15 अगस्त को देश की स्वतंत्रता के 70 साल पूरे हो गए हैं. इन 7 दशकों में औरतों के हालात कितने बदले? वे कितनी स्वतंत्र हो पाई हैं? धार्मिक, सामाजिक जंजीरों की जकड़न में वे आज भी बंधी हैं. उन पर पैर की जूती, बदचलन, चरित्रहीन, डायन जैसे विशेषण चस्पा होने बंद नहीं हो रहे. उन की इच्छाओं का कोई मोल नहीं है. कभी कद्र नहीं की गई. आज भेदभाव के विरुद्ध औरतें खड़ी जरूर हैं और वे समाज को चुनौतियां भी दे रही हैं.
7 दशक का समय कोई अधिक नहीं होता. सदियों की बेडि़यां उतार फेंकने में 7 दशक का समय कम ही है. फिर भी इस दौरान स्त्रियां अपनी आजादी के लिए बगावती तेवरों में देखी गईं. सामाजिक रूढिवादी जंजीरों को उतार फेंकने को उद्यत दिखाई दीं और संपूर्ण स्वतंत्रता के लिए उन का संघर्ष अब भी जारी है. संपूर्ण स्त्री स्वराज के लिए औरतों के अपने घर, परिवार, समाज के विरुद्ध बगावती तेवर रोज देखने को मिल रहे हैं.
एक तरफ औरत की शिक्षा, स्वतंत्रता, समानता एवं अधिकारों के बुनियादी सवाल हैं, तो दूसरी ओर स्त्री को दूसरे दर्जे की वस्तु मानने वाले धार्मिक, सामाजिक विधिविधान, प्रथापरंपराएं, रीतिरिवाज और अंधविश्वास जोरशोर से थोपे जा रहे हैं और एक नहीं अनेक प्रवचनों में ये बातें दोहराई जा रही हैं.
स्त्री नर्क का द्वार
धर्मशास्त्रों में स्त्री को नर्क का द्वार, पाप की गठरी कहा गया है. मनु ने स्त्री जाति को पढ़ने और सुनने से वर्जित कर दिया था. उसे पिता, पति, पुत्र और परिवार पर आश्रित रखा. यह विधान हर धर्म द्वारा रचा गया. घर की चारदीवारी के भीतर परिवार की देखभाल और संतान पैदा करना ही उस का धर्म बताया गया. औरतों को क्या करना है, क्या नहीं स्मृतियों में इस का जिक्र है. सती प्रथा से ले कर मंदिरों में देवदासियों तक की अनगिनत गाथाएं हैं. यह सोच आज भी गहराई तक जड़ें जमाए है. इस के खिलाफ बोलने वालों को देशद्रोही कहा जाना धर्म है. स्त्री स्वतंत्रता आज खतरे में है.