भारत में अंगदान जितनी संख्या में हो रहे हैं उस से ज्यादा देश में इस की मांग है. यानी, भारत में प्रति 10 लाख आबादी में अंगदान डोनर एक से भी कम है. यह आंकड़ा दुनियाभर के कई विकसित देशों के मुकाबले बेहद शर्मनाक है. खासतौर पर अमेरिका और स्पेन जैसे देशों की तुलना में जहां डोनरों की दर दुनिया में सब से ऊंची है और जहां प्रति 10 लाख लोगों में 40 अंगदान डोनर हैं.
भारत में इस तरह की स्थिति के चलते जीवित रहने के लिए दान के अंगों की जरूरत वाले कई मरीजों की मौत हो जाती है. भारत अंगदान करने वाले देशों के सब से निचले पायदानों में कहीं पर ठहरता है.
हम बात कर रहे हैं उस भारत की जहां गर्व “दानदक्षिणा” करने पर तो किया जाता है पर यह गर्व अंगों या जरूरतमंदों को दान किए खून का नहीं बल्कि मंदिरों में बैठे पंडों को, वहां विराजमान मूर्तियों पर दूध, तेल, फूल, प्रसाद, पैसों के अभिषेक पर किया जाता है. आमतौर पर लोग इसे शिक्षा की कमी से जोड़ देते हैं, लेकिन खातेपीते लोग सब से ज्यादा इस भ्रम को पाले रहते हैं.
हमारा धर्मशास्त्र हमें यही तो सिखाता है कि अपने मरने पर शरीर में किसी प्रकार की काटपीट न होने दें क्योंकि पुनर्जन्म की व्याख्या शास्त्रों में ही बांची जाती है. हमारे शास्त्रों का पूरा आधार ही पुनर्जन्म पर टिका है, इसी का डर दिखा कर भक्तों से मंदिरों में पैसे काटे जाते हैं.
बात इस जन्म के यहीं खत्म होने की होती, तो लोग मरने के बाद की कहानी को न सोचते, लेकिन यहां धर्म ही सिखाता है कि इस जन्म के बाद एक और जन्म है, और फिर एक और जन्म है. तब भला कोई कैसे अपने अंगों को शरीर से हटवा सकता है? क्या उसे यह डर नहीं सताएगा कि अगर इस जन्म में अंग दान कर दिए तो अगले जन्म में बेअंग पैदा न हो जाएं.
डाक्टर और प्रत्यारोपण के विशेषज्ञों ने अंगों के डोनरों की कमी के लिए कुछ वजहों की शिनाख्त की हैं. उन में अंगदान के बारे में जागरूकता की कमी, प्रैक्टिस से जुड़ी गलत मान्यताएं और बुनियादी ढांचे से जुड़े मुद्दे भी शामिल हैं.
मान्यताएं ऐसी हैं कि अच्छाभला आदमी अपना सिर धुनना शुरू कर दे. क्योंकि यही मान्यताएं हमें मंगलवार को हनुमान पूजा के बाद गरीब लोगों को लड्डू दान करना पसंद कराती हैं. हम निर्जीव मूर्तियों में लाखों का पैसा फेंक आते हैं लेकिन जीवित प्राणियों में एक इंसान नहीं देखते.
यही कारण है कि हर साल, सड़क परिवहन के आंकड़ों के मुताबिक, भारत में करीब 1,50,000 लोग सड़कों पर मारे जाते हैं. यानी, लगभग 410 से ज्यादा लोग प्रतिदिन दम तोड़ देते हैं. समस्या यह कि इन मृतकों के परिजनों से बात करे कौन? डाक्टर खुद सकुचाते हैं, कहीं उन के परिजन लाठीडंडों से पीटने न लग जाएं.
मार्च में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अपने मासिक रेडियो प्रसारण में जनता से अंगदान का विकल्प चुनने की अपील की थी. उन्होंने कहा कि उन की सरकार एक नीति पर काम कर रही है जो अंगदान की प्रक्रिया को प्रोत्साहित करेगी और उसे सरल बनाएगी.
लेकिन समस्या यह कि देश में अगर अंगदान करने के इच्छुक लोग बढ़ भी जाएं तो सभी अस्पतालों में अंग प्रत्यारोपण से जुड़ी तमाम प्रक्रियाओं के लिए जरूरी साजोसामान या उपकरण मौजूद नहीं हैं. भारत में सिर्फ 250 अस्पताल ही नैशनल और्गन एंड टिश्यू ट्रांसप्लांट और्गनाइजेशन (नोटो) से पंजीकृत हैं. यह संगठन देश के अंग प्रत्यारोपण कार्यक्रम का समन्वय करता है.
यानी, देश में प्रत्येक 43 लाख नागरिकों के लिए तमाम सुविधाओं और उपकरणों वाला सिर्फ एक अस्पताल है. भारत के देहाती इलाकों में तो ट्रांसप्लांट सैंटर कमोबेश हैं भी नहीं.
समस्या यह कि ताजा राष्ट्रीय स्वास्थ्य रूपरेखा के मुताबिक, भारत उन देशों में शामिल है जहां सार्वजनिक स्वास्थ्य पर सब से कम पैसा खर्च किया जाता है. प्रधानमंत्री चाहे जितनी चाहे बातें कर लें, अगर स्वास्थय क्षेत्र में पैसा नहीं लगाएंगे तो ये बातें मात्र बातें ही साबित होंगी.
समझने वाली बात यह है कि भारत में अंग प्रत्यारोपण जीवित डोनरों के जरिए ही संभव हो पाता है यानी अपने जीवित रहते ही अपना अंग दान करने पर राजी होना, जैसे कि किडनी. आज विज्ञान ने तरक्की कर ली है, वेदों-शास्त्रों में बेबुनियाद विज्ञान खोजने वाले भी जरूरत पड़ने पर अस्पताल दौड़े चले जाते हैं. इन्हें भी समझने की जरूरत है कि यह तभी संभव होगा जब यह दोमुंहापन छोड़ा जाए और सरकार को स्वास्थ्य क्षेत्र में काम करने पर मजबूर किया जाए.