ईश्वर, अल्लाह, खुदा एक ऐसी परिकल्पना है, जिस के होने या न होने की कोई सटीक जानकारी इंसान को कभी उपलब्ध नहीं हुई है. इंसान हमेशा से अपनी ऊर्जा, धन, समय और जीवन उस चीज के लिए खपा रहा है जिस के बारे में यह गारंटी आज तक नहीं मिली है कि सचमुच में वह है भी, या नहीं.
ईश्वर, अल्लाह, खुदा एक ऐसी परिकल्पना है, जिस के होने या न होने की कोई सटीक जानकारी इंसान को कभी उपलब्ध नहीं हुई. फिर भी इस परिकल्पना में विश्वास रखने वाले लोग अपने जीवन का अधिकांश हिस्सा उस से जुड़े विभिन्न अनुष्ठानों, धार्मिक क्रियाकलापों, व्रत, त्योहार, तीर्थयात्राओं, दानपुण्य इत्यादि में व्यतीत कर देते हैं. अधिकांश चीजें तो हम इस डर से करते हैं कि न किया तो लोग क्या कहेंगे? इन चीजों में इंसान का बहुत सारा धन, समय और संसाधन लगते हैं. इंसान हमेशा से अपनी ऊर्जा, धन और जीवन उस चीज के लिए खपा रहा है, जिस के बारे में यह गारंटी आज तक नहीं मिली कि सचमुच में वह है भी, या नहीं. हम बात कर रहे हैं ‘ईश्वर’ की.
विज्ञान मानता है कि धरती पर इंसान की तरह का प्राणी 20 लाख साल से है. जबकि सभ्यता तकरीबन 20 हजार साल पुरानी है. मगर इस लंबे समयकाल में एक भी ऐसी प्रामाणिक घटना सामने नहीं आई जब किसी मनुष्य ने ईश्वर से मुलाकात की कोई सटीक जानकारी दी हो. न जन्म ले कर आने वाले किसी मनुष्य ने कहा कि वह ईश्वर से मिल कर आ रहा है और न मृत्यु के बाद किसी ने लौट कर बताया कि उस ने ईश्वर को या उस के सदृश्य किसी को देखा.
ईश्वर है या नहीं, इस पर सदियों से संशय बना हुआ है. उस के बारे में असंख्य सवाल हैं कि वह है तो कैसा है? वह कहां है? उस ने सृष्टि की रचना क्यों की? उस ने मनुष्य की रचना क्यों की? उस ने दूसरे जीवों की रचना क्यों की? जीवन और मृत्यु का रहस्य क्या है? ईश्वर के नाम पर जो धार्मिक कर्म हम करते हैं क्या उन्हें करने का आदेश ईश्वर ने स्वयं दिया है? दिया तो कब और किस को दिया? अगर हम उस आदेश का पालन न करें तो क्या वह हमें दंडित करता है?
इस धरती पर सिर्फ मनुष्य ही ईश्वर के नाम पर आराधना, भक्ति, पूजापाठ, दानपुण्य, लड़ाईझगड़ा, जंग या कत्लेआम क्यों करता है, जीवजंतु ईश्वर के नाम पर ये सारे कर्म क्यों नहीं करते? क्या उन को यह छूट ईश्वर ने प्रदान की है? आदि, आदि.
ईश्वर का नाम ले कर कोई जीव दूसरे जीव से नहीं लड़ता. उन के बीच धर्म के नाम पर कोई बंटवारा नहीं होता. उन के बीच लड़ाई सिर्फ भोजन, सैक्स और इलाके पर अपने वर्चस्व को ले कर ही होती है जो जीवन को जीने के सिद्धांत पर आधारित है.
आस्था ने फैलाई नफरत
दुनिया का हर धर्म और संप्रदाय खंगाल लीजिए, उन में मूल बातें लगभग एकजैसी ही हैं. मुख्य बात यह है कि हर धर्मग्रंथ कहता है कि ईश्वर एक है. जब ईश्वर एक है तो दुनिया में धर्म भी एक ही होना चाहिए था, मगर ऐसा नहीं है. सैकड़ों धर्म और हजारों संप्रदाय हैं और हरेक ने अपनेअपने ईश्वर गढ़ रखे हैं. यानी, धार्मिक और आस्थावान लोग धर्मग्रंथों में कहीं इस मूल बात को ही नहीं मानते कि ‘ईश्वर एक है.’
यही नहीं, अलगअलग धर्म और संप्रदाय के मानने वाले लोग अपनेअपने ईश्वर को ले कर दूसरे धर्म व संप्रदाय के लोगों से सदियों से लड़ते आए हैं. दुनिया की अब तक की तमाम लड़ाइयां धर्म के नाम पर ही हुई हैं. यहूदियों, ईसाईयों और मुसलमानों के बीच जो जंग सदियों से चली आ रही है उस के मूल में सिर्फ धर्म है. हिंदू और मुसलमानों के बीच लड़ाई का कारण धर्म है. करोड़ोंअरबों लोग धर्म के नाम पर कत्ल कर दिए गए. सच पूछें तो धर्म और ईश्वर ने सदा से इंसान की इंसान से जंग करवाई है.
धर्म ने इंसान के अंदर डर, कट्टरता, उन्माद, नफरत, नकारात्मक सोच और हिंसा पैदा की है. यानी, धर्म एक विध्वंसकारी तत्त्व है, जो सृष्टि का नाश कर रहा है, न कि विकास. सोचिए, अगर धर्म और ईश्वर जैसी अवधारणा इस धरती पर न होती तो न तो धरती के इतने टुकड़े होते और न इंसान बंटते.
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मुझे बचपन की घटना याद आती है. डा. जुनैद आलम का परिवार तब हमारे पड़ोस के घर में रमजान के महीने में शिफ्ट हुआ था. ईद वाली सुबह मैं सिवइयों का कटोरा ले कर उन के घर पहुंची कि उन की अम्मा को सिवइयां दे आऊं, तो जुनैद भाई को घर पर देख कर मैं ने हैरानी जताई. दरअसल, वह नमाज का वक्त था और तमाम घरों के पुरुष महल्ले की मसजिद में ईद की नमाज अदा करने के लिए गए हुए थे, मगर ये जनाब हाफपैंट पहने पानी की ट्यूब हाथ में लिए अपने कुत्ते को नहलाने में जुटे थे. मैं ने पूछा कि आप नमाज के लिए नहीं गए, तो हंसते हुए बोले, ‘नहीं, मेरी इबादत अलग ढंग की है. क्यूपिड (उन का पालतू कुत्ता) के साथ मुझे ज्यादा सुकून मिलता है. यही मेरी इबादत है.’
ईद के रोज कोई मुसलमान नमाज न पढ़े, यह बहुत बड़ा गुनाह था, ऐसा मुझे हमेशा से बताया गया था और इस पर मैं गहरा विश्वास करती थी, मगर उस दिन जुनैद भाई के जवाब ने मेरे विश्वास को बहुत धक्का पहुंचाया. एक मुसलमान ईद के रोज नमाज अदा न करे, यह बात मेरे गले से नहीं उतर रही थी. मगर जैसेजैसे मैं उन के विचारों से रूबरू होती गई, ऐसे बहुत से सवाल मेरे जेहन में उभरने लगे जिन का कोई सही जवाब किसी मुल्ला, किसी पंडित या किसी धर्मगुरु के पास मैं ने नहीं पाया.
जुनैद का कहना था, ‘अव्वल तो मैं यह मानता ही नहीं हूं कि अल्लाह जैसी कोई चीज मौजूद है और अगर मान लूं कि है, और मरने के बाद उस से भेंट होनी है, तो एक बार भेंट हो जाए फिर मैं उस से ही पूछ लूंगा कि नमाज पढ़ना, हज करना, रोजा रखना जरूरी है, या नहीं और अगर जरूरी है तो क्यों है?’ वे कहते, ‘मैं उस चीज पर विश्वास करता हूं जिसे मैं अपनी आंखों के सामने देखता हूं, जिसे मैं महसूस करता हूं, जिसे मैं छू सकता हूं और जिस से मैं अपनी भावनाओं को बांट सकता हूं. जैसे, मेरा यह क्यूपिड जिस का साथ मुझे हमेशा प्यार और सुकून से भर देता है.’
जुनैद भाई मैडिकल की पढ़ाई के बाद आज एक सफल सर्जन हैं. उन्होंने एक दलित डाक्टर लड़की से शादी की और अपने 2 बच्चों के छोटे से परिवार में बेहद खुश हैं. वे और उन की पत्नी दोनों नास्तिक हैं और बेहद सुखी हैं. उन का सारा समय मानवता की भलाई में गुजरता है.
जुनैद भाई के सान्निध्य ने मेरे सामने यह बात आईने की तरह साफ कर दी कि हम धर्म और ईश्वर के नाम पर ताउम्र जो कुछ भी करते रहते हैं, उन का कोई मतलब नहीं है. हम अपनी जिंदगी का बड़ा हिस्सा और बड़ा पैसा बेमतलब की चीजों में गंवा रहे हैं.
मैं नास्तिक क्यों हूं
वीर क्रांतिकारी शहीद भगत सिंह ने अपनी मौत से पहले लाहौर सैंट्रल जेल में कैद के दौरान एक लेख लिखा था – ‘मैं नास्तिक क्यों हूं’. इस लेख का प्रथम प्रकाशन लाहौर से छपने वाले अखबार ‘द पीपल’ में 27 सितंबर, 1931 में हुआ था. यह लेख भगत सिंह के द्वारा लिखित साहित्य के सर्वाधिक चर्चित और प्रभावशाली हिस्सों में गिना जाता है और बाद में इस का कई बार प्रकाशन हुआ. तब भगत सिंह की दाढ़ीमूंछ नहीं थी. यह बाद में सिख धर्म ने जबरन उन्हें उन की तसवीरों को पहना दी. इस लेख में भगत सिंह ने ईश्वर की उपस्थिति पर अनेक तर्कपूर्ण सवाल खड़े किए हैं और इस संसार के निर्माण, मनुष्य के जन्म, मनुष्य के मन में ईश्वर की कल्पना के साथसाथ संसार में मनुष्य की दीनता, उस के शोषण, दुनिया में व्याप्त अराजकता और वर्गभेद की स्थितियों का भी विश्लेषण किया है.
उन्होंने मनुष्य द्वारा ईश्वर की परिकल्पना के संबंध में लिखा है – ‘‘विश्वास कष्टों को हलका कर देता है. यहां तक कि उन्हें सुखकर बना सकता है. ईश्वर में मनुष्य को अत्यधिक सांत्वना देने वाला एक आधार मिल सकता है. उस के बिना मनुष्य को अपने ऊपर निर्भर करना पड़ता है. तूफान और झंझावात के बीच अपने पांवों पर खड़े रहना कोई बच्चों का खेल नहीं है.’’
उन्होंने आगे लिखा, ‘‘ईश्वर में विश्वास रखने वाला हिंदू पुनर्जन्म होने पर राजा होने की आशा कर सकता है. एक मुसलमान या ईसाई स्वर्ग में व्याप्त समृद्धि के आनंद की तथा अपने कष्टों व बलिदान के लिए पुरस्कार की कल्पना कर सकता है. किंतु मैं क्या आशा करूं? मैं जानता हूं कि जिस क्षण रस्सी का फंदा मेरी गरदन पर लगेगा और मेरे पैरों के नीचे से तख्ता हटेगा, वह पूर्णविराम होगा. वह अंतिम क्षण होगा. मैं या मेरी आत्मा सब वहीं समाप्त हो जाएगी.’’
और भी हैं नास्तिक
शहीद भगत सिंह ही नहीं, तर्क की कसौटी पर धर्म और आस्था को कसने वाले और उसे हर लिहाज से कमजोर पाने वाले बुद्धिजीवियों की बात करें तो इस फेहरिस्त में बड़ेबड़े नाम शामिल हैं, जिन्होंने ईश्वर, धर्म और कर्मकांडों को अपने जीवन से पूरी तरह खारिज कर दिया.
इरोड वेंकट नायकर रामासामी ‘पेरियार’ (1879-1973) 20वीं सदी के तमिलनाडु के प्रमुख राजनेता थे. भारतीय तथा विशेषकर दक्षिण भारतीय समाज के शोषित वर्ग के लोगों की स्थिति सुधारने में इन का योगदान है. स्वसम्मान आंदोलन के इस नास्तिक और बुद्धिवादी नेता ने जस्टिस पार्टी का गठन किया, जिस का सिद्धांत रूढि़वादी हिंदुत्व का विरोध था. उन का मानना था कि अगर जातिव्यवस्था से नजात पानी है तो धर्म जैसी चीज का अंत होना आवश्यक है.
पेरियार का जन्म 17 सितंबर, 1879 को पश्चिमी तमिलनाडु के इरोड में एक संपन्न, परंपरावादी हिंदू परिवार में हुआ था. 1885 में उन्होंने एक स्थानीय प्राथमिक विद्यालय में दाखिला लिया. कोई 5 साल से कम की औपचारिक शिक्षा प्राप्त करने के बाद ही उन्हें अपने पिता के व्यवसाय से जुड़ना पड़ा. उन के घर पर भजन तथा उपदेशों का सिलसिला चलता ही रहता था. बचपन से ही वे इन उपदशों में कही बातों की प्रामाणिकता पर सवाल उठाते रहते थे. हिंदू महाकाव्यों तथा पुराणों में कही गई परस्पर विरोधी तथा बेतुकी बातें उन की तर्क की कसौटी पर खरी नहीं उतरती थीं. वे बालविवाह, देवदासीप्रथा, विधवा पुनर्विवाह के विरुद्ध अवधारणा, स्त्रियों तथा दलितों के शोषण के पूर्ण विरोधी थे. उन्होंने हिंदू वर्णव्यवस्था का भी बहिष्कार किया था.
विनायक दामोदर सावरकर (1883-1966) को कौन नहीं जानता. भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन के एक प्रख्यात हिंदू राष्ट्रवादी नेता के बारे में यह बात कम लोग जानते हैं कि सावरकर पूरी तरह नास्तिक और एक कट्टर तर्कसंगत व्यक्ति थे. वे रूढि़वादी हिंदू विश्वास के घोर विरोधी थे. गाय की पूजा को घोर अंधविश्वास मानते थे.
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सत्येंद्र नाथ बोस (1894-1974) एक भौतिक विज्ञानी थे, जो गणितीय भौतिकी में विशेषज्ञता रखते थे. जरमनी के ख्यात वैज्ञानिक अल्बर्ट आइंस्टीन और सत्येंद्र नाथ बोस ने मिल कर बोस-आइंस्टीन स्टैटिस्टिक्स की खोज की थी. अपने वैज्ञानिक योगदान के लिए याद किए जाने वाले बोस पूरी तरह नास्तिक व्यक्ति थे.
मेघनाद साहा (1893 – 1956) एक नास्तिक खगोल-भौतिकवादी थे. ये साहा समीकरण के विकास के लिए याद किए जाते हैं, जो सितारों में रासायनिक और भौतिक स्थितियों का वर्णन करता था.
जवाहरलाल नेहरू (1889 -1964) भारत के पहले प्रधानमंत्री थे, जो भी कुछ हद तक नास्तिक थे. उन्होंने अपनी आत्मकथा, ‘टुवर्ड फ्रीडम’ (1936) में धर्म और अंधविश्वास पर अपने विचारों के बारे में लिखा था.
गोपाराजू रामचंद्र राव (1902-1975) जिन का उपनाम ‘गोरा’ था और अपने उपनाम से ही अधिक विख्यात हुए. वे एक समाज सुधारक, जातिविरोधी कार्यकर्ता और नास्तिक थे. उन की पत्नी सरस्वती गोरा (1912-2007) भी नास्तिक और समाज सुधारक महिला थीं. उन्होंने वर्ष 1940 में बाकायदा एक नास्तिक केंद्र की स्थापना की. इस नास्तिक केंद्र ने सामाजिक परिवर्तन के लिए उल्लेखनीय कार्य किए. गोरा ने वर्ष 1972 में लिखी अपनी किताब में सकारात्मक नास्तिक के बारे में विस्तार से लिखा. उन्होंने 1972 में पहले विश्व नास्तिक सम्मेलन का भी आयोजन किया. इस के बाद नास्तिक केंद्र ने विजयवाड़ा और अन्य स्थानों में कई विश्व नास्तिक सम्मेलनों के आयोजन किए.
सुब्रह्मण्यम चंद्रशेखर (1910-1995) खगोल भौतिकीविद थे, जो सितारों की संरचना और विकास पर अपने सैद्धांतिक काम के लिए जाने जाते हैं. उन्हें 1983 में भौतिकी में नोबेल पुरस्कार से सम्मानित किया गया. चंद्रशेखर पूरी तरह नास्तिक थे. उन का ईश्वर या धर्म जैसी किसी बात पर विश्वास नहीं था.
खुशवंत सिंह (1915-2014) सिख निष्कर्षण के प्रमुख और विपुल लेखक, स्पष्टरूप से गैरधार्मिक थे. उन की किसी भी धर्म में आस्था नहीं थी. वे देश के प्रमुख बुद्घिजीवियों में से एक थे.
बौद्ध धर्म काल्पनिक ईश्वर में विश्वास नहीं करता
बौद्ध धर्म दुनिया का एकमात्र धर्म है जो मानवीय मूल्यों और आधुनिक विज्ञान का समर्थक है. बौद्ध अनुयायी काल्पनिक ईश्वर में विश्वास नहीं करते हैं. अल्बर्ट आइंस्टीन, डा. भीमराव अंबेडकर, बट्रैंड रसल रसेल जैसे कई प्रतिभाशाली, बुद्धिजीवी और वैज्ञानिक लोग बौद्ध धर्म को विज्ञानवादी धर्म मानते हैं.
चीन की आबादी में 91 प्रतिशत से अधिक लोग बौद्ध धर्म से प्रभावित हैं. कहना गलत न होगा कि दुनिया में सब से अधिक नास्तिक लोग चीन में हैं. चीनी मान्यता में इंसान और भगवान के बीच श्रद्धा का कोई सिद्धांत नहीं है. वहां अपने महान पूर्वजों की शिक्षा का अनुसरण करने वालों के नाम पर ही ताओइज्म या कन्फूशियनिज्म की परंपरा है. गैलप सर्वे में करीब 61 फीसदी चीनियों ने किसी ईश्वर के अस्तित्व को नकार दिया. वहीं 29 फीसदी ने खुद को अधार्मिक बताया.
स्वीडन (76 फीसदी)
इस स्कैंडिनेवियन देश में हाल के सालों में सैक्युलरिज्म तेजी से बढ़ा है. स्वीडन के सरकारी आंकड़ों के अनुसार, केवल 8 फीसदी स्वीडिश नागरिक ही किसी धार्मिक संस्था से नियमित रूप से जुड़े हैं. शायद इसीलिए 31 अक्तूबर, 2016 को प्रोटेस्टैंट रिफौर्मेशन की 500वीं वर्षगांठ मनाने के लिए पोप फ्रांसिस ने स्वीडन को चुना था.
चेक गणराज्य (75 फीसदी)
करीब 30 प्रतिशत चेक नागरिक खुद को नास्तिक कहते हैं. वहीं इसी देश के सब से अधिक लोगों ने अपनी धार्मिक मान्यताओं के बारे में कोई भी उत्तर देने से मना कर दिया. कुल आबादी का केवल 12 फीसदी हिस्सा ही कैथोलिक या प्रोटेस्टैंट चर्च से जुड़ा है.
ब्रिटेन (66 फीसदी)
करीब 53 प्रतिशत ब्रिटिश लोगों ने खुद को अधार्मिक बताया और करीब 13 फीसदी ऐसे थे जो अपनेआप को नास्तिक मानते हैं. पश्चिमी यूरोप में यूके के बाद नीदरलैंड्स के निवासी नास्तिकता में सब से आगे हैं.
हौंगकौंग (62 फीसदी)
पूर्व ब्रिटिश कौलोनी और फिर चीन को वापस किए गए हौंगकौंग की ज्यादातर आबादी पर चीनी परंपराओं का असर है. बाकी कई लोग ईसाई, प्रोटेस्टैंट, ताओइज्म या बौद्ध धर्म के मानने वाले हैं. गैलप सर्वे में करीब 43 फीसदी हौंगकौंगवासियों ने माना कि वे किसी भी ईश्वर को नहीं मानते हैं.
जापान (62 फीसदी)
चीन की ही तरह जापान की लगभग सारी आबादी किसी ईश्वर के बजाय जापान के स्थानीय शिंतो धर्म का अनुसरण करती है. श्ंितोइज्म के मानने वाले ईश्वर जैसे किसी दिव्य सिद्धांत में विश्वास नहीं रखते हैं. गैलप के आंकड़ों के मुताबिक, करीब 31 फीसदी जापानी खुद को नास्तिक बताते हैं.
जरमनी (59 फीसदी)
मुख्यरूप से ईसाई धर्म के मानने वाले जरमन समाज में इसलाम समेत कई धर्म प्रचलित हैं, लेकिन 59 फीसदी अब किसी ईश्वर को नहीं मानते. स्पेन, आस्ट्रिया में भी किसी ईश्वर को न मानने वालों की बड़ी संख्या है. धर्मनिरपेक्षता का गढ़ माने जाने वाले फ्रांस की आधी आबादी ने खुद को अधार्मिक बताया.
धर्म से उचट रहा मन धर्म ने समाज में लोगों के बीच ऊंचनीच की ऐसी दीवारें खड़ी कर दी हैं जिन की वजह से अनेक बुराइयां और अपराध पनप रहे हैं. बुद्धिजीवियों का बड़ा वर्ग धर्म और ईश्वर को मानवता का सब से बड़ा दुश्मन मानता है. यही नहीं, अब तो बच्चे तक यह समझने लगे हैं कि धर्म उन को बांटने और आपस में लड़वाने का मुख्य कारक है. यही वजह है कि अब स्कूल के फौर्म में ज्यादातर धर्म और जाति के कौलम खाली दिखाई देते हैं. बीते वर्ष मार्च महीने में केरल के 1.24 लाख छात्रछात्राओं ने कहा कि उन का कोई जाति और धर्म नहीं है. उन्होंने स्कूल में दाखिले के लिए जमा कराए गए अपने नामांकनपत्र में धर्म और जाति वाला कौलम खाली छोड़ दिया.
9,000 स्कूलों से जमा किए गए आंकड़े
केरल विधानसभा में प्रश्नकाल के दौरान वामनपुरम से सीपीएम के विधायक डी के मुरली ने सरकार से पूछा कि राज्य में ऐसे कितने विद्यार्थी हैं जो सरकारी या निजी स्कूलों में दाखिला लेते समय नामांकनपत्र में अपनी जाति या धर्म के कौलम को नहीं भरते हैं. यह संख्या पहली और 10वीं कक्षा में दाखिला लेने वाले छात्रछात्राओं की है. जबकि इसी प्रकार से 11वीं और 12वीं के बच्चे भी नामांकन के दौरान अपनी जाति व धर्म के बारे में नहीं बताना चाहते हैं. 11वीं में 278 और 12वीं में 239 बच्चे इस सूची में शामिल हैं.
2011 की जनगणना के मुताबिक, करीब 29 लाख लोगों ने ‘धर्म का जिक्र नहीं’ श्रेणी को तवज्जुह दी थी. इसे कुल जनसंख्या का 0.2 प्रतिशत माना जा सकता है. 2001 की जनगणना में महज 7 लाख लोग ऐसे थे जिन्होंने धर्म का जिक्र नहीं किया था. इस संख्या में अब चारगुना से ज्यादा की बढ़ोतरी हो चुकी है.
इस का मतलब साफ है कि जो लोग धर्म का जिक्र नहीं करना चाहते उन की संख्या तेजी से बढ़ रही है. धर्म का जिक्र नहीं करने वालों की कुल संख्या
29 लाख में से 16.44 लाख लोग ग्रामीण इलाकों से हैं, जबकि 12.24 लाख लोग शहरी इलाके से हैं. मेरी कोई जाति भी नहीं. तमिलनाडु में वेल्लोर के तिरुपत्तूर की निवासी 35 साल की एक वकील एम ए स्नेहा ने अपने धर्म के साथ जाति का जिक्र कभी नहीं किया. उन के जन्म और स्कूल के सर्टिफिकेट्स में भी जाति और धर्म के कौलम खाली हैं. स्नेहा को हाल ही में तमिलनाडु सरकार ने एक सर्टिफिकेट जारी किया है, जो कहता है कि इन की कोई जाति या धर्म नहीं है. इन्हें भारत का पहला ऐसा नागरिक माना जा सकता है, जिन्हें आधिकारिक तौर पर अनुमति मिली है. यह सर्टिफिकेट पाने के लिए स्नेहा को 9 साल लंबी लड़ाई लड़नी पड़ी है.
उन्होंने वर्ष 2010 में ‘नो कास्ट, नो रिलिजन’ के लिए आवेदन किया था और 5 फरवरी, 2019 को कई मुश्किलें पार करने के बाद उन्हें यह सर्टिफिकेट मिला है. अब स्नेहा पहली ऐसी शख्स हैं जिन के पास यह प्रमाणपत्र है. स्नेहा खुद ही नहीं, बल्कि उन के मातापिता भी बचपन से ही अपने आवेदनपत्रों में जाति और धर्म का कौलम खाली छोड़ते थे. वे अपनी 3 बेटियों के फौर्म में भी जाति व धर्म के कौलम खाली छोड़ती हैं.
सामाजिक परिवर्तन की दिशा में स्नेहा का यह कदम बहुत महत्त्वपूर्ण माना जा रहा है. खुद ऐक्टर कमल हासन ने स्नेहा और उन के प्रमाणपत्र की फोटो ट्विटर पर शेयर की. स्नेहा नास्तिक हैं और उन का कहना है कि जब जाति और धर्म के मानने वालों के लिए प्रमाणपत्र होते हैं तो हम जैसे नास्तिक लोगों के लिए क्यों नहीं? स्नेहा को बिना जाति और धर्म के खुद की एक अलग पहचान चाहिए थी, जो उन्हें हासिल हो चुकी है. स्नेहा के इस कदम की हर तरफ तारीफ हो रही है.
एक समस्या भी
धर्म को न मानने वाले या नास्तिकों की संख्या हालांकि बढ़ रही है, लेकिन कानूनी मामलों में उन की पहचान विवादों के दायरे में है क्योंकि नास्तिक लोगों का कोई पर्सनल कानून नहीं है. कानूनी मामलों में उन के जन्म के आधार पर धर्म तय किया जाता है. साल 2012 में श्रीरंग बलवंत खंबेटे नाम के वकील ने ठाणे की सैशन कोर्ट में खुद को गैरधार्मिक घोषित करने की मांग की थी. कोर्ट ने कहा कि उन्हें अपना धर्म त्यागने की अनुमति है. उन्हें ‘गैरधार्मिक’ की श्रेणी दी जा सकती है. मगर इस में यह भी खतरा है कि इस से उन के परिवार के सदस्यों के लिए स्थिति जटिल हो सकती है, उन की संपत्ति और संस्कारों को ले कर कानूनी पेंच आ सकते हैं. भारत में विवाह, संपत्ति के बारे में स्पैशल मैरिज एक्ट और इंडिया सक्सैशन एक्ट हैं जिन में गैरधार्मिक लोगों के लिए नियम हैं.