समीक्षा ने शादी के सालभर बाद ही अपने पति से तलाक ले लिया. अब वो खुश है और अपने फैसले से संतुष्ट भी है. उसका मानना है कि जिस रिश्ते से उसे सुख और शांति नहीं मिल रही थी, उस रिश्ते को बोझ बनाकर ढोने से क्या फायदा था? खैर, अब वो अपने मायके में है और नौकरी भी कर रही है. हाल ही में एक विवाह समारोह में मैं उससे मिली.  हम दोनों की एक कॉमन फ्रेंड की शादी थी और हम दोनों को ही उसकी शादी में जरूर से जाना था.

वहां जब मैंने उससे पूछा कि वो अपनी साल भर पुरानी शादी के टूटने के बारे में लोगों को क्या कहेगी, तो उसने बहुत आत्मविश्वास से कहा - ‘जिन्दगी मेरी है, और तलाक इसका अंत नहीं है.’
सुनकर अच्छा लगा कि बाकियों की तरह वो खुद को घर में बंद कर के जीना नहीं छोड़ना चाहती हैं.

'तलाक' शब्द शादीशुदा जिन्दगी के ऊपर लगा एक ऐसा दाग होता है जिसे तलाक लेने वाला भूलना भी चाहे तो समाज उसे भूलने नहीं देता है. लोगों के तरह-तरह के सवाल आपके फैसले पर और आप पर जलते अंगारों की तरह पड़ते रहते हैं.
‘अब क्या करोगी?’, ‘शादी जैसी भी हो तोड़नी नहीं चाहिए थी’, ‘लड़की हो, अकेले कैसे गुजारा करोगी?’ जैसे तमाम सवाल तलाकशुदा को जीने नहीं देते.

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हमारे समाज में शादी को एक टैबू की तरह प्रयोग में लाया जाता हैं. खासतौर पर जब बात लड़कियों की हो, तब विवाह अपेक्षाकृत जरूरी माना गया हैं. शादी को जरूरी इसलिए मानते हैं क्योंकि हर इंसान को एक साथी की जरूरत होती हैं. जो मानसिक तौर पर, भावात्मक रूप से, आर्थिक स्थिति में और कठिन परिस्थितियों में उसके साथ खड़ा रह सके. समाज शादी को इसलिए ज्यादा अहमियत देता है ताकि बेटियों को एक सम्मानजनक और ठोस जीवन जीने की सुविधा मिल सके. लेकिन जब यही शादी लड़कियों के लिए जी का जंजाल बन जाए तो इस शादी के बंधन से वो बाहर निकलना ही उचित समझती हैं. यह अफसोस की बात है कि शादी टूटने के पीछे लड़कियां दोषी हों या निर्दोष हों, समाज के लोग उसे साधारण नजरों से देखना बंद कर देते हैं. ऐसा लगता है जैसे वो इंसान नहीं एलियन हो गई हों. एक तरफ जहां लड़की अपनी टूटी हुई शादी का दंश झेल रही होती है, वहीं दूसरी तरफ लोगों के सवालों की बौछार उसके मनोबल को तोड़ने का काम करते हैं.

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