एक ग्रामीण युवती सीमा बताती है कि 2 साल पहले उस के गांव के ही कुछ लोगों ने उस के साथ बलात्कार किया. बलात्कार के दर्द से तड़पती वह घर पहुंची तो उस के परिवार वालों ने चुप रहने की सलाह दी और मामले पर परदा डालने की कोशिश की. परिवार वालों के ऐसे रवैए ने उस के दर्द को कई गुना बढ़ा दिया. 2 दिन बाद वह अपनी सहेली की मदद से बलात्कार करने वाले दरिंदों को सबक सिखाने के लिए थाने पहुंच गई. थाने में रिपोर्ट दर्ज कराने के बाद वह यह सोच कर चैन से घर लौटी कि अब गुनाहगारों को सजा मिलेगी. 3 दिन बाद थाने से खबर आई कि मैडिकल टैस्ट के लिए उसे अस्पताल बुलाया गया है. अस्पताल पहुंचने पर एक डाक्टर ने उस की योनि में 2 उंगली डाल कर पता नहीं कौन सी जांच की. उस के बाद उस ने रिपोर्ट दी कि वह पहले भी कई दफे सैक्स कर चुकी है. इस रिपोर्ट ने उसे बलात्कार से भी ज्यादा भयानक दर्द दिया. गुनाहगार इस बिना पर छूट गए कि वह पहले से ही सैक्स की आदी थी, इसलिए उस के साथ बलात्कार नहीं हुआ है.

बिहार के जहानाबाद जिले की रहने वाली सीमा समेत बलात्कार की शिकार कई ऐसी लड़कियां और महिलाएं हैं जो टू फिंगर टैस्ट का दर्द झेल चुकी हैं. देश के विभिन्न हिस्सों में आएदिन बलात्कार की घटनाएं घट रही हैं. बलात्कार की पुष्टि के लिए विवादित टू फिंगर टैस्ट यानी टीएफटी की पद्धति अपनाई जाती रही है, जिस को ले कर लंबे समय से सवाल उठाए जाते रहे हैं. आखिरकार सुप्रीम कोर्ट ने केंद्र सरकार को ऐसे टैस्ट पर पाबंदी लगाने का निर्देश दिया. लेकिन न तो पूर्ववर्ती मनमोहन सिंह सरकार ने इसे गंभीरता से लिया न ही मौजूदा मोदी सरकार ने. दिसंबर 2012 को राजधानी दिल्ली में चलती बस में गैंगरेप की घटना के बाद खड़े हुए जनांदोलन के मद्देनजर गठित किए गए वर्मा कमीशन ने टू फिंगर टैस्ट को खत्म करने की सिफारिश की थी. इसी आधार पर 2013 में सुप्रीम कोर्ट के निर्देश पर केंद्र में तत्कालीन मनमोहन सरकार ने ऐसे टैस्ट किए जाने पर पाबंदी लगाए जाने की घोषणा की थी.

सुप्रीम कोर्ट द्वारा दिए गए निर्देश पर स्वास्थ्य मंत्रालय अभी गंभीर नहीं है. इस का पता तब चला जब सूचना का अधिकार के तहत एक आवेदनकर्ता ने स्वास्थ्य मंत्रालय को पत्र लिख कर जानना चाहा था कि सुप्रीम कोर्ट द्वारा जारी टू फिंगर टैस्ट बंद करने के निर्देश के कार्यान्वयन के लिए सरकार द्वारा क्याक्या कदम उठाए गए हैं. जवाब में मंत्रालय ने कहा कि मैडिकल अधिकारियों को जागरुकता के मद्देनजर प्रशिक्षण दिया जा रहा है. बलात्कार की पुष्टि के लिए टू फिंगर टैस्ट पर पाबंदी के लिए मंत्रालय की ओर से कोई दिशानिर्देश जारी नहीं किए गए हैं. उधर, महिला संगठनों का मानना है कि इस के मद्देनजर कहीं कोई प्रशिक्षण का कार्यक्रम भी नहीं चल रहा है.

दिसंबर 2012 में निर्भया कांड के बाद महिला सुरक्षा और बलात्कार संबंधी कानून में बदलाव किए जाने के लिए देशभर में बड़ा आंदोलन खड़ा हुआ था. बलात्कार की पुष्टि के लिए किए जाने वाले टू फिंगर टैस्ट का पहले से ही विरोध होता रहा है लेकिन निर्भया कांड पर हुए आंदोलन के दौरान इसे बंद किए जाने की मांग तेज हुई थी. बलात्कार की शिकार महिला के लिए इस तरह की जांच को मैडिकल बलात्कार कहते हुए इस के वैज्ञानिक आधार पर भी सवाल उठाए गए थे. इसी के मद्देनजर सुप्रीम कोर्ट ने इस पर पाबंदी लगाए जाने का निर्देश दिया था. इस दौरान केंद्र में सरकार बदली. नई सरकार को भी सत्ता संभाले 10 महीने हो गए, लेकिन इस संबंध में कोई भी कदम नहीं उठाया गया है. अवैज्ञानिक व अमानवीय कहलाने वाली टू फिंगर टैस्ट यानी टीएफटी पर पाबंदी की मांग करते हुए पश्चिम बंगाल महिला आयोग की चेयरपर्सन सुनंदा मुखर्जी कहती हैं कि विज्ञान और तकनीक के विकास के साथ हमें अमानवीय और अवैज्ञानिक तरीके को पीछे छोड़ कर आगे बढ़ना जरूरी है. बलात्कार की शिकार का बारबार, हर कदम पर बलात्कार होता है. पहले पुलिस जांचपड़ताल के समय, फिर मैडिकल जांच के दौरान और आगे अदालत में मामला चलने तक. इस तरह की जांच पर पाबंदी लगनी चाहिए. तभी कम से कम ‘मैडिकल रेप’ से पीडि़ता को राहत मिल पाएगी.

सुप्रीम कोर्ट के निर्देश के बाद महाराष्ट्र ने इसे बंद कर दिया था. अन्य राज्यों की स्थिति में अभी भी सुधार लाया जाना है. बलात्कार के मामले में मैडिकल जांच के बारे में पीडि़ता और उस के परिजनों में भी किसी तरह की जागरुकता नहीं होती. उन्हें पता ही नहीं होता कि जांच के लिए उन्हें किस तरह के दौर से गुजरना होगा.

मौजूदा दिशानिर्देश

बलात्कार मामले की जांच के संबंध में केंद्र सरकार ने जो दिशानिर्देश जारी किया है वह सामान्य है. उस में टू फिंगर टैस्ट से संबंधित कोई बात नहीं कही गई है. दिशानिर्देश को डिपार्टमैंट औफ हैल्थ रिसर्च और इंडियन काउंसिल औफ मैडिकल रिसर्च ने संयुक्त रूप से तैयार किया है. दरअसल, निर्भया कांड से पहले 2011 में डा. वी एम कोटोच की अगुआई में यूपीए-2 सरकार ने एक विशेषज्ञ समिति का गठन किया था. बाद में फोरैंसिक विशेषज्ञ इंद्रजीत खंदक ने इस समिति का दायित्व ग्रहण किया और दिशानिर्देश तैयार किया, जिसे तत्कालीन मनमोहन सिंह सरकार ने 16 दिसंबर, 2013 को विभिन्न स्वास्थ्य केंद्रों व अस्पतालों में भेजा. आइए, देखते हैं क्या है मौजूदा दिशानिर्देश?

हरेक अस्पताल में पीडि़ता की जांच के लिए एक अलग कमरा हो, जहां जांच के लिए तमाम जरूरी सामान हों.

मैडिकल जांच के समय डाक्टर के अलावा अन्य कोई, जिस का जांच से कोई लेनादेना नहीं है, उपस्थित न हो.

अगर जांचकर्ता डाक्टर पुरुष है तो उस के साथ महिला डाक्टर या नर्स का होना जरूरी है.

पीडि़ता की मानसिक स्थिति के मद्देनजर जरूरत पड़े तो काउंसलिंग का भी इंतजाम किया जाए.

बलात्कार कानूनी शब्द है, इसलिए जांच नतीजे में ‘बलात्कार’ शब्द का इस्तेमाल न किया जाए.

इकट्ठा किए गए नमूनों को फौरैंसिक लैब में भेजे जाने से पहले उन की सूची और इकट्ठा किए जाने के कारण को दर्शाना जरूरी हो.

एफआईआर दर्ज हो या न हो, अस्पताल पीडि़ता की चिकित्सा शुरू करने को बाध्य है.

पीडि़ता की मैडिकल जांच के लिए उस की सहमति जरूरी हो.

टू फिंगर टैस्ट की प्रक्रिया

महिला रोग स्पैशलिस्ट डा. शांति राय बताती हैं कि दरअसल कौमार्य परीक्षण के लिए टू फिंगर टैस्ट का उपयोग किया जाता है. इस टैस्ट में डाक्टर महिला की योनि में 2 उंगली डाल कर उस की ढिलाई या कौमार्य झिल्ली के दुरुस्त या टूटने के बारे में अपनी रिपोर्ट देते हैं. किसी महिला के बलात्कार होने पर मामले की जांच कर रहे अफसर टू फिंगर टैस्ट करवा कर यह पता करने की कोशिश करते हैं कि लड़की कहीं पहले से ही सैक्स करने की आदी तो नहीं है. बलात्कार के केस में फंसने वाला कानून के सामने यही दलील देता है कि उस ने पीडि़ता के साथ कोई जोरजबरदस्ती नहीं की है, बल्कि लड़की की मरजी से उस के साथ सैक्स किया है. इस से केस को पलटने और पीडि़ता को ही गुनाहगार साबित करने की साजिश रची जाती है. इस टैस्ट में महिला को शारीरिक से ज्यादा मानसिक यातना झेलनी पड़ती है. आज कई लड़के वाले विवाह के पहले लड़की के कौमार्य की रिपोर्ट मांगने लगे हैं.

टीएफटी जांच के बारे में कोलकाता के एसएसकेएम अस्पताल में फौरैंसिक विभाग के प्रमुख विश्वनाथ काहाली का कहना है कि टीएफटी जांच इसलिए भी जायज नहीं है कि 2 व्यक्तियों की उंगलियों का माप कभी एकसमान नहीं हो सकता. जाहिर है इस में शक की गुंजाइश रह ही जाती है. इसीलिए इस पर आधारित रिपोर्ट अदालत में हमेशा मान्य नहीं हो सकती.

नई तकनीक अपनाने का अभाव

कोलकाता की जानीमानी सामाजिक कार्यकर्ता शाश्वती घोष का कहना है कि सुप्रीम कोर्ट के निर्देश पर भले ही केंद्र सरकार ने टीएफटी जांच पर पाबंदी लगा दी है पर जांच की नई तकनीक को अपनाने की व्यवस्था हर राज्य में अभी नहीं है. चुनिंदा राज्यों में ही रेप किट का उपयोग हो पा रहा है. इस से भी जरूरी बात यह है कि तमाम अस्पतालों में इस किट को इस्तेमाल करने का प्रशिक्षण कुछ कर्मचारियों को दिया जाना भी जरूरी है. इसी के साथ किट के बारे में आम लोगों में जागरुकता उत्पन्न करनी भी जरूरी है. अगर लोगों में जागरुकता हो तो बलात्कार के बायोलौजिकल प्रमाण को जल्द से जल्द सुरक्षित किया जा सकता है. इस के लिए पुलिस की तफ्तीश का इंतजार करने की जरूरत नहीं है. दुनिया के ज्यादातर देशों में पीडि़ता द्वारा इकट्ठा किए गए प्रमाण के आधार पर ही मामला अदालत में जा सकता है लेकिन भारत में, जहां आम लोगों में इस के ऐसे किट के प्रति किसी तरह की जागरुकता ही नहीं है, वहां पुलिस के निर्देश के बगैर किट के जरिए प्रमाण इकट्ठा कर अदालत में पेश करने की फिलहाल कोई गुंजाइश भी नहीं है.

तमाम सकारात्मक पक्षों के बाद भी बलात्कार के प्रमाण जुटाने की पहली शर्त है पुलिस में एफआईआर दर्ज कराना. यहां दिक्कत यह है कि बलात्कार का मामला दर्ज हो या न हो, यह तय करने में पुलिस देर कर देती है जिस से बहुत समय निकल जाता है. देखा यह भी गया है कि मामला दर्ज करने में पीडि़ता व उस के परिजन द्वारा भी कभीकभी अनावश्यक देरी कर दी जाती है. ऐसे में ऐसी किट के उपयोग का महत्त्व और भी बढ़ जाता है.

रेप किट के इस्तेमाल पर जोर

तमाम महिला और स्वयंसेवी संगठन लंबे समय से टीएफटी यानी टू फिंगर टैस्ट के बजाय रेप किट के इस्तेमाल पर जोर दे रहे हैं. विदेशों में बलात्कार की पुष्टि के लिए रेप किट का ही इस्तेमाल होता है. रेप किट एक आम कार्डबोर्ड का बौक्स होता है, जिस में इस के इस्तेमाल के तमाम दिशानिर्देश के साथ फौरैंसिक जांच के लिए कुछ जरूरी सामान होते हैं. पहली बार इस तरह की किट का उपयोग 1978 में शिकागो पुलिस ने किया. बताया जाता है कि बलात्कार के प्रमाण को सुरक्षित रखने में यह किट बेजोड़ है. इसे तैयार किया था शिकागो पुलिस के क्राइम विभाग के एक सार्जेंट लुईस आर विटुल्लो न. इसी कारण इस किट का नाम इसी सार्जेंट के नाम पर ‘विटुल्लो किट’ पड़ गया.

आगे चल कर इस किट का नाम ‘सैक्सुअल असौल्ट एविडैंस किट’ रखा गया. संक्षेप में इसे ‘रेप किट’ कहते हैं. इस में सैक्सुअल असौल्ट एविडैंस कलैक्शन किट, सैक्सुअल असौल्ट फौरैंसिक एविडैंस (एसएएफई यानी सेफ) और सैक्सुअल औफैंस एविडैंस कलैक्शन किट (एसओईसी यानी सोएक), फिजिकल एविडैंस रिकवरी किट (पीईआरके यानी पर्क) जैसी किट होती हैं. आमतौर पर पर्याप्त प्रमाण के अभाव में अभियुक्त छूट जाता है. इस का एक कारण यह है कि ज्यादातर मामले में पुलिस को रिपोर्ट करने में देरी हो जाती है. या फिर पुलिस को रिपोर्ट न करने के कारण तमाम प्रमाण नष्ट हो जाते हैं. जाहिर है अभियुक्त का अपराध सुनिश्चित करने और उसे कड़ी सजा दिलाने में इस रेप किट की अहम भूमिका होती है.

कैसे इस्तेमाल हो रेप किट

विश्वजीत बताते हैं कि इस रेप किट में एक विशेष तरह के प्रोब का इस्तेमाल किया जाता है. यह अंगूठी का माप लेने जैसी रिंग होती है, जिसे गुप्तांग में डाल कर पता किया जाता है कि हाईमन यानी योनिच्छेदन हुआ है या नहीं. इस के अलावा

इस किट में इस के इस्तेमाल के दिशानिर्देश के साथ माइक्रोस्कोप स्लाइड, प्लास्टिक के बैग, कंघी, डौक्यूमेंटेशन फौर्म और लैबल होते हैं. इस किट में पीडि़ता के कपड़े, सिर, बाल, खून, रूसी, नाखून के नीचे जमी गंदगी के अलावा जीभ, गाल, जांघ, गुप्तांग, गुदा और नितंब से प्रमाण इकट्ठा करने के लिए जरूरी सामान होते हैं, जिन की मदद से डीएनए के अलावा मास स्पेक्ट्रोमेट्री के माध्यम से कंडोम के लैटेक्स, कपड़ों के फैब्रिक्स की शिनाख्त हो सकती है.

किट का इस्तेमाल करने के लिए प्रशिक्षण जरूरी है. प्रशिक्षणप्राप्त नर्स, डाक्टर, स्वास्थ्य सेवा से जुड़े कर्मचारी और फौरैंसिक विशेषज्ञ कोई भी रेप किट का इस्तेमाल कर सकते हैं. नियमानुसार, फोटोग्राफी से ले कर हर तरह की जांचें की जाती हैं और इन्हें लिपिबद्ध किया जाता है. ये सब कुछ रेप किट में ही संरक्षित किया जाता है. रेप किट में इस के इस्तेमाल का प्राथमिक दिशानिर्देश भी होता है. दिशानिर्देश में यह भी बता दिया जाता है कि तमाम साक्ष्यों को किट में किस तरह और कितने दिनों तक सुरक्षित रखा जा सकता है. यहां तक कि यह भी कि पीडि़ता किसी जांच विशेष के लिए मना भी कर सकती है. पर हां, ऐसी सूरत में जांचकर्ता का दायित्व है कि वह इसे लिपिबद्ध जरूर कर ले.

दरअसल, टू फिंगर टैस्ट के जरिए यह पता चल ही नहीं सकता है कि लड़की के साथ बलात्कार हुआ है. बलात्कार के बाद पीडि़ता की योनि के कसाव या ढीलेपन से यह पता नहीं चल सकता है कि उस के साथ जबरदस्ती हुई है. लंबे समय तक सैक्स करने वाली महिलाओं की योनि में ढीलापन आता है, पर एक बार किसी से सैक्स किया जाए तो ढीलेपन का अंदाजा नहीं मिल सकता. कई डाक्टर दबी जबान में कहते हैं कि आखिर 2 उंगली से यह कैसे पता लगाया जा सकता है कि किसी लड़की के साथ बलात्कार हुआ है या नहीं? इस टैस्ट की रिपोर्ट अकसर टैस्ट करने वाले डाक्टर के विवेक पर ही निर्भर करती है. कई बार तो किसी लालच में फंस कर डाक्टर पौजिटिव रिपोर्ट दे देते हैं. जाहिर है कि रिपोर्ट के पौजिटिव होने से आरोपी का बचाव होता है और कानून उस की दलील को मानने के लिए मजबूर हो जाता है कि पीडि़ता पहले से सैक्स की आदी रही है.

कदमकदम पर बलात्कार

बलात्कार मानवता विरोधी अपराध है. यह भी एक निर्मम सचाई है कि बलात्कार की शिकार महिला अगर इंसाफ मांगने के लिए कदम उठाती है तो उसे कदमकदम पर मौखिक बलात्कार का सामना करना पड़ता है. इस की शुरुआत पहले तो पुलिस के ‘बेपरदा’ सवालों की झड़ी से होती है और फिर बलात्कार की पुष्टि के लिए जांच. पीडि़ता को भयावह परिस्थिति से गुजरना पड़ता है. हर नजर आंखों से बलात्कार करती है, पुलिस स्टेशन से ले कर अस्पताल तक. अस्पताल में डाक्टर से ले कर नर्स तक तो फिर भी ठीक है, लेकिन पाया जाता है कि वार्ड बौय से ले कर चौथी श्रेणी के कर्मचारियों तक के कुतूहल का केंद्र बन जाती है पीडि़त महिला. उस के बाद बलात्कार की शिकार पीडि़ता को अकसर ऐसी जांच से गुजरना पड़ता है जो किसी को भी अपमानित कर सकती है.

एक समय था जब समाज के विभिन्न स्तरों में किसी लड़की के कौमार्य का प्रमाण उस की कौमार्य झिल्ली (हाइमन) का अटूट होना माना जाता था. इसी आधार पर बहुत समय पहले यह मान्यता बन गई थी कि कोई लड़की शारीरिक व यौन संबंध बनाने की आदी है या नहीं, हाइमन की जांच से पता चल जाता है. हाइमन की अक्षत अवस्था का पता 2 उंगलियों को योनि मार्ग में डाल कर जांच की जाती थी. गौरतलब है कि हाइमन को एक घड़ी के फ्रेम की तरह लिया जाता है. अगर घड़ी में 3 या 10 बजने जैसी स्थिति में हाइमन की टूट मिले तो मान लिया जाता था कि जबरन या असहमति से शारीरिक संबंध नहीं बने, यानी बलात्कार नहीं हुआ. लेकिन अगर हाइमन 5 या 8 की स्थिति में पाई जाए तो बलात्कार की पुष्टि कर दी जाती है.

डाक्टरों ने हालांकि बाद में माना कि इस तरह की जांच का कोई माने नहीं है क्योंकि हाइमन यानी कौमार्य झिल्ली केवल शारीरिक संबंध बनने से नहीं टूटती. यह साइकिल चलाने, तैरने, जिम करने, पेड़ों पर चढ़ने, खेलकूद के दौरान, शारीरिक मेहनत करने जैसे अन्य कई कारणों से भी टूट सकती है. इन मामलों का मैडिकल प्रमाण नहीं मिल पाता है. वहीं, विवाहित महिला के बलात्कार के मामले में इस तरह की जांच का कोई माने नहीं रह जाता है. विवाहित महिला की बलात्कार की पुष्टि में टू फिंगर टैस्ट कारगर ही नहीं. ऐसे मामलों में अकसर मैडिकल एविडैंस के तौर पर ‘हाइमन ओल्ड रेप्चर’ या ‘हैबिच्यूएटेड टू सैक्स’ जैसे जुमलों का अदालत में इस्तेमाल होता है. बात यहीं खत्म नहीं हो जाती. ये जुमले अदालतकक्ष में महिला के यौन जीवन के इतिहास को उजागर करते हैं. वहां उपस्थित पुरुष समाज मान लेता है कि महिला यौन संबंध बनाने की आदी है. ऐसे में पुरुष समाज के मध्य उस महिला ‘सतीत्व’ पर सवालिया निशान लग जाता है. इतना ही नहीं, शारीरिक संबंध में उस की असहमति की बात पर तरहतरह के सवाल उठाने का मौका मिल जाता है.

कोल्पोस्कोपी टैस्ट भी है तरीका

बलात्कार से संबंधित तमाम नकारात्मक पहलुओं के बीच एक उम्मीद की किरण नजर आ रही है. टू फिंगर टैस्ट के बजाय नएनए तरीके ढूंढ़े जा रहे हैं, ताकि कम से कम निरादर और अपमान झेलने के बाद सटीक तौर पर बलात्कार की पुष्टि हो. ऐसे ही तरीकों में से एक है कोल्पोस्कोपी टैस्ट. कई राज्यों ने इसे अपनाने की दिशा में हामी भरी है. बुनियादी तौर पर इस तकनीक का उपयोग गर्भाशय के कैंसर की जांच के लिए होता रहा है. इस तरह की जांच में एक विशेष तरह के उपकरण का इस्तेमाल होता है. सब से बड़ी बात यह कि इस में माइक्रोस्कोप की भी मदद ली जाती है. इस में मैन्युअल तौर पर कुछ नहीं करना पड़ता, सिवा उपकरण को लगाने के. बलात्कार के दौरान संघर्ष आम है. इस तरह की जांच में संघर्ष के दौरान अंदरूनी अंगों में उभरी चोट को माइक्रोस्कोप की मदद से चिह्नित किया जाता है और फिर उसे सुबूत बना कर अदालत में पेश किया जा सकता है.

और भी हैं तरीके

बलात्कार के दौरान आमतौर पर अभियुक्त पीडि़ता के शारीरिक संस्पर्श में आता ही है. और यह संस्पर्श अपने पीछे कई तरह के प्रमाण छोड़ जाता है. बलात्कार के बाद केवल वीर्य का नमूना ही नहीं, बल्कि और भी कई तरह के बायोलौजिकल मैटेरियल, मसलन- त्वचा की कोशिका, लार, नाखून, बाल, खून, घटना के आसपास मौजूद सामान अपराधी की शिनाख्त कर सकते हैं. बलात्कारी पीडि़ता के शरीर पर अपनी मौजूदगी छोड़ ही जाते हैं. यही कारण है कि बलात्कार की घटना के बाद नहाने, टौयलेट जाने, कपड़े बदलने, बालों में कंघी करने से बहुमूल्य प्रमाण नष्ट हो जाते हैं. इसी के साथ एक दिक्कत यह भी है कि हमारे यहां बलात्कार की एफआईआर दर्ज करने में पुलिस की कोताही या उस के आनाकानी करने से ज्यादातर मामलों में देर हो जाती है. अगर एफआईआर दर्ज हो भी जाए तो मैडिकल जांच में 2-3 दिन की देरी आम है. जबकि यौन उत्पीड़न का किसी तरह का मामला हो, साक्ष्य तुरंत इकट्ठा किए जाने जरूरी हैं. देरी के कारण आमतौर पर बलात्कार के प्रमाण ही नष्ट हो जाते हैं. सुप्रीम कोर्ट ने भी माना है कि प्रमाण के अभाव में 90 प्रतिशत मामले में अभियुक्त छूट जाता है.

दिल्ली के विभिन्न अस्पतालों में कुछ समय पहले रेप किट पहुंचाने की कोशिश भी की गई है. पर जहां तक सुप्रीम कोर्ट के निर्देश को मान कर केंद्र सरकार द्वारा देश के तमाम अस्पतालों में दिशानिर्देश जारी करने का सवाल है तो 10 महीने के बाद भी केंद्र की भाजपा सरकार इसे गंभीरता से नहीं ले रही है.

– कोलकाता से साधना शाह, लखनऊ से शैलेंद्र सिंह, भोपाल से भारत भूषण श्रीवास्तव, पटना से बीरेंद्र बरियार ज्योति, दिल्ली से ललिता गोयल, राजेश कुमार.

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