पिछले 6 दशकों से सरिता के सुधारवादी लेखों ने लोगों को हिंदू समाज की 2000 सालों की गुलामी के कारणों पर तार्किक तरीके से तथ्य प्रस्तुत किए हैं कि दोष हमारे धर्मग्रंथों का है, जिस का प्रभाव किसी सुबूत का मुहताज नहीं. रामचरितमानस जैसे ग्रंथों ने इस भूभाग को गुलाम और पिछड़ा किस तरह बनाए रखा है, इस पर हालिया विवाद यह बताता है कि पौराणिक सोच की हमारी धारणाएं अभी भी वैज्ञानिक तर्कों पर भारी हैं.
रामचरितमानस की आड़ में देश में बीते दिनों एक बवंडर मचा. उसे राजा जनक के दरबार में अष्टावक्र और बंदी (वंदिनी) की बहस सरीखा इस लिहाज से कहा जा सकता है कि उस दौर में भी शास्त्रार्थ एक खास मकसद से ही किए जाते थे कि वर्णव्यवस्था का नवीनीकरण होता रहे. आज फिर ब्राह्मणवादी सोच और शूद्र आमनेसामने हैं. दोनों ही रामचरितमानस को ले कर वाक्युद्ध कर रहे हैं. आज के अष्टावक्र कह रहे हैं कि इस में जो कुछ लिखा है वह आपत्तिजनक और शूद्रों (व सवर्ण औरतों) को अपमानित करने वाला है, इसलिए या तो रामचरितमानस के कुछ अंश हटाए जाएं या फिर इस ग्रंथ को प्रतिबंधित किया जाए. मुमकिन यह भी है कि यह विवाद सोचीसम?ा साजिश यानी पूर्व नियोजित षड्यंत्र हो जिस का मकसद पौराणिक सवर्ण हिंदू राष्ट्र की स्थापना है. सो, जरूरी है कि मानस को आज फिर रामचरित के विवादित पहलुओं को उभार कर संपूर्ण हिंदू समाज को शीशा दिखाया जाए. मंशा असल में यह देखने की है कि पिछले दशकों के दौरान कितने दलित, पिछड़ों, आदिवासियों और सवर्ण औरतों की हिम्मत टूटी है कि जो वे बराबरी, शिक्षा, तर्क, विज्ञान के तथ्यों को जान कर भी धर्मग्रंथों में निर्देशित सामाजिक व्यवस्था को ज्यों का त्यों स्वीकारने को तैयार हैं और अगर उन में से कुछ के मन में विरोध या एतराज जताने का माद्दा बचा है तो कौन सा विकल्प बेहतर है- इंतजार करने का या फिर रामचरितमानस जैसे ग्रंथों में संशोधनों की मांग मान लेने का? शुरुआत बिहार के शिक्षा मंत्री प्रोफैसर चंद्रशेखर ने 11 जनवरी को की थी.
उन्होंने नालंदा ओपन यूनिवर्सिटी के दीक्षांत समारोह में कहा था कि, मनुस्मृति में समाज की 85 फीसदी आबादी वाले बड़े तबके के खिलाफ गालियां दी गईं व रामचरितमानस के उत्तरकांड में लिखा है कि नीच जाति के लोग शिक्षा ग्रहण करने के बाद सांप की तरह जहरीले हो जाते हैं. उन्होंने कहा कि ये नफरत फैलाने वाले ग्रंथ हैं. उन का आरोप था कि एक युग में मनुस्मृति, दूसरे युग में रामचरितमानस तीसरे युग में गुरु गोलवलकर का ‘बंच औफ थौट’, ये सभी देश व समाज में नफरत बांटते रहे हैं. वे जोर दे कर यह कहते रहे कि नफरत कभी देश को महान नहीं बनाएगी, देश को केवल मोहब्बत ही महान बनाएगी. इस के 10 दिनों बाद 22 जनवरी को उत्तर प्रदेश के समाजवादी पार्टी के नेता स्वामी प्रसाद मौर्य ने सिर्फ रामचरितमानस का हवाला दिया, इसलिए कि भारतीय जनमानस पर रामचरितमानस का सीधा और ज्यादा असर है और रोजरोज इसी की घुट्टी लोगों को पिलाई जाती है. भव्य धार्मिक समारोहों में रामकथा और श्रीमद्भागवत के अलावा प्रवचनों में भी रामचरितमानस के प्रसंग होते हैं जो सहज समझ आते हैं.
इसलिए उन्होंने कहा, ‘‘इसी मानस में बताया गया है कि कोई व्यभिचारी हो, दुराचारी हो, अनपढ़ हो या देशद्रोही भी हो, अगर वह ब्राह्मण हो तो पूजिए, वहीं कितना भी ज्ञानी क्यों न हो, विद्वान हो, ज्ञाता हो लेकिन अगर वह शूद्र है तो उस का सम्मान मत करिए. अगर यही धर्म है तो मैं ऐसे धर्म को नमस्कार करता हूं जो हमारा सत्यानाश चाहता हो. ‘सरिता’ ने तो बहुत पहले कहा था- प्रोफैसर चंद्रशेखर या सपा नेता स्वामी प्रसाद मौर्य ने जो कहा, ‘सरिता’ उन्हें उस वक्त से कहती समाज और देश को आगाह कर रही है जब ये दोनों पैदा भी नहीं हुए होंगे और हो भी गए होंगे तो बच्चे रहे होंगे. सरिता के सुधारवादी लेखों का प्रभाव आज की पीढ़ी में भी है क्योंकि सुधार शाश्वत होता है.
इस सुधार के एवज में यह और बात है कि सरिता के संपादक और लेखकों को जीभर कर परेशान किया गया. उन पर धार्मिक भावनाएं भड़काने वाली धारा 295 के तहत बहुत से मुकदमे थोप दिए गए लेकिन तर्क सुनने के बाद अदालतों के फैसले सरिता के पक्ष में ही आए. निष्पक्ष और निर्भीक लेखन व पत्रकारिता के अपने मिशन से वह टस से मस नहीं हुई चाहे संपादक और लेखकों को धमकियां दी गईं. सरिता के कार्यालय को आग भी लगाई गई. कांग्रेस के युग में भी धर्मनिष्ठ मंत्रियों ने अपना पूरा जोर लगाया.
सरिता के मार्च 1961 के अंक में प्रकाशित लेख ‘रामचरितमानस में ब्राह्मणशाही’ के कुछ अंश यहां दिए जा रहे हैं जिस से चंद्रशेखर और स्वामी प्रसाद मौर्य जैसे करोड़ों लोगों की भड़ास समझा आए कि सरिता पत्रिका आज से 60-65 साल पहले भी वैसी ही थी जैसी बातें आज व्यक्त की जा रही हैं-
सापत ताड़त परुष कहंता बिप्र पूज्य अस गावहिं संता पूजिअ बिप्र सील गुन हीना सूद्र न गुन गन ग्यान प्रबीना. -अरण्य काण्ड 40-1. (ब्राह्मण चाहे शाप दे, मारे या कटु वचन कहे तो भी वह पूज्य होता है.
ब्राह्मण शील और गुणों से हीन हो तो भी उसे पूजना चाहिए और शूद्र गुण और ज्ञान में निपुण हो तो भी उसे नहीं पूजना चाहिए. ऐसा संत पुरुष कहते हैं).
‘‘स्वयं राम के मुंह में डाली गई स्वार्थमूलक समाजहित विरोधिनी इन विषैली चौपाइयों की और किसी तरह व्याख्या हो ही नहीं सकती सिवा इस के कि यहां पहुंच कर ब्राह्मणों के निहित स्वार्थों ने एकदम नंगा रूप धारण कर लिया है. यदि शील और गुणों से हीन होने पर भी ब्राह्मणों की पूजा करना और गुणों तथा शील ज्ञान में प्रवीण होने पर भी शूद्रों की पूजा न करना ही संत मत है तो फिर असंत मत किसे कहते हैं.’’ (सरिता, मार्च 1951 के अंक से).
आइए, इसी लेख के कुछ और अंश देखें- भाई को समझाने में असमर्थ रह कर विभीषण शत्रु पक्ष में राम के पास चला आया है तो राम कहते हैं-
सगुन उपासक परहित निरत नीति दृढ़ नेम ते नर प्रान समान मम जिन्ह कें द्विज पद प्रेम सुन्दर काण्ड-49 (जो सगुन ब्रह्म के उपासक हैं, जो परोपकार करने में तत्पर हैं, जो नीतिमान और दृढ़ नियम वाले हैं और जिन का ब्राह्मणों के चरणों में प्रेम है वे मनुष्य मुझे प्राण के समान प्यारे हैं).
यदि किसी व्यक्ति या जाति में प्रथम तीनों गुण हों लेकिन मात्र चौथा गुण ब्राह्मणों के चरणों में प्रेम न हो तो उस की क्या स्थिति होगी? ब्राह्मणों के चरणों में प्रेम होने में ऐसी क्या विशेषता है अथवा उस में ऐसा कौन सा समाजहित होता है कि उस के कारण वह व्यक्ति अथवा समाज राम को प्राण के समान प्यारा हो जाता है.
इसी लेख में आगाह करते कहा गया था, ‘‘इस में संदेह नहीं कि तुलसी ने रामचरितमानस में ब्राह्मण पक्षपात का अनुपम उदाहरण उपस्थित किया है. यह पक्षपात या तो उन की जड़ धारणाओं की अभिव्यक्ति है या फिर ब्राह्मण समाज के निहित स्वार्थों की रक्षा का जानबूझकर कर किया गया साहित्यिक प्रयास है. लेकिन हमें डर है कि भावी इतिहास लेखक का फैसला कहीं यह न हो कि ऐसा कर के तुलसी ने स्वयं ब्राह्मणों का भी अहित ही किया.’’ संतोष का विषय है कि जनता जागरूक है और अब रामचरितमानस की विषैली शिक्षाओं का प्रभाव दिनोंदिन घट रहा है. जो चंद्रशेखर का रोना है, उस का जिक्र भी इसी लेख में किया गया है.
ब्राह्मण समाज के लिए तुलसी इस से अधिक और क्या लिख सकते थे. इस सारे ब्राह्मण माहात्म्य को निम्नलिखित चौपाइयों के साथ पढि़ए जिन्हें तुलसी ने एक पूर्वजन्म के शूद्र से कहलवाई हैं-
अधम जाति मैं विद्या पाए भयऊ जथा अहि दूध पिआए मानी कुटिल कुभाग्य कुजाती गुर कर द्रोह करऊं दिनुराती -उत्तरकांड 163-3, 4 (नीच जाति का मैं विद्या पाने पर वैसा हो गया जैसे दूध पिलाने पर सांप हो जाता है. अभिमान, कुटिल, कुभाग्य वाला कुजाति मैं दिनरात गुरु का द्रोह करता रहता हूं.)
हिंसक प्रतिक्रियाएं
स्वामी प्रसाद मौर्य की गुस्ताखी सत्तारूढ़ पक्ष के लोग आखिर कैसे बरदाश्त कर लेते? आखिर वे उन की हकीकत उजागर करती और दुकानदारी पर चोट करती सच बयानी कर रहे थे.
उन के बयान और मांग पर हिंसक प्रतिक्रियाएं उम्मीद के मुताबिक हुईं. जगहजगह उन के पुतले फूंके गए. हद तो तब हो गई जब 16 फरवरी को लखनऊ के एक होटल में एक न्यूज चैनल के प्रोग्राम में दोनों अपने समर्थकों सहित भिड़ गए. संत, महंतों और सनातनियों में गुस्सा इस बात को ले कर ज्यादा भरा था कि स्वामी प्रसाद ने कथित रूप से रामचरितमानस की प्रतियां जलाई थीं और वे अपने बयान से टस से मस नहीं हो रहे थे और न ही माफी मांगने को तैयार हो रहे थे.
16 फरवरी को ही एक सनातनी महिला का वीडियो तेजी से वायरल हुआ था जिस में वह उन्हें अपशब्द कहते नजर आ रही थी. कोई वजह नहीं कि इस भाषा को सभ्य समाज की भाषा माना जाए. अपनी ‘भारत जोड़ो यात्रा’ के दौरान राहुल गांधी जिस नफरत की बात करते रहे थे वह साफतौर पर उजागर हुई. यह नफरत केवल किसी स्वामी प्रसाद मौर्य के प्रति ही नहीं थी बल्कि देश के तमाम छोटी जाति वालों यानी शूद्रों के प्रति है जिन के बारे में तुलसीदास ने तरहतरह से जहर उगला है. सरिता के जुलाई (प्रथम) 1980 के अंक में प्रकाशित एक लेख ‘रामचरितमानस में ब्राह्मणवाद’ में कहा गया है कि- ‘‘जनता में सांस्कृतिक चेतना आई, वह किसी भी ब्राह्मण मत को तर्क की कसौटी पर रख कर जांचपड़ताल करने लगी.
अकबर के शासन काल तक पहुंचतेपहुंचते ब्राह्मणों का आधिपत्य लगभग समाप्त हो चुका था, जाति बंधन ढीले पड़ गए. नतीजतन वेद और कुरान में भेद भुलाया जाने लगा. ‘‘ऐसे समय में ब्राह्मण वर्ग एक ऐसे ब्राह्मण विद्वान की खोज में लगा हुआ था जो फिर से ब्राह्मण राज्य स्थापित करने में मदद कर सके, जनता को गुमराह कर के धर्म की ध्वजा फहरा सके, वर्ण व्यवस्था को फिर से जीवित कर सके, लोगों के मन में तीर्थों व व्रतउपवासों के प्रति आस्था जगा सके और ब्राह्मणों की सर्वश्रेष्ठता प्रमाणित कर सके.’’ ऐसे ही समय तुलसीदास का आगमन हुआ.
उन्होंने हिंदू समाज की नाड़ी भलीभांति पहचानी. ब्राह्मणवाद पर आए घोर संकट को भी उन्होंने सम?ा. उस संकट के निवारण के लिए उन्होंने ब्राह्मणवाद को स्थापित करने वाले ग्रंथों का चिंतनमनन किया और अंत में रामचरितमानस का प्रणयन किया. तुलसी के समय में जातिपांति का बंधन कितना ढीला था व ब्राह्मणों की स्थिति क्या थी, इस की जानकारी मानस के इस दोहे से मिल जाती है-
बादहिं सूद्र द्विजन्ह सन हम तुम्ह ते कछु घाटि जानई ब्रह्म सो बिप्रबर आंखि देखावहिं डाटि अर्थात, शूद्र लोग ब्राह्मणों के साथ विवाद करते हैं कि क्या वे उन से कुछ कम हैं. जो ब्रह्म को जाने वही ब्राह्मण है, (ऐसा कह कर) वे उन्हें डांट कर आंख दिखाते हैं.
इन पंक्तियों में ब्राह्मणवाद की वेदना परिलक्षित होती है. लेख में प्रमुखता से चेतावनी दी गई थी कि अभी बुद्ध या कबीर की आत्मा मरी नहीं है. लेकिन दुख यह देख कर हुआ कि आज 2023 में भी हमारे युवा धर्मग्रंथों के बहकावे में आ कर अपराधी होते जा रहे हैं. बीती 19 फरवरी को राजस्थान और हरियाणा की पुलिस मोनू मानेसर नाम के नौजवान को ढूंढ़ रही थी, जिस पर आरोप है कि उस ने 7 फरवरी को पटौदी कसबे में गौकशी के शक में 2 मुसलिम युवकों जुनैद और नासिर को जिंदा जला कर मार डाला था. गुरुग्राम के गांव मानेसर के 28 वर्षीय मोनू का असली नाम मोहित यादव है और उसे लोग गौरक्षक के नाम से जानते हैं. मोनू पर इस तरह के और भी मामले दर्ज हैं.
मोनू पर बचपन से ही धर्म का जनून सवार हो गया था जिस के चलते वह बजरंग दल से जुड़ गया और गौ तस्करी करने वालों को खुद सजा देने लगा. इस चक्कर में उस ने सहीगलत कुछ नहीं देखा. मुमकिन है यह मानस विवाद पर परदा डालने की कोशिश हो और माहौल को हिंदूमुसलिम बना कर ध्यान बंटाने का टोटका हो पर इस से वे वजहें छिप नहीं जातीं जिन से ऐसे हिंसक कांड होते हैं. हिंदू धर्म में गाय की महत्ता किसी सुबूत की मुहताज नहीं, खुद तुलसीदास कहते हैं4-
बिप्र धेनु सुर संत हित लीन्ह मनुज अवतार निज इच्छा निर्मित तनु माया गन गो पार -बाल कांड 224 अर्थात, यद्यपि भगवान माया, गुण और इंद्रियों से परे हैं तो भी उन्होंने ब्राह्मण, गौ देवता और संतों के हित में मनुष्य रूप धारण किया. लेकिन क्या ऐसे विवादों और फसादों से भला देश का कोई हित होता है,
यह गंभीरता से सोचने की बात है पर अफसोस इस बात पर होना चाहिए कि देश के कर्णधार इस पर कुछ बोलने का जोखिम नहीं उठा पाए. इस के विपरीत उन्हें तो सुकून इस बात का है कि कोई मुद्दों की बात नहीं करता और जो वे कहते हैं उसे सच मान लिया जाता है. मिसाल अर्थव्यवस्था की लें, सरकार की तरफ से बड़े जोरशोर से यह दावा अकसर किया जाता है कि हम दुनिया की 5वीं सब से बड़ी अर्थव्यवस्था हैं. ऐसा ही दावा रामचरितमानस में समाज के गठन के बारे में कही गई बातों को भगवान की कही गई बातों की तरह कहा गया है. कुछ ऐसा ही सरकार का दावा है.
कोई ये सवाल नहीं करता कि भारत प्रतिव्यक्ति आय के मामले में 194 देशों के बीच 144वें नंबर पर क्यों है, क्यों आज भी शूद्र बिना सिर पर छत, बिना चिकित्सा, बिना भरपेट जी रहे हैं? बीते दिनों गोदी मीडिया ने गागा कर यह बताया कि भारत की अर्थव्यवस्था ब्रिटेन को पार करती 5वें पायदान पर जा पहुंची है लेकिन हकीकत कुछ और है. हकीकत को बड़ी चालाकी से आंकड़ों के आईने से ढक दिया गया. भारत में प्रतिव्यक्ति सालाना आय 22 सौ डौलर है जबकि ब्रिटेन में प्रतिव्यक्ति आय 47 हजार डौलर है. यानी, अंतर 20 गुना के लगभग है. इस पर भी यह जगजाहिर तथ्य निगल लिया गया कि भारत की जीडीपी पर 10 फीसदी अमीरों का कब्जा है जिन के पास कुल आय का 57 फीसदी हिस्सा है और देश के 50 फीसदी लोगों के पास आय का महज 13 फीसदी हिस्सा है.
रामचरितमानस इसी तरह बारबार ‘ईश्वरीय’ आदेश देता है और 501 सालों से वह हमारा सामाजिक संविधान बना रहा है. अब यह बताना धरमकरम में डूबी देश की मौजूदा भगवा सरकार की जिम्मेदारी है कि हम कौन से एंगल से और किस मुंह से ब्रिटेन का मुकाबला करने का ढोल पीट रहे हैं. भारत में 90 फीसदी से भी ज्यादा लोगों की मासिक आय 10 हजार रुपए से भी कम है. ये लोग न तो ट्रेन का महंगा किराया अफोर्ड कर पाते हैं और न ही इन्हें चमचमाते एयरपोर्टों का इस्तेमाल करना है. सारी सहूलियतें, दरअसल अमीरों के लिए हैं, वरना किसी हाईवे पर बैलगाड़ी चलती न दिखाई देती.
बीते दिनों ब्राह्मणवाद की सनातनी वेदना फिर व्यक्त हुई लेकिन इस बार इस में गुस्सा इस बात को ले कर ज्यादा था कि शूद्र मानस का सच उधेड़ने की जुर्रत क्यों कर रहे हैं? अब लेनदेन की बात कही जा रही है, सम?ाने की कोशिश की जा रही है. आरएसएस प्रमुख मोहन भागवत ने अब वर्णव्यवस्था को ले कर कह डाला कि वर्ण भगवान ने नहीं, पंडितों ने बनाए हैं. रविदास जयंती पर बीती 5 फरवरी को मुंबई में आयोजित एक कार्यक्रम में मोहन भागवत ने कहा था, ‘‘जाति भगवान ने नहीं बनाई है, पंडितों ने बनाई जोकि गलत है. भगवान के लिए हम सभी एक हैं. हमारे समाज को बांट कर पहले देश में आक्रमण हुए, फिर बाहर से आए लोगों ने इस का फायदा उठाया.’’ मोहन भागवत के मुंह से संघ प्रमुख रहते हुए ज्ञान की यह बात सुनना वाकई हैरानी की बात थी कि वे क्यों जातिव्यवस्था के खिलाफ बोल रहे हैं? इस सवाल के संभावित जवाबों में से एक यह है कि वे धर्मग्रंथों में बदलाव की मांग कर रहे स्वामी प्रसाद मौर्य जैसे दलितपिछड़े नेताओं की चेतना से घबरा गए हैं क्योंकि 8-10 फीसदी सवर्णों के दम पर हिंदू राष्ट्र बनना अब मुमकिन नहीं दिख रहा.
मुसलमानों के खिलाफ जो माहौल पिछले 8 सालों में बना है, उसे वे सवर्णदलित संघर्ष की बलि चढ़ते देखना गवारा नहीं कर रहे क्योंकि बीते 2 लोकसभा चुनावों में भाजपा को सत्ता दलितों के दम पर ही मिली. आरएसएस और भाजपा इन्हीं 85 फीसदी वोटों के सहारे हैं जो अपने समर्थन के एवज में अब स्वाभिमान और बराबरी की बात करने लगे हैं. ब्राह्मणों ने मोहन भागवत के इस ज्ञान से इत्तफाक नहीं रखा बल्कि उस का विरोध शंकराचार्य से ले कर तहसील स्तर तक ब्राह्मण संगठनों ने किया. सो, घबराए आरएसएस प्रमुख को अपने सजातियों के सामने यह कहते ?ाकना पड़ा कि उन का मतलब ब्राह्मणों से न हो कर विद्वानों से था.
यह निहायत ही बचकाना स्पष्टीकरण था क्योंकि हर कोई जानता समझता है कि इस देश में ब्राह्मण ही पंडित और पंडित ही ब्राह्मण होता है और किसी को तो यह हक कभी मिला ही नहीं. मोहन भागवत यह भी साबित नहीं कर सकते कि जाति भगवान ने नहीं बनाई और उस ने नहीं बनाई तो किस काल के कौन सी जाति के पंडितों ने बनाई? वे यह भी दावा नहीं कर सकते कि क्या वर्ण के बाद जातियों की उत्पत्ति धर्मग्रंथों से नहीं हुई. उपजातियां किस ने बनाईं, यह कहना भी आसान नहीं.
लेकिन मानस में ऐसी चौपाइयों की भरमार है जो उस समय फैले जातिवाद को साफतौर पर उजागर करती हैं.
मसलन- स्वपच सबर खस जमन जड़, पावंर कोल किरात रामू कहत पावन परम होत भुवन बिख्यात -अयोध्या काण्ड 195 (चांडाल, भंगी, शबर, खस, यवन, मूर्ख, नीच, कोल, भील, किरात इत्यादि सभी राम का नाम लेने से पवित्र हो जाते हैं, यह बात सारे संसार में प्रसिद्ध है.)
तुलसीदास को इन जातियों के बारे में कहां से पता चला? इस के पहले न भी जाएं तो यह तो कोई भी समझा सकता है कि उस वक्त जातियां थीं. लेकिन जैसा कि ऊपर बताया गया कि जातिवाद दम तोड़ रहा था जिसे जिलाने के लिए तुलसीदास ने रामचरितमानस की रचना की.
सरिता के ही एक लेख ‘ब्राह्मण, धर्म और हिंदू समाज’ के निम्न अंश इस गड़बड़ ले को समझाने में बहुत सहायक होंगे-
- जिसे सामान्यतया हिंदू धर्म कहा जाता है उसे पौराणिक ब्राह्मण धर्म कहना चाहिए. ब्राह्मण अर्थात भारत में प्रचलित पौराणिक धार्मिक विश्वासों और सिद्धांतों के प्रवर्तक व्याख्याता. यह समाज का एक छोटा सा किंतु अतिप्रभावी हिस्सा है. असल में ब्राह्मण धर्म पर होने वाले प्रहार, जो असल में धर्म की पोल खोलना होता है, को समाजविरोधी बताने की रणनीति बड़ी धूर्ततापूर्ण है. विरोध उस वर्ग से है जो समाज को घुन की तरह खा रहा है.
धर्म की आलोचना की जाए तो तुरंत हल्ला मचा दिया जाता है कि राष्ट्रद्रोह हो रहा है और करने वाला तय है नास्तिक वामपंथी या अर्बन नक्सली है. सीधेतौर पर बोलने की आजादी का गला घोंटा जा रहा है. किसी भी कर्मकांड या भाग्यवाद की आलोचना करना और उसे अतार्किक व अवैज्ञानिक बनाना भी इन दिनों देशद्रोह करार दिया जा चुका है तो सहज समझा सा सकता है कि देश एक वैचारिक विस्फोट के मुहाने पर खड़ा हुआ है. इस विस्फोट के मूल में जातिवाद ही है जो सत्ता हथियाए रखने के लिए रचा गया था.
क्यों बदले ताड़ना के माने
फरवरी के महीने में ही मानस के उस दोहे की खूब चर्चा हुई थी जिस में ‘ढोल गंवार शूद्र पशु नारी, सकल ताड़न के अधिकारी’ का उल्लेख है.
इस दोहे की बखिया उधेड़ता लेख जब 60 के दशक में सरिता में प्रकाशित हुआ था, खासा विवाद देश में हो गया था. सरिता को हजारों आपत्तियां चारों कोनों से मिली हुई थीं. सरिता ने सभी की आपत्तियों के उत्तर धारावाहिक रूप में छापे थे. बाद में ‘हिंदू समाज के पथभ्रष्टक तुलसीदास’ नाम की किताब विश्व विजय प्रकाशन ने प्रकाशित की थी जिस की बहुत बिक्री हुई और अब भी इस की बहुत मांग है लेकिन पुस्तक मेलों में इसे बेचने पर एक तरह का अघोषित प्रतिबंध लगा दिया जाता है. इस पुस्तक में अधिकतर सरिता में प्रकाशित लेख हैं. हालिया विवाद के बाद हर किसी द्वारा इस दोहे के अर्थ को तोड़मरोड़ कर पेश किया जाने लगा है और यह भी कहा जाने लगा है कि मूल दोहा ऐसा नहीं ऐसा था और उस में ताड़ना का अर्थ यह नहीं, वह था.
एक तरह से यह बचाव ही था कि मानस शूद्रविरोधी ग्रंथ नहीं है. इस दोहे को ले कर वरिष्ठ पत्रकार दिलीप मंडल ने एक लेख लिखा था कि कैथोलिक चर्च को यह मानने में साढ़े तीन सौ साल लग गए जो कौपरनिकस, गैलेलियो और ब्रूनो कह रहे थे कि धरती स्थिर नहीं है बल्कि सूर्य के चारों और परिक्रमा करती है. आस्था और विज्ञान के बीच चले लंबे संघर्ष के बाद चर्च और वैटिकन ने आखिरकार मान लिया कि धरती घूमती है और ऐसा कहने वाले वैज्ञानिकों और विद्वानों से सार्वजनिक माफी मांगी. मैं यह देख कर दंग रह गया कि उत्तर भारत के सब से लोकप्रिय धार्मिक ग्रंथ रामचरितमानस की सब से विवादास्पद पंक्तियों ‘ढोल गंवार शूद्र पशु नारी, सकल ताड़ना के अधिकारी’, में ताड़ना के अर्थ को अब बदल दिया गया है. रामचरितमानस को 16वीं सदी में तुलसीदास ने लिखा था.
इस की एक करोड़ से ज्यादा प्रतियां प्रकाशित हो चुकी हैं. हिंदू धर्म की पुस्तकें प्रकाशित करने वाला रामचरितमानस भी प्रकाशित करता है. सैकड़ों अनुवादकों के अनुसार उस का अनुवाद संस्कृत से किया और सभी अनुवादों की भाषा एक ही है. ताड़ना का अर्थ सभी संस्कृत ज्ञानियों ने पीटना या मारना ही कहा है. गीता प्रैस, गोरखपुर रामचरितमानस का सब से बड़ा प्रकाशक है. ?उरखंड में यात्रा करते समय मु?ो गीता प्रैस की 1953 में प्रकाशित रामचरितमानस की कौपी मिली. उस में मूल अवधि भाषा की रचना और हनुमान प्रसाद पोद्दार (1892-1971) द्वारा किया गया उस का हिंदी अनुवाद व उस की व्याख्या है. इस में ताड़ना के लिए दंड का इस्तेमाल किया गया है. ढोल गंवार शूद्र पशु और नारी, ये सब दंड के अधिकारी हैं. लेकिन कहा जा रहा है, गीता प्रैस द्वारा प्रकाशित जो रामचरितमानस 2022 से बाजार में है उस में ताड़ना शब्द का मतलब बदल दिया गया है.
अब इन सभी को शिक्षा का अधिकारी बताया गया है. दिलीप मंडल की इस विषय पर अपनी राय है पर यह साजिश सदियों से रची जा रही है और आज वोटों व दक्षिणा के लिए यह ढिंढोरा पीटा जा रहा है कि हम तो इन वंचितों की शिक्षा की हिमायत करते रहे हैं. गोया कि दलित और औरतें इन के रहमोकरम से शिक्षित हुए हैं और फिर ढोल व पशुओं को पढ़ाने की कौन सी तकनीक विकसित हो गई, वह ये जानें या इन का भगवान जाने. यहां यह भी सोचने की बात है कि औरतों से अर्थ क्या है, क्या औरतों का अर्थ सवर्ण औरतें ही नहीं. शूद्र शब्द में शूद्र पुरुष व स्त्री आ गए हैं. इसी तरह पशु में नर व मादा दोनों हैं. दरअसल रामचरितमानस में सवर्ण औरतों को भी पशुओं और शूद्रों की बराबरी पर रखा गया है जो तुलसी और श्रेष्टि वर्ग के स्त्रीविरोधी संस्कारों को उजागर करता है. तुलसी की नजर में औरत क्या है, आइए, सरिता के ही एक अन्य लेख
‘‘तुलसी साहित्य : अनुवादों की सफल नुमाइश के सिवा क्या है’’ में देखें-
नारि सुभाऊ सत्य सब कहहीं अवगुण आठ सदा उर रहहीं साहस, अनृत, चपलता, माया भय, अविवेक, असौच, अदाया -लंका काण्ड मतलब बहुत साफ है कि स्त्रियों के 8 अवगुण हैं- जरूरत से ज्यादा साहस, ?ाठ बोलना, चंचलता, माया रचना, डरपोक होना, अविवेकी यानी मूर्ख होना, निर्दयता और अपवित्रता.
ऐसे कई दोहे देख लगता है कि तुलसीदास औरतों की भी बेइज्ज्ती का कोई मौका चूके नहीं हैं, बल्कि उन्होंने जानबूझ कर ऐसे कई मौके पैदा किए हैं. यह औरत सवर्ण परिवारों की औरतें ही हैं जो घर व बाहर सब की सेवा करती हैं, बच्चे पैदा करती हैं, रसोई देखती हैं, फिर भी उन्हें लांछनें मिलती हैं.
रामचरितमानस जैसे धर्मग्रंथों को आदर्श मान लेने का नतीजा है कि सभ्य और आधुनिक समाज में भी औरतें नुमाइश की चीज हो कर रह गई हैं. उन के पास महंगेमहंगे कपड़े और गहने हैं पर असल में उन की हैसियत दोयम दरजे व जरूरतें पूरी करते रहने भर की हैं. अच्छे घरों की औरतें भी जराजरा सी बात के लिए पति की अनुमति लेती नजर आती हैं.
दिलीप मंडल का एक ट्वीट भी बीते विवाद के दिनों में सुर्खियों में रहा था जिस में उन्होंने लिखा था, ‘तुलसीदास ने रामचरितमानस में ठाकुरों के साथ जो किया है वह मैं तभी बताऊंगा जब क्षत्रिय महासभा इस के लिए मु?ा से अनुरोध करेगी और मानदेय देगी, वरना मु?ो क्या है. आज ठाकुर उच्च न्यायपालिका, मीडिया, बिजनैस, कला, साहित्य, फिल्म, उच्च नौकरशाही से जिस तरह लापता हैं, उस के सूत्र तुलसीदास की रामचरितमानस में हैं. ‘रामचरितमानस में ठाकुर राजा सांस भी ब्राह्मण की आज्ञा से लेता और बारबार पैर छूता है पर मैं ऐसे बताऊंगा नहीं या बता दूं?’
इस ट्वीट पर यूजर्स ने खूब कमैंट किए जो ठाकुरों की दुर्दशा को उजागर करते हुए थे. बारीकी से देखें तो वैश्य भी कम दुर्दशा के शिकार नहीं हैं जो भेड़ों की तरह ब्राह्मणों के निर्देशों के पीछे अब फिर चल रहे हैं. देश में दिनरात हायहाय धर्म और जातिपांति की ही हो रही है. महंगाई, भ्रष्टाचार और बेरोजगारी जैसे सामयिक मुद्दों से किसी का कोई वास्ता नहीं रह गया है. यही वह खूबी है जिस ने प्रबुद्ध और जागरूक वर्ग का ध्यान हालात से मोड़े रखा.
पर जाति का क्या होगा
सियासी लिहाज से रामचरितमानस विवाद का ऊंट किस करवट बैठेगा, यह अभी नहीं कहा सकता लेकिन सामाजिक तौर पर अंदरूनी उथलपुथल मच चुकी है. हर कोई अपनी पहचान और पहुंच को ले कर फिक्र में है. बिहार में जाति आधारित जनगणना से भगवा गैंग के माथे पर सिलवटें हैं क्योंकि सवर्णों और ब्राह्मणों के अगुआ होने की पोल अब खुलने लगी है. एक बार फिर ‘जिस की जितनी आबादी, उतनी उस की हिस्सेदारी’ की मानसिकता जोर पकड़ने लगी है. भाजपा कई दलित नेताओं से उन की मेहनत व बनाई जगह छीन चुकी है. इस में बसपा प्रमुख मायावती, आरपीआई के मुखिया रामदास अठावले और लोजपा चीफ चिराग पासवान के नाम अहम हैं. अठावले तो अभी भगवा रथ पर लटके हैं लेकिन चिराग न घर के रहे न घाट के. मायावती का हश्र तो अब शब्दों का भी मुहताज नहीं रहा जो रामचरितमानस विवाद पर मुंह में दही जमाए बैठी रहीं.
महाराष्ट्र में पिछड़ों से क्षत्रिय बने मराठाओं को शिंदे और ठाकरे गुटों में बांट कर कुर्कवंश को बांटने का काम किया गया है जिस में चचेरे भाइयों दुर्योधन और युधिष्ठर एकदूसरे को मारने पर लग गए. यही शिवशेना को समाप्त करने के लिए महाराष्ट्र में किया गया. रामचरितमानस विवाद से किसी का कोई तात्कालिक भला होगा, इस में संदेह है लेकिन यह तय है कि शूद्रों यानी दलित, पिछड़ों, आदिवासियों को एक बार फिर अपने गिरहबान में ?ांकने और आंकने का मौका तो मिला है कि वे किस पायदान पर खड़े हैं. यह ठीक है कि पहले के मुकाबले थोड़ी राहत उन्हें महसूस हो सकती है पर यह उन्हें कोई मौर्य नहीं सम?ा पाएगा कि यह राहत उन्हें उस संविधान में दिए गए शिक्षा और आरक्षण के अधिकारों की वजह से मिली है जिस से धर्म अब वापस लेने की चेष्टा कर रहा है. अब फैसला इन एकलव्यों के विवेक पर है कि दक्षिणा में पहले अंगूठा दें और बाद में जान दें या नहीं.