मन में लगन हो, हिम्मत हो और साथ ही कुछ करने का जज्बा भी तो इंसान कुछ भी कर सकता है. कुछ लोग लगन और हिम्मत से आगे बढ़ते तो हैं लेकिन जज्बे की कमी से मंजिल तक या कहिए अपने उद्देश्य तक नहीं पहुंच पाते. लेकिन फूलबासनबाई यादव ऐसी नहीं थीं. उन्होंने जो किया, किसी के लिए भी प्रेरणादायक हो सकता है.
एक समय ऐसा भी था, जब गरीबी के मारे फूलबासनबाई के पिता अपने बच्चों से कह देते थे, ‘आज एक ही वक्त खाना मिलेगा.’ कई बार तो खाने में डालने के लिए घर में नमक तक नहीं होता था और कभीकभी बिना खाने के ही कईकई दिन गुजारने पड़ते थे. कपड़ा अगर एक बार ले लिया तो साल भर उसी में गुजरता था.
12 साल की उम्र में फूलबासनबाई की शादी एक चरवाहे से कर दी गई. उम्र इतनी कम मानो कुएं में धक्का दे दिया गया हो. कुछ ही सालों में फूलबासनबाई 4 बच्चों की मां बन गईं पर घर के हालात नहीं सुधरे. गरीबी का आलम यहां भी मायके जैसा ही था. जब कभी बच्चों को खाना नहीं मिलता तो फूलबासनबाई की आंखें बरसने लगतीं.
बच्चों को दो वक्त का खाना देने के लिए घरघर जा कर अनाज मांगती पर उस पर कोई रहम नहीं खाता, न किसी को उस की मजबूरी नजर आती.
विपरीत परिस्थितियों को अवसर मान कर फूलबासनबाई ने मन ही मन फैसला किया कि अब वह गरीबी, कुपोषण, बाल विवाह जैसी सामाजिक कुरीतियों से लड़ेंगी. लेकिन स्थितियां फूलबासन का साथ देने वाली नहीं थीं. फिर भी उन्होंने महिलाओं का एक संगठन बनाने का फैसला किया. पति को पता चला तो वह भी विरोध पर उतर आया.