मैं पढ़ीलिखी हूं, नौकरी चाहती हूं, पेशा ताली बजाना हो सकता है. मैं भी हर इंसान की तरह समाज और आसपास के लोगों से इज्जत चाहती हूं. हमें कोई शौक नहीं है टे्रेन में, रास्ते में, सिग्नल पर इधरउधर भागने का, वेश्यावृत्ति करने का. हम में भी हुनर है, हम हर वह काम कर सकते हैं जो आम लड़के या लड़कियां कर सकती हैं. ऐसे कितने ही शब्दवाक्य कहे जा रही थी ट्रांसजैंडर भाविका पाटिल. ग्रेजुएशन कर चुकी भाविका की आंखों से लगातार गिरते आंसू उस के दर्द को बयां कर रहे थे. उस ने सालों ऐसा झेला है लेकिन कुछ समय पहले यशराज के वाई फिल्म्स बैनर ने 6 पैक बैंड के जरिए इन का म्यूजिक अलबम रिलीज किया तो इन्हें भी सैलिब्रिटी जैसा सम्मान मिला.
भाविका उन 6 ट्रांसजैंडर मैंबर्स में से एक है जिसे अपने संगीत के हुनर को दिखाने का अवसर मिला. इस के अलावा चांदनी सुवर्णनकर, रविना जगताप, आशा जगताप, फिदा खान, कोमल जगताप आदि ट्रांसजैंडरों को इसी अलबम के जरिए गायक सोनू निगम के साथ मिल कर गाना गाने का मौका मिला. यह इन के लिए बड़ी उपलब्धि थी.
दरअसल, विश्व के सभी समाजों में स्त्री और पुरुष के रूप में केवल 2 लिंगों को ही मान्यता दी गई है. समाज द्वारा स्त्री और पुरुष की लैंगिक पहचानों से परे जो भी है उसे थर्डजैंडर की संज्ञा दी गई. यह वर्ग संसार के सभी समाजों में कहीं कम तो कहीं ज्यादा के अनुपात में शोषण और अवहेलना का शिकार होता आया है. जन्म से ही इन्हें स्वीकारा नहीं जाता, इसलिए ये अपने जैसे लोगों को ढूंढ़ कर उन के साथ रहते हैं.
आर्थिक व सामाजिक ढांचा
थर्डजैंडर को ‘हिजड़ा’ कह कर भी बुलाया जाता है. रामायण और महाभारत काल से ये हमारे समाज में हैं. मुसलिम शासक इन्हें वफदार मानते थे. अकसर इन को हरम की सुरक्षा की जिम्मेदारी सौंपी जाती थी. हिजड़ा या किन्नर के बारे में यह कहा जाता है कि ये सभी जन्मजात नहीं होते. कई बार इन्हें जबरन किन्नर बना दिया जाता है. ऐसे अनेक गिरोहों का भी परदाफाश हुआ है जो बच्चों और जवानों को किन्नर बना कर इन को जिस्मफरोशी व भीख मांगने जैसे धंधों में ढकेल देते हैं.
हिजड़ा समुदाय की आर्थिक और सामाजिक स्थिति बहुत ही दयनीय है. इस की वजह समाज और सरकार द्वारा बरसों तक इन्हें नागरिक होने के अधिकार से वंचित रखना है. इसी धरती पर जन्म लेने के बावजूद इन के होने, इन के वजूद का कोई रिकौर्ड नहीं होता. भारत सरकार द्वारा कराए गए एक सर्वे के अनुसार, देश में 4.9 लाख किन्नर हैं. यह समाज पिछड़ेपन का शिकार है जहां शिक्षा न के बराबर है. 12वीं पास फिदा खान कहती है, ‘‘बचपन से मुझे कुछ अच्छा करने की धुन थी. मैं स्कूल गई, पढ़ाई में अच्छी थी पर मेरे हावभाव का सभी मजाक उड़ाते थे. फिर मैं ने स्कूल जाना छोड़ दिया. घर से ही शिक्षा पूरी की. आगे पढ़ना चाहती थी पर लोगों के नजरिए से परेशान हो कर मैं ट्रांसजैंडर बन गई और शादीब्याह में गाना गाती थी. जब मुझे वाई फिल्म्स से औडिशन के लिए बुलाया गया तो मुझे लगा कि ये लोग हमें बेवकूफ बना रहे हैं. लेकिन जब सबकुछ पता किया तो वाकई यह बड़ी बात थी कि मैं गा सकती हूं और अपनी प्रतिभा को आगे बढ़ा सकती हूं. मैं कजीना, सांताक्रूज, मुंबई की रहने वाली हूं. मैं अपने परिवार के साथ रहती हूं. वे भी बहुत खुश हैं, उन लोगों ने मुझे टीवी पर देखा है. मैं हिंदी के अलावा अंगरेजी में भी गाना गा सकती हूं. अभिनय का मौका मिले तो अभिनय भी कर सकती हूं.’’
15 अप्रैल, 2014 को सुप्रीम कोर्ट द्वारा किन्नरों को तीसरे लिंग के रूप में स्वीकृति प्रदान करने के बाद भी इन के समुदाय में कोई खास बदलाव नहीं आया. शैक्षिक संस्थाएं हिजड़ों को दाखिला देने से कतराती हैं, क्योंकि उन्हें लगता है कि उन के शिक्षा संस्थान की साख पर असर पड़ेगा, छात्रों पर बुरा प्रभाव पड़ेगा. यही वजह है कि न तो इन्हें ढंग की कोई नौकरी मिलती है, न ही समाज इन्हें स्वीकारता है. नाचगाने के अलावा इन के पास कमाने का कोई साधन नहीं. उस में जरूरतभर की इनकम न होने की वजह से ये भीख मांगने और वेश्यावृत्ति में लिप्त हो जाते हैं. इन लोगों में इस वजह से एड्स पीडि़तों की संख्या लगातार बढ़ रही है. बाजार, महल्ला, सड़क, ट्रेनों आदि में भारीभरकम आवाज, जोरजोर से तालियां बजाते, अभद्र भाषा का प्रयोग करते इन किन्नरों से हर व्यक्ति पीछा छुड़ाना चाहता है. कोई इन के दर्द को सुनना या महसूस करना नहीं चाहता.
पेट का सवाल है
कल्याण, मुंबई की रहने वाली 35 वर्षीया चांदनी सुवर्णनकर कहती है, ‘‘मैं पढ़ीलिखी नहीं हूं. शादीब्याह हो या बच्चा होने पर बधाई देने के लिए जाती थी. वहां नाचगाना कर जो पैसा मिलता था, उसी से पेट भरती थी. यहां आने के बाद परिवार मिला है. मैं गाती थी पर इतना अच्छा, पता नहीं था. लोगों को मेरा गाना पसंद आया है. लोगों का नजरिया भी बदला है. हम लोग भड़कीले और चमकीले कपड़े पहन कर इसलिए ट्रेन में मांगते हैं कि लोगों की नजर पड़े. मैं अकेली रहती हूं छोटे से कमरे में. परिवार मुझे सहयोग नहीं देता. हम बहुत ही सामान्य लोग हैं और सामान्य तरीके से जीना चाहते हैं.’’
मुंबई के विरार इलाके की रहने वाली भाविका पाटिल यहां आने से पहले फिल्मों, टीवी में छोटामोटा अभिनय किया करती थी. वह कहती है, ‘‘4-5 साल से काम कर रही हूं, पर कहीं मुख्य भूमिका नहीं मिली. इस बैंड की मैं एक सिंगर हूं. कई बार औडिशन के बाद मैं यहां पहुंची हूं. इस अलबम के बाद मेरी दुनिया ही बदल गई. ट्रांसजैंडर को इतना बड़ा मौका दिया जाना बड़ी बात थी. मैं अपने परिवार के साथ रहती हूं. परिवार से काफी अटैच्ड हूं.’’
भाविका को कब पता चला कि वह ट्रांसजैंडर है, इस बात पर वह मायूस हो कर कहती है, ‘‘जब मैं चौथीपांचवीं कक्षा में थी तो शर्टपैंट पहन कर स्कूल जाती थी. वहां स्कूल में बच्चे मेरा मजाक उड़ाते थे. मेरी मां मुझे सोसायटी के बच्चों के साथ खेलने नहीं देती थीं. इस के लिए मैं हमेशा पूछती थी कि ‘मां, मैं कैसी हूं कि लोग मुझे ऐसे चिढ़ाते है, मैं कौन हूं?’ यह मेरी गलती नहीं है कि मैं ऐसी हूं. थोड़ी बड़ी होने के बाद मैं समझ गई. और घर में रह कर ओपन यूनिवर्सिटी से बीए की पढ़ाई पूरी की. आज मेरी मां बहुत खुश हैं. वे कहती हैं, ‘मेरा बच्चा ऐसा हुआ तो क्या हुआ, टीवी पर आता है.’ ड्रैस सैंस मैं ने मां से ही सीखी है. मेरे पिता ने भी मुझे बहुत सहारा दिया.’’
भाविका आगे कहती है, ‘‘लोग हमें जोकर मानते हैं. मैं जोकर नहीं. मेरा परिवार है, मैं चाहती हूं कि पूरे विश्व की धरोहर जो युवा हैं, बच्चे हैं उन के अंदर मातापिता, दादादादी, नानानानी अच्छे भाव भरें, उन के दिलों में हमारे प्रति सम्मानभरी बातें भरें, उन के मन में हमारे प्रति जो डर है वे निकाल दें. हम इंसान हैं, राक्षस नहीं. हमारे दिल में बहुत सारे दुख हैं जिन्हें हम किसी से शेयर नहीं कर सकते. मैं उसी दिन का इंतजार करूंगी जब हम भी समाज में सब के साथ रह सकें.’’
हम में हैं और भी हुनर
कोमल जगताप भी इस बैंड की मैंबर है. वही चांदनी और आशा जगताप को इस बैंड में लाई थी. वह कहती है, ‘‘शुरूशुरू में तो मुझे यकीन ही नहीं हुआ कि इतना बड़ा मौका मुझे मिल रहा है. हिजड़ों को इतनी तवज्जुह कोईर् देता है भला. पहला गाना रिकौर्ड होने के बाद यकीन हुआ कि हम केवल ताली ही नहीं बजा सकते. बहुत सारे हुनर हम में है. गाना गा सकते हैं, अभिनय कर सकते हैं वगैरहवगैरह. आज हम सैलिब्रिटी बन चुके हैं. कहीं जाते हैं तो लोग पूछते हैं कि आप ही सिंगर हो न उस बैंड की? बहुत अच्छा लगता है. आगे भी कुछ अच्छा करने की इच्छा है. पर सब का साथ जरूरी है.’’ यह सब कहतेकहते उस की आंखें भर आईं.
किन्नर बच्चे के जन्म पर परिवार वाले भी अधिकतर उस का साथ नहीं देते, क्योंकि वे निर्धारित स्त्रीपुरुष की श्रेणी से अलग पहचान रखते हैं. यह सही है कि किन्नरों का जन्म चिकित्सकीय समस्या नहीं है. ये पुरुष होते हुए भी अपनेआप को महिला समझते हैं, क्योंकि इन के माइंड और बौडी इन के बायोलौजिकल सैक्स को स्वीकार नहीं करते.
स्त्री एवं प्रसूति रोग विशेषज्ञ डा. मेघना सरवारिया इस बारे में बताती हैं, ‘‘ट्रांसजैंडर वाले बच्चों का पता जन्म से पहले नहीं चल पाता. जन्म के बाद ही कभी जल्दी तो कभी एक उम्र के बाद ही पता चलता है. यह जैनेटिक समस्या नहीं. विज्ञान अभी तक इस बारे में जानकारी नहीं रखता, पर इतना सच है कि ऐसे बच्चे में महिला हारमोन अधिक होते हैं. इस में कुछ पुरुष हो कर भी महिलाओं के जैसे आचरण करते हैं जिसे ट्रांसजैंडर कहते हैं. जबकि कुछ लोग सैक्सुअली भी स्थायी रूप से बदलाव चाहते हैं और सर्जरी के लिए जाते हैं. उन्हें ट्रांस सैक्सुअल कहते हैं. इन लोगों के लिए अलग तीसरा जैंडर होने की आवश्यकता है, तभी ये आगे बढ़ सकते हैं, क्योंकि मानसिक तौर पर ये फिट होते हैं. ये हर तरह के काम कर सकते हैं.’’
ट्रांसजैंडर लोगों के बीच हुए कुछ अध्ययनों में उन के यौन झुकाव के बारे में पता चला है कि पूरी आजादी में उन का आकर्षण तुलनात्मक रूप से समान लिंग के लोगों की ओर ही होता है. ट्रांसजैंडर होना किसी भी तरह से यौन विकृत से संबंधित नहीं होता और न ही इस से पता चलता है कि व्यक्ति विषमलिंगी, द्विलिंगी या समलैंगिक है. लड़के और लड़कियों जैसे विभिन्न लिंगों के व्यक्तियों के आकर्षण के बावजूद भी व्यक्ति ट्रांसजैंडर हो सकते हैं.
हिजड़ों को सब से पहले जिस बात की आवश्यकता है वह है समाज के संवेदनशील होने की, उन्हें स्वीकारे जाने की. कागजी सुधारों से अधिक उम्मीद करना व्यर्थ है. हालांकि, एकाध उदाहरण ऐसे हैं जहां ट्रांसजैंडरों को नौकरी मिली, उन्हें मुख्यधारा से जोड़ने की कोशिश की गई.
पश्चिम बंगाल के एक महिला महाविद्यालय में एक किन्नर की प्राचार्या के पद पर नियुक्ति की गई. हिसार, हरियाणा की शोभा नेहरू वर्ष 1995 में हुए नगर निगम चुनाव में पार्षद चुनी गई. राजस्थान के गंगानगर की किन्नर पार्षद बंसती मौसी, देश की पहली हिजड़ा विधायक शबनम मौसी, छत्तीसगढ़ के रायगढ़ जिले की मेयर मधु आदि सभी एक अच्छी कोशिश हैं पर इन की संख्या बहुत कम है.
बौलीवुड में भी इन की संख्या बहुत कम है. अगर इन्हें काम मिलता भी है तो छोटीमोटी भूमिका या फिर एक गाना, बस. इन को मुख्यधारा से जोड़ने के लिए सरकार को पर्याप्त कदम उठाने चाहिए. हिजड़ों के नाम पर आजकल कुछ लड़के फ्रौड हिजड़ा बन कर भी पैसा कमा रहे हैं. मैडिकल जांच के आधार पर रिकौर्ड बनाया जाना चाहिए, जिस से कि सभी संस्थाओं को कल्याणकारी काम करने में सुविधा हो. इस के अलावा कई सवाल इन के साथ जुड़े हैं. क्या इन की शादी हो पाएगी? क्या धर्म के नाम पर बंटे इस देश में इस समुदाय को स्वीकृति मिलेगी?
यह सही है कि यह सब समाज की देन है. आधुनिक समाज में इन्हें स्वीकारने के लिए जैंडर की परिभाषा को बदलना होगा. थर्डजैंडर को जीने की स्वतंत्रता देनी होगी. तभी इन के दर्द को कम किया जा सकता है, और तभी इन की दुनिया बदल सकती है.