दुनिया में सब से ज्यादा मवेशी भारत में हैं. यही नहीं, 50 करोड़ से ज्यादा पशुओं वाले हमारे देश में 8 से 10 फीसदी तक आवारा पशु हैं. आवारा पशुओं की कोई तय परिभाषा नहीं है. पर आमतौर पर आवारा पशुओं से मतलब उन पशुओं से है जिन का कोई मालिक नहीं होता. जो सड़कों में, गलियों में, खेतखलिहानों में भटकते रहते हैं. जहां कुछ पाया चर लिया, जिस ने कुछ फेंक दिया उसे खा लिया.
हम न सिर्फ दुनिया में सब से ज्यादा पालतू पशुओं वाला देश हैं, बल्कि दुनिया में सब से ज्यादा आवारा पशु भी हमारे यहां ही पाए जाते हैं. याद करिए अभी एकडेढ़ दशक पहले तक कैसे इंग्लैंड और आस्ट्रेलिया के क्रिकेट खिलाड़ी भारत में क्रिकेट खेलने के लिए आते समय नाकभौं सिकोड़ते थे क्योंकि उन्हें भारतीय शहरों की मुख्य सड़कों पर भटकते आवारा पशुओं को देख कर चिढ़ होती थी. इस से भारत बेतरतीब और बेढंगा नजर आता था.
क्यों हैं आवारा पशु
दर्जनों विदेशी सैलानियों ने सपेरों, साधुओं और समस्याओं के साथसाथ भारत को हर जगह भटकते आवारा पशुओं वाला देश भी कहा है. राजधानी नई दिल्ली में आयोजित राष्ट्रमंडलीय खेलों में तब रंग में भंग पड़ गया था जब विदेशी खिलाडि़यों ने भारतीय खेलगांव में आवारा कुत्तों के घूमने की शिकायत की और कई देशों के खिलाडि़यों ने इसी बिना पर तब तक खेलगांव आने से इनकार कर दिया था कि जब तक यह सुनिश्चित न हो जाए कि आवारा कुत्ते खेलगांव के इर्दगिर्द मंडराते नहीं दिखेंगे.
सवाल है एक पिछड़े, गरीब और भुखमरी से पीडि़त देश में इस कदर बड़ी तादाद में आवारा पशुओं के होने की आखिर क्या वजह है? हमारे देश में दुनिया में सब से ज्यादा आवारा कुत्तों से ले कर दुधारू गाय और भैसों तक के पाए जाने का एक बहुत बड़ा कारण धर्मभीरुता रही है.
हिंदुस्तान वह देश है जहां घरों में चूल्हा जलने के बाद सब से पहले गाय और कुत्ते के लिए रोटियां बनाई जाती हैं. यह हैरानी की बात नहीं है कि हमारे यहां शहरों से ज्यादा आवारा कुत्ते गांवों में पाए जाते हैं क्योंकि यह मान्यता है कि कुत्ते को खिलाने से हमारा पुण्य बंटता नहीं है और वह हमें स्वर्ग में ले जाने वाली सीढि़यों का सबब बनता है. शायद इस कहानी का एक धुंधला आधार महाभारत का वह प्रसंग है जिस में कुत्ता धर्मराज युधिष्ठिर के साथ स्वर्ग जाता है.
हमारे महानगरों में भी हमारी धार्मिक मान्यताएं धुंधली नहीं पड़ी हैं. यही वजह है इंजीनियर, डाक्टर, आईटी सैक्टर में काम करने वाले एग्जीक्यूटिव तक सुबह नंगेपैर, हाथ में रोटियां लिए गाय ढूंढ़ते मिल जाएंगे. धार्मिकता के चलते हमारे देश में आवारा पशुओं को कभी अपना पेट भरने में दिक्कत नहीं हुई. लेकिन यह गुजरे दौर का किस्सा है. जब लोगों में इतनी सहिष्णुता थी, आवारा पशुओं को ले कर इतनी संवेदना थी कि वे खाने से पहले, बतौर अपने फर्ज के, एक हिस्सा इन पशुओं के लिए निकालते थे, लेकिन अब ऐसा नहीं है. आज का आदमी न तो इतना भावुक है और न ही मासूम कि पापपुण्य के फेरे में पड़े. हां, इन दिनों गायों पर राजनीति खूब हो रही हैं.
बदतर होती हालत
लोगों में घटती संवेदनशीलता, बढ़ती व्यस्तता और खुद के उत्थान के लिए सिमटती प्रवृत्ति के चलते आवारा पशु अब बोझ बन गए हैं. आम लोगों के लिए भी, साथ ही उन नागरिक संस्थाओं के लिए भी जिन पर बीचबीच में आम लोगों की तरफ से यह जोर डाला जाता है कि उन्हें आवारा पशुओं से होने वाली परेशानियों से बचाएं. यही कारण है कि चाहे दिल्ली हो या इंदौर, रतलाम हो या रोहतक, हर जगह आवारा कुत्तों को पकड़ कर नसबंदी की जा रही है. उन्हें शहर से दूर छोड़ आने की घटनाएं बढ़ रही हैं. यह सब इसलिए होता है कि ये आवारा जानवर लोगों को परेशान न करें.
दिल्ली में हर साल तकरीबन 60 से 65 आवारा कुत्तों को नगर निगम पकड़ता है, उन की नसबंदी करता है और उन्हें शहर की सीमा से दूर छोड़ देता है. इस के पीछे 2 कारण होते हैं. एक तो यह कि आवारा कुत्ते जनसंख्या न बढ़ाएं और दूसरा मकसद यह होता है कि कुत्ते शहर के लोगों को परेशान न करें. मगर हम
2 चीजें भूल जाते हैं. एक यह कि शहर की सीमा से दूर छोड़े गए कुत्ते अगर शहर वालों को नहीं तो किसी और को परेशान करते ही हैं, तो क्या गांव के लोग या छोटे कसबों व बड़े महानगरों से सटे पिछड़े इलाकों को आवारा कुत्तों से किसी तरह की परेशानी नहीं होती होगी?
हां, शायद सिर्फ इसलिए क्योंकि उन की हैसियत बेहतर नहीं होती वरना नागरिक संस्थाएं शहर वालों के सिरदर्द को कम करने के लिए गांव व कसबे वालों के सिरदर्द को क्यों बढ़ाएं?
बहरहाल, आवारा पशुओं की करुण कहानी महज इतनीभर नहीं है कि अब लोग उन को खाना खिलाने के प्रति उदासीन हो रहे हैं, बल्कि यह भी है कि जैसे आज के उपभोक्ता दौर में तमाम चीजों को इस्तेमाल कर के उन्हें फेंक देने की प्रवृत्ति बढ़ी है उसी तर्ज पर आवारा पशु अर्थहीन हो गए हैं और अपनी महत्त्वाकांक्षाओं में उलझे लोगों के लिए बोझ बन गए हैं.
अनुत्पादक, बूढ़े, बीमार या विकलांग पशुओं की स्थिति तो और भी हृदयविदारक है. घर से बेघर इन पशुओं को सुबहशाम भी नहीं पूछा जाता. इन के जीवन के अंतिम दिन, मृत्यु की प्रतीक्षा में ही किसी चौराहे या सड़क के किनारे व्यतीत होते हैं. जिस मनुष्य ने पूरे जीवनभर उस की उत्पादकता का दोहन किया, वह अब पानी पिलाना भी जरूरी नहीं समझता.
भारत में जानवरों को पश्चिमी संस्कृति की तरह मास उत्पादन की नजर से नहीं देखा जाता रहा है. भारतीय लोकजीवन में पशु हमारी जीवनशैली का हिस्सा रहे हैं. भारतीय कृषक तो पशुओं के बिना अपनी जिंदगी के अस्तित्व को स्वीकार ही नहीं कर सकते. मगर जैसेजैसे जीवन बदल रहा है, जीवनशैली बदल रही है, पशुओं को ले कर पारंपरिक सोच भी बदल रही है.
पश्चिमी देशों में तो हमेशा से जानवर कारोबारी मानसिकता से देखे गए हैं या वे मांस अथवा दुग्ध उत्पादन के नजरिए से पाले गए हैं. इसलिए वहां असहाय होने से पहले पशुओं को निर्ममता से मांस में तबदील कर दिया जाना आश्चर्य नहीं पैदा करता. मगर भारत, जहां यह मान्यता हो कि मरने के बाद बैकुंठ जाने के लिए वैतरणी को गाय की पूंछ पकड़ कर ही पार किया जा सकता है, इसीलिए मरने के पहले लोग धार्मिक श्रद्धा से मरने वाले के लिए गाय का दान देते हैं, उस देश में उपयोगितारहित हो जाने पर पशुओं को आवारा या खुला छोड़ देना जिस से वह तिलतिल कर परेशानियों से मर जाए, हैरानी पैदा करता है.
मशीनीकरण के इस युग में ऊंट, गधा, बैल, बछड़ा आदि की उपयोगिता वैसे भी पहले के मुकाबले बहुत कम रह गई है. बोझ ढोना, खेत जोतना, यातायात आदि के लिए अब पशु अनुपयोगी होते जा रहे हैं. ऐसे में अर्थशास्त्र की कसौटी तो यही कहती है कि लावारिस होना और बोझ बनना इन पशुओं की नियति है.
आज के दौर में पशुओं को इसलिए भी उपयोगिता व अनुपयोगिता की कसौटी से कस कर देखा जाता है क्योंकि पशुओं में बड़ी तादाद में हुई जेनेटिक फेरबदल के कारण आज विदेशों में जानवर कहीं ज्यादा उपयोगी व लाभकारी हो गए हैं. जिस की तुलना में भारतीय पशु कहीं नहीं टिकते.
हमें लगता है कि विदेशी नस्ल की गायें जब एक दिन में 20-20 लिटर दूध देती हैं तो फिर 4- 5 लिटर दूध देने वाली भारतीय गायों का महत्त्व ही क्या है? यह भी सच है कि जिस तरह पशुओं के चारे की समस्या पैदा हुई, उस के चलते वह पशुपालक पर एक आर्थिक बोझ बन गया है. यही कारण है कि लोग पशुओं के पालने को घाटे का सौदा मानने लगे हैं.
लेकिन, बड़ी समस्या यह है कि पशुओं के प्रति हमारी सोच में जबरदस्त गिरावट आई है. जिस कारण पशु अब इस्तेमाल करो और फेंको के दायरे में आ गए हैं. अगर देश की कृषि अर्थव्यवस्था को मजबूत बनाए रखना है तो हमें पशुओं के प्रति संवेदनशील होना पड़ेगा और उन्हें बड़ी तादाद में आवारा होने से बचाना होगा, वरना पशुओं की यह करुण कहानी 21वीं सदी में भारतीय समाज की एक दारुणगाथा बन कर रह जाएगी.