झारखंड में रांची शहर के पास नामकुम इलाके का रहने वाला आदिवासी सुरेश उरांव गुस्से में कहता है, ‘‘आदिवासी जान दे देगा, पर जंगल और जमीन नहीं छोड़ेगा. आदिवासियों के राज्य में आदिवासियों को जंगल और जमीन से उजाड़ कर तरक्की हो ही नहीं सकती. उद्योग लगाने के नाम पर आदिवासियों को हटाया जाता है, पर न उन्हें मुआवजा मिलता है, न उद्योग ही लग पाता है.’’ सीएनटीएसपीटी ऐक्ट में बदलाव कर सरकार ने आदिवासियों से उन का हक छीनने की जबरदस्त साजिश रची है. आदिवासी उसे किसी भी कीमत पर कामयाब नहीं होने देंगे.

इस मसले को ले कर एक बार फिर झारखंड में बंद, तोड़फोड़ और आगजनी का सिलसिला शुरू हो चुका है. सरकार इस मामले में यह दावा कर रही है कि इस ऐक्ट की वजह से ही राज्य और आदिवासियों की तरक्की नहीं हो पा रही थी, इसलिए उस में बदलाव करना जरूरी हो गया था. 22 नवंबर, 2016 को सीएनटी ऐक्ट (छोटा नागपुर काश्तकारी अधिनियम-1908) व एसपीटी ऐक्ट (संथालपरगना काश्तकारी अधिनियम-1949) में बदलाव कर के रघवुर दास सरकार ने बैठेबिठाए नया झमेला मोल ले लिया है. ऐक्ट की धारा-21, धारा-49 (1), धारा-49 (2) और धारा-71 (ए) में बदलाव किया गया है.

धारा-21 में बदलाव कर गैरकृषि उपयोग के कारोबारी इस्तेमाल की इजाजत दी गई है, पर जमीन पर रैयत का कब्जा कायम रखा गया है. वहीं धारा 49 (1) में कहा गया है कि जमीन का मालिक सरकारी और विकास संबंधी योजनाओं के लिए जमीन को उपयोग करने के लिए दे सकता है. स्कूल, अस्पताल, सड़क, बिजली, संचार, पंचायत, नहर, रेल वगैरह योजनाओं के लिए आदिवासी अपनी जमीन बेच सकता है. पहले ऐसा मुमकिन नहीं था. धारा-49 (2) में सुधार कर कहा गया है कि जिस योजना के लिए आदिवासी से जमीन ली गई है, उस जमीन को उसी योजना के लिए इस्तेमाल में लाना है. दूसरे किसी काम में ऐसी जमीन का इस्तेमाल नहीं हो सकेगा. इतना ही नहीं, अगर 5 साल तक ऐसी जमीन का इस्तेमाल नहीं किया गया, तो जमीन वापस रैयत के पास चली जाएगी और रुपए भी वापस नहीं किए जाएंगे. पहले 15 साल के अंदर जमीन के इस्तेमाल करने की समय सीमा थी. धारा-71 (ए) की उपधारा-2 में बदलाव कर यह कहा गया है कि अब आदिवासी मुआवजे के आधार पर अपनी जमीन किसी को नहीं दे सकेंगे. मुख्यमंत्री रघुवर दास कहते हैं कि सीएनटीएसपीटी ऐक्ट की वजह से राज्य में कई परियोजनाएं लटकी हुई थीं. राज्य और आदिवासियों की तरक्की की राह में रुकावट पैदा हो रही थी. किसी भी योजना को चालू करने से पहले जमीन के अधिग्रहण के लिए सीएनटीएसपीटी ऐक्ट रोड़ा बन जाता था. काफी जरूरत पड़ने पर भी आदिवासी अपनी जमीन नहीं बेच सकते थे. ऐसी जमीनों पर बैंक लोन देने से कतराते थे. ऐक्ट में बदलाव करने से आदिवासियों के साथसाथ राज्य का भी भला होगा. विरोधी दलों ने इस बात को लेकर बखेड़ा खड़ा कर दिया है कि सीएनटीएसपीटी ऐक्ट में बदलाव करने से आदिवासी की जमीन से उस का दावा खत्म हो जाएगा.

झारखंड मुक्ति मोरचा के नेता हेमंत सोरेन कहते हैं कि रघुवर सरकार आदिवासियों को जंगल और जमीन से बेदखल करने की साजिश रच रही है. राज्य की कुल आबादी सवा 3 करोड़ है, जिस में 26 फीसदी आदिवासी हैं, जिस की चिंता सरकार को नहीं है. आदिवासियों की कब्र पर झारखंड की तरक्की का सपना देखा जा रहा है, जिसे आदिवासी हरगिज पूरा नहीं होने देंगे. आदिवासियों की तरक्की के लिए साल 2000 में बिहार से अलग करके बने झारखंड राज्य में आज भी आदिवासियों की हालत बदतर बनी हुई है. राज्य की कोरबा जनजाति की हालत को देख कर ही आदिवासियों की बदहाली का अंदाजा लगाया जा सकता है. यह जनजाति भुखमरी में जीती है और जंगली फल और चिडि़या, चूहा, खरगोश वगैरह खा कर गुजारा करती है. साफ पानी पीने के लिए लोगों को रोज मीलों भटकना पड़ता है. आदिवासी मजदूर जीवक बताता है कि उन लोगों का समूचा दिन खाने और पीने की चीजों की जुगाड़ में ही निकल जाता है. कोरबा जनजाति के ज्यादातर लोग महुआ की दारू और चावल खा कर गुजारा करते हैं. जंगलों में घूमघूम कर फल, फूल, लकड़ी, चूहा वगैरह ढूंढ़ना उन का काम है. कुछ लोग खेती, पशुपालन और मजदूरी करते हैं. बगैर हल, बैल, खाद, बीज और पानी की खेती कैसी होगी,

इस का अंदाजा आसानी से लगाया जा सकता है. महाजनों और सूदखोरों के चंगुल में फंस कर कई कोरबा बंधुआ मजदूर बन कर रह गए हैं. आदिवासियों की जमीन के लिए पिछले कई सालों से आवाज उठा रही दयामनि बारला कहती हैं कि जनजातियों की तरक्की के लिए आजादी के बाद से ले कर अब तक की सरकारी योजनाओं का रत्तीभर भी हिस्सा उन तक नहीं पहुंच सका है. बीमार पड़ने पर कोरबा तंत्रमंत्र और ओझागुनी के चक्कर में फंस कर अपनी जनजाति को धीरेधीरे खत्म कर रहे हैं. सुरेश कोरबा बताता है कि पहले उन के इलाके में एक डिस्पैंसरी थी, जहां दवा मिलती थी, पर 10-12 साल पहले वह भी बंद हो गई है. कोरबा इलाज के लिए ओझाओं के पास जाने को मजबूर हैं. अपनी जमीन से उजड़ने के बाद कोरबा जनजाति मिटने के कगार पर पहुंच चुकी है और सरकार कान में तेल डाल कर सो रही है.

दरअसल, झारखंड की सियासी उठापटक और लचर विस्थापन व पुनर्वास नीति की वजह से नए उद्योगों के लगने की गति में तेजी नहीं आ पा रही है, वहीं तकरीबन साढ़े 3 लाख आदिवासी विस्थापन का दर्द झेलने को मजबूर हैं. आदिवासियों की तरक्की के नाम पर झारखंड राज्य बने 16 साल से ज्यादा हो गए हैं, पर अब तक आदिवासी अपना हक लेने के लिए दरदर भटक रहे हैं. रांची हाईकोर्ट के वकील अभय सिन्हा कहते हैं कि अलग झारखंड राज्य बनने के बाद से अब तक तकरीबन 66 एमओयू पर दस्तखत हुए, पर एक पर भी काम चालू नहीं हो सका है. झारखंड विस्थापन संघर्ष समिति के नेता चेतन भगत बताते हैं कि राज्य में अब तक 3 लाख से ज्यादा आदिवासी विस्थापित हो चुके हैं, इस में सब से ज्यादा विस्थापन खदानों की वजह से हुआ है. रोज नई खदानों में काम चालू होते रहे और आदिवासियों को जंगल और जमीन छोड़ने के लिए मजबूर किया जाता रहा. बड़े बांधों और सिंचाई की योजनाओं की वजह से भी विस्थापन होते रहे. कुल विस्थापितों में से 70 फीसदी आदिवासी पुनर्वास के लिए दरदर भटक रहे हैं, जिन की सुनने वाला कोई नहीं है. आदिवासियों का रोना यह है कि उन्हें उन की जमीन से उजाड़ दिया गया और वहां कोई योजना भी शुरू नहीं हो पाती है.

रांची भूअर्जन महकमे से मिली जानकारी के मुताबिक, जमीन का अधिग्रहण कर महकमे को दाखिलखारिज दिला देने के बाद भी योजनाओं पर काम शुरू नहीं हो पाता है. पर महकमे ने जितनी जमीनों पर कब्जा किया है, अगर उन पर काम चालू हो जाता, तो राज्य का चेहरा ही बदल जाता. साल 2014 तक तकरीबन 4 हजार एकड़ जमीन का अधिग्रहण कर दाखिलखारिज कई महकमों को दिलाया जा चुका है, पर ज्यादातर पर काम चालू नहीं हो पाया है. इस से आदिवासियों में काफी गुस्सा है.

आदिवासी भोलन डुंगडुंग कहता है कि न तो सरकार आदिवासियों को उन की जमीन से उजाड़ कर कारखाने ही लगा सकी है और न ही आदिवासियों को मुआवजा और नई जगह पर बसाने का काम कर पाई है. इस से आदिवासियों के राज्य को दोतरफा नुकसान हो रहा है. सरकार का दावा है कि राज्य में आदिवासियों के लिए बने छोटा नागपुर काश्तकारी अधिनियम-1908 और संथालपरगना काश्तकारी अधिनियम-1949 जैसे कानून आज की तारीख में बेकार साबित हो रहे थे. ये कानून आदिवासियों की परेशानियों को दूर नहीं कर रहे हैं, बल्कि उन के लिए रोज नई परेशानी पैदा कर रहे थे, इसलिए इस में बदलाव करना काफी जरूरी हो गया था, वहीं दूसरी ओर विरोधी दल इस मसले पर सरकार के खिलाफ गोलबंद हो गए हैं और ऐक्ट में किए गए बदलाव को वापस लेने की जिद पर अड़ गए हैं.

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