पिछले 6 दशकों से सरिता के सुधारवादी लेखों ने लोगों को हिंदू समाज की 2000 सालों की गुलामी के कारणों पर तार्किक तरीके से तथ्य प्रस्तुत किए हैं कि दोष हमारे धर्मग्रंथों का है, जिस का प्रभाव किसी सुबूत का मुहताज नहीं. रामचरितमानस जैसे ग्रंथों ने इस भूभाग को गुलाम और पिछड़ा किस तरह बनाए रखा है, इस पर हालिया विवाद यह बताता है कि पौराणिक सोच की हमारी धारणाएं अभी भी वैज्ञानिक तर्कों पर भारी हैं.

रामचरितमानस की आड़ में देश में बीते दिनों एक बवंडर मचा. उसे राजा जनक के दरबार में अष्टावक्र और बंदी (वंदिनी) की बहस सरीखा इस लिहाज से कहा जा सकता है कि उस दौर में भी शास्त्रार्थ एक खास मकसद से ही किए जाते थे कि वर्णव्यवस्था का नवीनीकरण होता रहे. आज फिर ब्राह्मणवादी सोच और शूद्र आमनेसामने हैं. दोनों ही रामचरितमानस को ले कर वाक्युद्ध कर रहे हैं. आज के अष्टावक्र कह रहे हैं कि इस में जो कुछ लिखा है वह आपत्तिजनक और शूद्रों (व सवर्ण औरतों) को अपमानित करने वाला है, इसलिए या तो रामचरितमानस के कुछ अंश हटाए जाएं या फिर इस ग्रंथ को प्रतिबंधित किया जाए. मुमकिन यह भी है कि यह विवाद सोचीसम?ा साजिश यानी पूर्व नियोजित षड्यंत्र हो जिस का मकसद पौराणिक सवर्ण हिंदू राष्ट्र की स्थापना है. सो, जरूरी है कि मानस को आज फिर रामचरित के विवादित पहलुओं को उभार कर संपूर्ण हिंदू समाज को शीशा दिखाया जाए. मंशा असल में यह देखने की है कि पिछले दशकों के दौरान कितने दलित, पिछड़ों, आदिवासियों और सवर्ण औरतों की हिम्मत टूटी है कि जो वे बराबरी, शिक्षा, तर्क, विज्ञान के तथ्यों को जान कर भी धर्मग्रंथों में निर्देशित सामाजिक व्यवस्था को ज्यों का त्यों स्वीकारने को तैयार हैं और अगर उन में से कुछ के मन में विरोध या एतराज जताने का माद्दा बचा है तो कौन सा विकल्प बेहतर है- इंतजार करने का या फिर रामचरितमानस जैसे ग्रंथों में संशोधनों की मांग मान लेने का? शुरुआत बिहार के शिक्षा मंत्री प्रोफैसर चंद्रशेखर ने 11 जनवरी को की थी.

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