इस साल जनवरी महीने के दूसरे पखवारे में महाराष्ट्र के परभनी जिले की एक जातीय पंचायत ने एक शख्स के सामने शर्त रखी कि अगर वह पंचायत के आठों पंचों को अपनी पत्नी के साथ हमबिस्तर होने की इजाजत दे दे, तो उस का 6 लाख रुपए का कर्ज माफ कर दिया जाएगा. पंचायत का फैसला मानने से इनकार करनपर उस जोड़े का हुक्कापानी बंद कर दिया गया. सूचना मिलने पर पुलिस, ‘महाराष्ट्र अंधश्रद्धा निर्मूलन समिति’ और दूसरे गैरसरकारी संगठनों ने दखलअंदाजी कर के न केवल उस जोड़े का सामाजिक बहिष्कार खत्म कराया, बल्कि पंचायत को भी भंग कर दिया. पंच परमेश्वर होते हैं, यह बात ‘कथा सम्राट’ मुंशी प्रेमचंद के जमाने में जरूर सच रही होगी, लेकिन अब तो पंच सच्चे इनसान भी नहीं रहे हैं. देश की विभिन्न पंचायतों के कुछ फैसलों पर अगर नजर डाली जाए, तो यह बात आईने की तरफ साफ हो जाती है.

दरअसल, समस्या यह है कि मौजूदा समय में ज्यादातर लोग पंचायत नामक संस्था को सही माने में समझ नहीं पा रहे हैं. पंचायत चाहे जाति के आधार पर बनी हो या धर्म या वर्ग के आधार पर, उस का मूल काम इंसाफ करना होता है. अफसोस इस बात का है कि पंचायतें ये सब भूलती जा रही हैं. उत्तर प्रदेश के बुलंदशहर में नगला टोटा गांव की पंचायत ने एक दलित नौजवान को फांसी की सजा सुना दी और उसे अंजाम भी दे दिया. उस नौजवान पर अपने गांव की एक शादीशुदा औरत से नाजायज संबंध रखने का आरोप था. उस औरत के पति ने पंचायत बुला कर नौजवान की शिकायत की, जिस पर पंचायत ने बिना कुछ पूछेसुने, पहले उसे पीटने और फिर फांसी पर लटकाने का फरमान जारी कर दिया.

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