेगा.’

सेवा की जिम्मेदारी भी लें

हाईकोर्ट के इस फैसले के बारे में बात करने पर वकील आभा सिंह कहती हैं, ‘जब कानून शादीशुदा बेटी को पैतृक संपत्ति में उत्तराधिकार देता है और तो और पहले हमारे कानून के हिसाब से बड़ा बेटा कर्ता हुआ करता था, अब बेटी भी कानूनन कर्ता हो सकती है.

वह अपने माता-पिता की प्रॉपर्टी हैंडल कर सकती है, टैक्स भर सकती है. अगर उसे संविधान यह सारे अधिकार देता है, तो फिर पैरंट्स की सेवा करने की जिम्मेदारी भी उसे भी उठानी होगी.’

 

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