सीमापार के आतंकियों के साथ स्थानीय युवाओं का घालमेल, विस्फोटकों की भारी खेप का आना और हमारी इंटैलिजैंस एजेंसियों को इस की भनक तक न मिलना देश की सुरक्षा के लिए चिंता का विषय है. सरकार को अब सोचने की जरूरत है कि हम कहां और क्यों चूक रहे हैं.
14 फरवरी के दिन को दुनिया प्यार के त्योहार के रूप में मनाती है, मगर इसी दिन पुलवामा में पाकिस्तान की सरपरस्ती में फलफूल रहे आतंकी संगठन जैश ए मोहम्मद के आतंकी आदिल अहमद डार ने नफरत और हिंसा का जो तांडव किया, उस से पूरा देश आक्रोशित है. देशभर में बदला लो के
स्वर गूंज रहे हैं. पुलवामा में सीआरपीएफ के काफिले पर हुए हमले में 40 जवान शहीद हो गए. जवानों के शवों को देख कर हर आंख भीग गई. हर जबान से यही निकला कि बस, अब बहुत हुआ. अब इन आतंकियों को छोड़ना नहीं है.
देश के गृहमंत्री राजनाथ सिंह ने शहीद जवानों के ताबूतों को जब कंधा दिया, वह पल पूरे देश को रुला गया. पुलवामा की घटना और इस से पहले हुई दूसरी घटनाएं कई सवालों को जन्म देती हैं. कई राजनेताओं ने पुलवामा की घटना को मोदी सरकार की विफलता करार दिया है तो कई इसे खुफिया विभाग की नाकामी बता रहे हैं.
जम्मूकश्मीर की मुफ्ती सरकार के गिरने के बाद से वहां राष्ट्रपति शासन लागू है, ऐसे में राज्य की सुरक्षा की पूरी जिम्मेदारी केंद्र सरकार की है. देश में इस समय चुनावी माहौल है. हर विपक्षी नेता इस वक्त केंद्र की मोदी सरकार को घेरने में लगा है. ऐसे में इस तरह की घटना ने प्रधानमंत्री की मुश्किलें बढ़ा दी हैं. पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने तो सवाल उठा दिया है कि चुनाव से ऐन पहले यह घटना क्यों हुई? ममता का इशारा किस की तरफ है, यह स्पष्ट है.
गौरतलब है कि एलओसी में लश्कर ए तैयबा और जैश ए मोहम्मद जैसे आतंकी संगठनों की गतिविधियां जाड़े की शुरुआत के साथ ही तेज हो जाती हैं. बर्फबारी के दौरान जब चारों ओर सन्नाटा पसर जाता है, वह वक्त भारत में आतंकी घुसपैठ के लिए सब से माकूल होता है. यह समय खुफिया एजेंसियों के सब से ज्यादा चौकस रहने का होता है.
खुफिया खबर थी कि दिसंबर महीने में सीमापार से 21 आतंकी कश्मीर में घुसपैठ कर चुके हैं, जिन की तलाश जारी है. इन में से 3 खूंखार आतंकी आत्मघाती हमला करने में माहिर हैं. हो सकता है पुलवामा अटैक करने वाला आदिल अहमद डार उन में से ही एक हो, जिस ने 14 फरवरी को सीआपीएफ की बस से आरडीएक्स से भरी अपनी मारुति ईको वैन टकराई.
जिस आदिल अहमद डार का नाम आतंकी के रूप में सामने आया है, वह पुलवामा का ही निवासी था. उस का पिता गुलाम हसन डार पुलवामा में घरघर जा कर कपड़े बेचने का काम करता है. गरीब परिवार का आदिल अपने भाई समीर डार के साथ पिछले साल मार्च से गायब था. स्थानीय थाने में उस की गुमशुदगी दर्ज है, मगर उसे ढूंढ़ने की कोशिश स्थानीय पुलिस ने नहीं की.
आदिल जैसे कितने स्थानीय लड़के आतंकी संगठनों के साथ मिल गए हैं, कितने रोजीरोटी की तलाश में राज्य से बाहर पलायन कर गए हैं, इस की कोई पुख्ता जानकारी स्थानीय पुलिस, सेना या खुफिया विभाग को नहीं है. यह हमारी नाकामी और नाकारी है.
पत्थरबाजों पर नकेल जरूरी
इस में शक नहीं कि जम्मूकश्मीर में पाकिस्तान से सहानुभूति रखने वालों की कमी नहीं है. पाकिस्तान अधिकृत कश्मीर से इन लोगों को हथियार और बारूद मिलता है. आतंकी संगठन यहां के स्थानीय युवाओं के संपर्क में रहते हैं और इन को कई तरह के लालच दे कर, धर्म का वास्ता दे कर, जिहाद की बातें कर के बरगलाने का काम करते हैं ताकि आतंकियों के खिलाफ कोई कार्यवाही होते ही इन स्थानीय युवकों के जरिए प्रतिक्रिया पैदा की जा सके और शहर में गड़बड़ी फैलाई जा सके.
यही वे लोग हैं जो सेना और पुलिस पर पत्थर फेंकते हैं. यही वे लोग हैं जिन के जरिए आतंकी हमले कराए जाते हैं.
जम्मूकश्मीर के अंदरूनी हालात खराब हैं, मगर इस का सटीक अंदाजा केंद्र सरकार को नहीं है. सेना एक आतंकी को मारती है, और उस की जगह 4 पैदा नहीं हो जाते हैं, इस की क्या गारंटी है. पुलवामा में 40 जवानों की शहादत सामूहिक रूप से सामने आई है, तो हम चौंक रहे हैं. जब मौतें इकट्ठा होती हैं तो संख्या बड़ी दिखती है. संवेदना ज्यादा उपजती है, मगर पिछले करीब 4 वर्षों से कश्मीर में औसतन हर हफ्ते एक सैनिक मर रहा है और उस की लाश खामोशी से ताबूत में रख कर उस के घर भेज दी जाती है. कहीं कोई संवेदना नहीं उपजती.
हमले कैसे हो रहे हैं? सीमा को पार कर के आतंकी क्यों घुस पा रहे हैं? इतनी भारी मात्रा में विस्फोटक सामग्री और हथियार कैसे आ सकते हैं? कश्मीरी युवा क्यों और कैसे आतंकी संगठनों की बातों में आ कर बहक रहे हैं? सवाल सैकड़ों हैं. अगर आतंकी हमलों का जिम्मेदार पाकिस्तान और उस की शह पर पनप रहे आतंकी संगठन हैं तो वे कामयाब क्यों हो रहे हैं, इस का जवाब हमें अपने से पूछना चाहिए. दुश्मन से आप कैसे उम्मीद कर सकते हैं कि वह आप को कोई नुकसान नही पहुंचाएगा? वह तो नुकसान पहुंचाने का मौका तलाशता ही रहता है. सवाल हमारी मुस्तैदी का है.
क्या जम्मूकश्मीर को ले कर हमारी राजनीतिक नीतियां दुरुस्त हैं? क्या हमारी खुफिया एजेंसियां ठीक काम कर रही हैं? क्या स्थानीय पुलिस चुस्त है? क्या सेना और अर्धसैनिक बलों को वे सभी सुविधाएं हासिल हैं, जिन के चलते वे हमारे बौर्डर की सुरक्षा पुख्ता कर सकते हैं?
पुलवामा हमले के बाद जम्मूकश्मीर के राज्यपाल सत्यपाल मलिक ने स्वीकार किया है कि लापरवाही हुई है. पूर्व सेनाध्यक्ष जनरल विक्रम सिंह भी मानते हैं कि कहीं न कहीं लापरवाही हुई है. उन्होंने कहा कि ऐसे हमले सतर्कता, स्टैंडर्ड औपरेशन प्रोसीजर का पालन कर के ही रोके जा सकते हैं.
साफ दिख रहा है कि इस केस में यह नहीं किया गया जबकि, हमले के बहुत स्पष्ट इनपुट मिले थे. अगर देश की सीमाओं को सुरक्षित करना है तो राज्यपाल सत्यपाल मलिक और पूर्व सेनाध्यक्ष जनरल विक्रम सिंह की इन बातों पर गहन चिंतन की जरूरत है.
खुफिया एजेंसियों पर सवाल
14 फरवरी को पुलवामा में आदिल अहमद डार विस्फोटकों से भरी मारुति ईको वैन ले कर निकला. उस ने सेना की बसों के समानांतर अपनी गाड़ी रखी और मौका पाते ही एक बस से अपनी गाड़ी टकरा दी. इस टक्कर में हम ने अपने 40 जवान खो दिए. लड़ाई के मोरचे पर खोए होते तो उन की वीरता और उन की शहादत पर देश का सीना गर्व से फूल जाता, मगर हम ने उन्हें अपनी गलती से खो दिया.
हमारी खुफिया फेल थी, इसलिए हम ने उन्हें खो दिया.
हमारी नीतियां फेल थीं, इसलिए हम ने उन्हें खो दिया.
हमारी राज्य पुलिस फेल थी, इसलिए हम ने उन्हें खो दिया.
जम्मूकश्मीर जो देश का सब से संवेदनशील इलाका है, जिस की सीमा पर आएदिन गोलाबारी होती है, जहां आतंकी घुसपैठ होती है, वहां हमारी खुफिया एजेंसियों का हाल यह है कि इतनी भारी मात्रा में विस्फोटक शहर में बिना किसी रोकटोक के पहुंच गया, और पुलिस का हाल यह है कि सेना की बसों के साथसाथ एक ऐसा व्यक्ति विस्फोटकों का जखीरा ले कर चल पड़ा जिस की गुमशुदगी की रिपोर्ट स्थानीय थाने में दर्ज है और किसी ने उस को नहीं पहचाना या किसी चैकपोस्ट पर उस की गाड़ी नहीं रोकी गईं, तो, इस से ज्यादा निकम्मापन और शर्मनाक क्या हो सकता है?
एक आम शहरी कब आतंकी बन जाता है? कब सीमापार के आतंकी गिरोहों के साथ उस की मीटिंग्स होने लगती हैं? कब हथियारों और विस्फोटकों का जखीरा उस के पास पहुंच जाता है? कब वह सेना की रेकी कर लेता है? कब वह गाड़ी में बारूद भर कर उन के साथ निकल पड़ता है? इन तमाम बातों की भनक आखिर देश की खुफिया एजेंसियों को क्यों नहीं लगी? इस का कोई जवाब न तो राज्य पुलिस के पास है, न ही राज्य के खुफिया विभाग के पास और न राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार के पास.
पुलवामा हमले के बाद देश की इंटैलिजैंस एजेंसियों पर सवाल उठने लगे हैं. आखिर हम कहां चूक रहे हैं, क्यों चूक रहे हैं? कहा तो यह भी जा रहा है कि राज्य पुलिस को कुछ खुफिया इनपुट मिले थे कि जवानों पर हमले हो सकते हैं, बावजूद इस के चैकिंग का काम ठप पड़ा था. खबर है कि पुलवामा हमले के लिए जैश पिछले एक साल से तैयारी कर रहा था. पर यह खबर कहां से आई, यह कोई नहीं बता रहा. हां, जैश ए मोहम्मद ने प्राइवेट ट्विटर अकाउंट पर 33 सैकंड का एक वीडियो भी जारी किया था, जिस में आतंकी हमले की संभावना जताई गई थी. इस वीडियो में सोमालिया का एक आतंकी गु्रप बिलकुल इसी अंदाज में सेना पर हमला करता नजर आ रहा है, जैसा कि पुलवामा में किया गया. इस वीडियो के आखिर में धमकीभरे अंदाज में बाकायदा कश्मीर का नाम लेते हुए कहा जा रहा है कि ‘इंशाअल्लाह, यही कश्मीर में होगा’. इस वीडियो में सुरक्षाबलों पर हमले की स्पष्ट चेतावनी थी, फिर भी इस हमले को रोक पाने में हम असमर्थ रहे.
गौरतलब है कि जम्मूकश्मीर में आतंक की शुरुआत 90 के दशक में हुई थी. 1990 से ले कर अब तक राज्य में आतंकी हमलों में 5,777 से ज्यादा जवान शहीद हो चुके हैं. सुरक्षाबलों की कार्यवाहियों में 21,562 आतंकी मारे गए हैं. इस के अलावा आतंकी हमलों में 16,757 नागरिकों की जानें जा चुकी हैं.
नियमों में ढील का नतीजा
पुलवामा में आत्मघाती हमले में जवानों के शहीद होने के बाद उन कारणों का पता लगाने की कोशिशें तेज हो चुकी हैं, जिन की भेंट देश के इतने सपूत चढ़ गए. इन में से एक बड़ा कारण है यातायात नियमों में ढिलाई बरतने का, जिस के चलते ही सुरक्षा में सेंध लगी. दरअसल, 2002-03 से पहले जवानों के काफिले को कड़ी सुरक्षा के बीच ले जाया जाता था. जब जवानों का काफिला रास्तों से गुजरता था, उस वक्त कोई स्थानीय नागरिक या स्थानीय वाहनों के गुजरने पर रोक होती थी. सारा सिविलियन ट्रैफिक रोक दिया जाता था. इस दौरान एक पायलट व्हीकल सिविलियन गाडि़यों को हाईवे से दूर रखने का काम करता था.
लेकिन 2002-2005 के बीच राज्य में मुफ्ती मोहम्मद सईद की सरकार के दौरान इन नियमों में ढिलाई कर दी गई क्योंकि इस से आम लोगों को बहुत असुविधा होती थी. सईद सरकार ने फैसला किया कि इस नियम को खत्म किया जाए. केंद्र सरकार ने भी सईद के तर्क को सही माना और सुरक्षा ढीली कर दी गई.
हालांकि, इस के साथ सुरक्षा में दूसरे बदलाव किए गए. अब सिविलियन गाडि़यां सुरक्षाबल की गाडि़यों के साथ निकलती थीं, लेकिन पूरे रास्ते पर सुरक्षाबल वाहनों की जांच करते थे. 2014 के बाद भी यह नियम चलता रहा. फिर इस बार कहां चूक हो गई कि विस्फोटक से भरी गाड़ी सीआरपीएफ की बस के साथ चलती रही औैर किसी को कानोंकान खबर नहीं हुई?
सवाल यह भी है कि कश्मीर के पुलवामा में एकसाथ इतने बड़े समूह में जवानों को मूव कराने की क्या मजबूरी थी.
सेना के एक आला अधिकारी की मानें तो जवानों को हजारहजार की टोली में भेजा जाना चाहिए था. मगर पुलवामा में तो सारे नियमों को ताक पर रख कर 2,547 जवानों का काफिला 78 बसों में रवाना कर दिया गया.
जवानों को एयरलिफ्ट क्यों नहीं
श्रीनगर राष्ट्रीय राजमार्ग भूस्खलन और बर्फबारी की वजह से करीब हफ्तेभर से बंद था. कश्मीर के 2,200 लोग जम्मू में फंसे थे, जिन में से बहुत छात्र भी थे, जो गेट परीक्षा देने के लिए कश्मीर के दूरदराज के इलाकों से जम्मू आए थे. वायुसेना के सी-17 ग्लोबमास्टर विमान ने 8 से 12 फरवरी के बीच अपनी 4 दिनों की उड़ानों में कुल 538 लोगों को एयरलिफ्ट किया था.
इसी बीच, खुफिया एजेंसियों ने बड़ा अलर्ट जारी करते हुए कहा कि आतंकी जम्मूकश्मीर में सुरक्षाबलों के डिप्लौयमैंट और उन के आनेजाने के रास्ते पर हमला कर सकते हैं. खुफिया एजेंसियों की रिपोर्ट में कहा गया था कि किसी भी सीआरपीएफ के कैंप और पुलिस के कैंप पर आतंकी बड़ा हमला कर सकते हैं, इसलिए सभी सुरक्षाबल सावधान रहें. इस के साथ ही बिना सैनिटाइज किए किसी एरिया में ड्यूटी पर न जाएं.
जम्मू में सैकड़ों जवान कैंपों में थे, जिन के रहनेखाने में परेशानी सामने आ रही थी. ट्रांजिट कैंपों में जवानों की भीड़ बढ़ती जा रही थी. आईजी अजय वीर सिंह चौहान, सीआरपीएफ, जम्मू सैक्टर का कहना है कि हम ने एयरफोर्स से मांग की थी कि फंसे हुए जवानों को जम्मू से एयरलिफ्ट किया जाए. मगर उन की कोई सुनवाई नहीं हुई.
सीआरपीएफ जवानों को भी छात्रों की तरह एयरलिफ्ट किया जा सकता था,बशर्ते केंद्र सरकार सीआरपीएफ अधिकारियों के विमान मुहैया करवाने के निवेदन को मान लेती.
कहा जा रहा है कि अधिकारी एक हफ्ते तक विशेष विमान की मांग करते रहे थे, मगर किसी के कान पर जूं न रेंगी. वित्तीय कारणों का हवाला दिया गया. मजबूर हो कर 14 फरवरी की सुबह जवानों से भरी 78 बसों के काफिले को श्रीनगर रवाना किया गया.
हैरानी की बात है केंद्र सरकार के पास अपने जवानों को बेहद प्रतिकूल परिस्थितियों में काम करने के लिए भेजने के वास्ते पैसे का अभाव है और हमारे प्रधानसेवक इन पौने 5 सालों में लगभग 84 विदेशी दौरे कर आए, जिन में करीब 280 मिलियन डौलर यानी 2 हजार करोड़ रुपया खर्च हो गया.
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की महत्त्वाकांक्षी योजनाओं के प्रचारप्रसार में केंद्र सरकार ने 5,200 करोड़ रुपये खर्च कर दिए. अब अगर इन दोनों खर्चों को मिला दें तो पौने 5 साल के कार्यकाल में केंद्र सरकार ने प्रधानमंत्री के विदेश दौरों और योजनाओं के प्रचार में करीब 7,200 करोड़ रुपए खर्च किए हैं. कोई जवाब दे कि 7,200 करोड़ की इस रकम से कितने समय तक सीआरपीएफ और बीएसएफ जैसे अर्धसैनिक बलों के आवागमन के लिए हवाईसेवा उपलब्ध कराई जा सकती थी?
दूसरी बात यह है कि जम्मूकश्मीर जैसे क्षेत्रों में सुरक्षा बलों के बड़े जत्थे के आवागमन के लिए एक एसओपी यानी स्टैंडर्ड औपरेशन प्रोसीजर है. काफिला गुजरने से पहले संबंधित इलाके की सुरक्षा के लिए जिम्मेदार रोड ओपनिंग पार्टी (आरओपी) इस के लिए हरी झंडी देती है. आरओपी में सेना, जम्मूकश्मीर पुलिस और अर्धसैनिक बलों के जवान शामिल होते हैं. आरओपी ने यह क्लीनचिट दी थी या उस पर दबाव डाल कर यह क्लीनचिट दिलवाई गई, यह जांच का विषय है.
ढिंढोरा पीटने से क्या फायदा
हम अपने घर की सफाई करते हैं तो क्या महल्लेभर में या बिरादरीभर में होहल्ला मचा कर करते हैं? क्या स्मार्टफोन पर अपने सफाई कार्यक्रम का वीडियो अपलोड करते हैं? क्या फोटो खिंचवा कर अखबारों में छपवाते हैं या मीडिया वालों को बुला कर हाथों में झाड़ू ले कर पोज देते हैं? या फिर अपने से जलन रखने वाले पड़ोसी को दिखाते हैं, बताते हैं कि लो जी, आज हम अपना घर साफ कर रहे हैं. ऐसा तो हम हरगिज नहीं करते. बस, हर सुबह झाड़ू उठाते हैं और पूरे घर को झाड़पोंछ कर साफ कर देते हैं, कीड़ेमकोड़ों को मार देते हैं, उन के बनाए गंदे जाले उतार देते हैं और घर को रहने लायक बना लेते हैं. आखिर यह सीधीसरल बात मोदी सरकार की समझ में क्यों नहीं आई?
आप पूछेंगे कि घर की सफाई से मोदी सरकार का क्या लेनादेना? सीधा लेनादेना है जनाब. यह देश हमारा घर है. इस को साफ रखना सरकार का काम है. यहां रहने वालों को सुरक्षित जीवन देना सरकार की जिम्मेदारी है. सुरक्षा को चाकचौबंद रखना और यहां गंदगी व बीमारी फैलाने वाले खतरनाक कीड़ों को मारबुहारना सरकार का कर्तव्य है. मगर ये सारे काम चुपचाप किए जाते हैं, होहल्ला मचा कर नहीं.
दुनिया को दिखानेबताने की जरूरत नहीं है कि आज हम अपना घर साफ करने जा रहे हैं. फोटो खिंचवा कर सर्कुलेट करने, वीडियो बना कर अपलोड करने या फिल्में बना कर दुनिया के आगे ढोल पीटने की जरूरत नहीं है कि लो जी, हम ने अपना घर साफ कर लिया.
मोदी सरकार इस कदर बड़बोलेपन की शिकार है कि छोटीछोटी बातों को भी बढ़ाचढ़ा कर कहने व गोपनीय रखी जाने वाली बातों को भी ढोल पीटपीट कर बताने से बाज नहीं आती है. इसे अपनी पीठ खुद थपथपाने का शौक है. अपना गुणगान आप गाने की आदत हो गई है इसे और इस का बुरा नतीजा भुगत रहे हैं हमारे जवान और देश की मासूम जनता.
गहन विश्लेषण की जरूरत
पुलवामा में सीआरपीएफ के जवानों पर आतंकी हमला या मोदी सरकार में इस से पहले जवानों पर हुए तमाम हमले किन कारणों से हुए, इस का विश्लेषण करने की जरूरत है. सर्जिकल स्ट्राइक जैसी कार्यवाहियां यूपीए के शासनकाल में भी होती रहीं, मगर उन का होहल्ला कभी नहीं मचा. उस की गाथा नहीं गाई गई. सेना और खुफिया के गुप्त अभियान के तहत जम्मूकश्मीर और एलओसी पर कितने ही आतंकियों को मार गिराया गया और देश की सुरक्षा सुनिश्चित की गई. मगर मोदी राज में हुए सर्जिकल स्ट्राइक की कहानी दुनियाभर ने सुनी. उन्हें चीखचीख कर सुनाई गई.
नरेंद्र मोदी और भाजपा अध्यक्ष अमित शाह के भाषण सर्जिकल स्ट्राइक के व्याख्यान के बिना पूरे ही नहीं होते थे. ऐसा लगता था जैसे प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में पहली बार पाकिस्तान पर कोई सर्जिकल स्ट्राइक हुई है. बढ़चढ़ कर दुनिया को बताया गया कि हम ने सर्जिकल स्ट्राइक की, इतने आतंकियों को मारा. क्या यह बताने की जरूरत थी? उधर पाकिस्तान कहता रहा कि यह कोई सर्जिकल स्ट्राइक नहीं, बल्कि सीमा पर हुई मामूली झड़प थी, जिस में उन के सिर्फ 2 जवान मारे गए.
सच तो यह है कि जम्मूकश्मीर जैसी सीमा के संवेदनशील राज्यों में आतंकियों को ठिकाने लगाने के लिए सेना और खुफिया एजेंसियों के संयुक्त और गुप्त अभियानों की जरूरत है, बिना शोर किए चुपचाप काम करने की जरूरत है, न कि मोदीमार्का सर्जिकल स्ट्राइक की.
घाटी में वर्ष 2017 से चलाए जा रहे ‘औपरेशन औल आउट’ की गाथा भी सर्जिकल स्ट्राइक जैसी ही गाई जा रही है. इस का जितना प्रचार हो रहा है, उस को सुन कर दहशतगर्दों के साथसाथ स्थानीय युवा भी उत्तेजित हो रहे हैं, बौखलाहट से भरे जा रहे हैं. असुरक्षा की भावना से ग्रस्त हो गए हैं. इन में से कितने बौखलाहट में गलत तरफ मुड़ गए हैं या मुड़ जाएंगे, कहा नहीं जा सकता.
बेहतर होता कि आतंकियों को चिह्नित कर के चुपचाप उन का सफाया किया जाता, क्योंकि मोरचे जीतने के लिए वीरता गीत गाने से गुप्त कूटनीतिक चालें ज्यादा मुफीद होती हैं. मगर मोदी के बड़बोलेपन को क्या कहें, अब तो अगला लोकसभा चुनाव भी सिर पर है, ऐसे में उपलब्धियां गिनवाने की मजबूरी उन के सामने है.
मसूद को रिहा करना बड़ी भूल
पुलवामा की साजिश रचने वाला जैश ए मोहम्मद का सरगना मौलाना मसूद अजहर वही आतंकी है जिसे कंधार विमान हाईजैक के दौरान रिहा करना पड़ा था. मौलाना मसूद अजहर को साल 1994 में पहली बार गिरफ्तार किया गया था. कश्मीर में सक्रिय आतंकी संगठन हरकत उल मुजाहिदीन का सदस्य होने के आरोप में उस वक्त उस की श्रीनगर से गिरफ्तारी हुई.
मौलाना मसूद अजहर की गिरफ्तारी के बाद जो कुछ हुआ, उस का शायद किसी को अंदाजा भी नहीं था. अजहर को छुड़ाने के लिए आतंकियों ने 24 दिसंबर, 1999 को 180 यात्रियों से भरे एक भारतीय विमान को नेपाल से अगवा कर लिया और विमान को कंधार ले गए. भारतीय इतिहास में यह घटना ‘कंधार विमान कांड’ के नाम से दर्ज है.
कंधार विमान कांड के बाद भारतीय जेलों में बंद आतंकी मौलाना मसूद अजहर, मुश्ताक जरगर और शेख अहमद उमर सईद की रिहाई की मांग की गई और यात्रियों की जान बचाने के लिए 8 दिनों बाद 31 दिसंबर को आतंकियों की शर्त मानते हुए भारत सरकार ने मसूद अजहर समेत तीनों आतंकियों को छोड़ दिया. इस के बदले में कंधार एयरपोर्ट पर अगवा रखे गए विमान को बंधकों समेत छोड़ दिया गया.
मसूद अजहर की रिहाई के बाद पाकिस्तान चौड़ा हो गया और उस की शह पा कर ही मसूद अजहर ने फरवरी 2000 में जैश ए मोहम्मद आतंकी संगठन की नींव रखी, जिस का मकसद था भारत में आतंकवादी घटनाओं को अंजाम देना और कश्मीर को भारत से अलग करना. उस वक्त सक्रिय हरकत उल मुजाहिदीन और हरकत उल अंजाम जैसे कई आतंकी संगठन जैश ए मोहम्मद में मिल गए. खुद मसूद अजहर भी हरकत उल अंसार का महासचिव रह चुका है. साथ ही, हरकत उल मुजाहिदीन से भी उस के संपर्क थे.
इस में शक नहीं कि मसूद के आतंकी संगठन को जहां पाकिस्तानी सेना का पूरा सपोर्ट है, वहीं चीन भी उस को पूरा सपोर्ट करता है और उस का इस्तेमाल भारत को परेशान करने के लिए करता है. भारत जहां मौलाना मसूद अजहर को अंतर्राष्ट्रीय आतंकी घोषित कर उस के संगठन जैश ए मोहम्मद को बैन करने की मांग लंबे समय से उठा रहा है, वहीं चीन यह मानने को तैयार ही नहीं है कि मसूद आतंकी है. जैश ए मोहम्मद को भारत ने ही नहीं, बल्कि ब्रिटेन, अमेरिका और संयुक्त राष्ट्र भी आतंकी संगठनों की सूची में शामिल कर चुका है.
हालांकि अमेरिका के दबाव के बाद पाकिस्तान ने भी साल 2002 में इस संगठन पर प्रतिबंध लगा दिया था, मगर अंदर ही अंदर पाकिस्तानी सेना का पूरा सपोर्ट जैश को मिलता रहा. भारत मसूद अजहर के प्रत्यर्पण की पाकिस्तान से कई बार मांग कर चुका है. लेकिन पाकिस्तान हर बार सुबूतों के अभाव का हवाला देते हुए इस मांग को नामंजूर कर देता है.
भारत को अब अपने पड़ोसी देशों पकिस्तान और चीन से टक्कर लेने व उन को कड़ा सबक सिखाने के लिए तैयार हो जाना चाहिए. सांप को दूध पिलाने से वह अपनी प्रवृत्ति नहीं छोड़ देगा, पुलवामा के बाद तो हमें यह बात अच्छी तरह समझ में आ जानी चाहिए. पर यह भी याद रखना होगा कि युद्ध में छोटाबड़ा नहीं होता, मजबूत और कमजोर होता है.
पाकिस्तान भी परमाणु बमों से लैस देश है. उस की सेना में 6 लाख से ज्यादा सैनिक हैं और उस के पास ढाई हजार से ज्यादा टैंक हैं. युद्ध चाहे एकतरफा हो, नुकसान दोनों का होगा.