‘पढ़ोगेलिखोगे बनोगे नवाब, खेलोगेकूदोगे होगे खराब,’ पुराने जमाने में पढ़ाई न करने वाले बच्चों से ऐसी बातें कही जाती थीं. आज के समय के हिसाब से इस कहावत में थोड़ा बदलाव आ गया है. अब बच्चों को पढ़ाने में मातापिता की हालत खराब हो जाती है. इस बात का भी कोई भरोसा नहीं है कि पढ़ने पर भी आप के लाड़ले नवाब बन भी सकेंगे.

करीब ढाई दशक से शिक्षा के क्षेत्र में ग्लोबलाइजेशन का असर देखने को मिला है. इस से उच्च शिक्षा का विस्तार हुआ है और इस के प्रति मध्यवर्गीय परिवारों में उत्सुकता जगी है. मध्यवर्ग के आर्थिक रूप से समृद्ध हो जाने से उन्होंने बचपन से बच्चों को महंगी शिक्षा देनी शुरू कर दी और जिस का संबंध उन के सामाजिक स्टेटस से भी देखा जाने लगा. हालात ये हैं कि कभी विश्वगुरु कहलाने वाले भारत की एक भी यूनिवर्सिटी या कालेज दुनिया के टौप 200 विश्वविद्यालयों या कालेजों में जगह नहीं बना पाई है. आज के दौर में शिक्षा या तो गुणवत्तापूर्ण है ही नहीं या फिर लोगों की पहुंच से बाहर है.

निजीकरण से आए बदलाव

शिक्षा के निजीकरण के बाद देश में कई बदलाव देखने को मिले. पहले तो निजी शिक्षण संस्थान हर छोटेबड़े शहर में कुकुरमुत्ते की तरह उग आए हैं. निजी क्षेत्र होने के कारण इन के शुल्क में सरकार या सरकारी संस्थाओं का हस्तक्षेप नाममात्र का रह जाता है. सिर्फ मुनाफा कमाने के लिए खुले ये संस्थान ग्रामीण और शहरी इलाकों में युवाओं को जौब प्लेसमैंट के सपने दिखा कर मोटी फीस वसूलते हैं. इस के चलते कई बार मांबाप को अपनी जमीनजेवर या फिर जमा रकम तक खर्च करनी पड़ती है.

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