आज भी कानून द्वारा थोपी जा रही पौराणिक पाबंदियों और नियमकानूनों के चलते युवतियों का जीवन दूभर है. मुश्किल तब ज्यादा खड़ी हो जाती है जब कानून बनाने वाले और लागू कराने वाले असल नेता व जज उन्हें राहत देने की जगह धर्म का पाठ पढ़ाते दिखाई देते हैं.
2020 में गुवाहाटी हाईकोर्ट के एक न्यायाधीश ने सिंदूर और चूड़ी को ले कर एक फैसला सुनाया था. हाईकोर्ट ने कहा था कि पत्नी के सिंदूर लगाने और चूड़ी पहनने से इनकार करने का मतलब है कि वह अपनी शादीशुदा जिंदगी आगे जारी नहीं रखना चाहती है और यह तलाक दिए जाने का आधार है.
क्या है यह पूरा मामला, जानते हैं-
एक व्यक्ति जिस की शादी 2012 में हुई थी और कुछ सालों में ही पतिपत्नी अलग हो गए थे, उस ने गुवाहाटी हाईकोर्ट में तलाक के लिए याचिका दाखिल करते हुए कहा कि उस की पत्नी चूड़ी, मंगलसूत्र नहीं पहनती है और न ही सिंदूर लगाती है. उस पर गुवाहाटी उच्च न्यायालय ने एक निर्णय दिया और कहा कि अलग रह रही पत्नी द्वारा ‘थाली’ यानी मंगलसूत्र को हटाया जाना पति के लिए एक मानसिक क्रूरता समझा जाएगा.
यह टिप्पणी करते हुए न्यायालय ने पति के तलाक की अर्जी को मंजूरी दे दी थी लेकिन महिला ने अपना पक्ष रखते हुए कहा कि उस ने अपने गले की चेन हटाई थी, मंगलसूत्र नहीं.
वहीं, महिला की वकील ने हिंदू विवाह अधिनियम की धारा 7 का हवाला देते हुए कहा था कि मंगलसूत्र पहनना आवश्यक नहीं है और इसलिए पत्नी द्वारा इसे हटाने से वैवाहिक संबंधों पर कोई प्रभाव नहीं पड़ना चाहिए. लेकिन चीफ जस्टिस अजय लांबा और जस्टिस सौमित्र सैकिया ने पत्नी के सिंदूर लगाने से इनकार को एक साक्ष्य के तौर पर माना.
न्यायिक बैंच ने अपने फैसले में कहा, ‘हिंदू रीतिरिवाजों के हिसाब से शादी करने वाली महिला अगर सिंदूर, मंगलसूत्र और चूड़ी नहीं पहनती है तो ऐसा करने से वह अविवाहित लगेगी और प्रतीकात्मक तौर पर इसे शादी से इनकार माना जाएगा. ऐसा करना महिला के इरादों को साफ जाहिर करता है कि वह पति के साथ अपना वैवाहिक जीवन आगे जारी नहीं रखना चाहती है.’
कोर्ट ने यह भी कहा कि इन हालात में पति का पत्नी के साथ रहना महिला द्वारा पति और उस के परिवार को प्रताड़ना देना ही माना जाएगा.
एक आदर्श स्त्री की परिभाषा क्या है, आजकल अदालतों में इस का खूब बखान हो रहा है. कुछ वर्षों पहले कर्नाटक हाईकोर्ट ने इस परिभाषा को स्पष्ट किया था और कहा था कि आदर्श स्त्री वही है जो बलात्कार के बाद सोए नहीं, बल्कि तुरंत इस अपराध की इत्तिला करे.
बनारस की एक स्टार्टअप कंपनी ने लड़कियों को आदर्श बहू बनने की ट्रेनिंग देने की पेशकश कर डाली. ऐसी ट्रेनिंग गीताप्रैस वाले कई सालों से दे रहे हैं. उन की पुस्तकों के नाम पढ़ कर ही आप सम?ा जाएंगे, जैसे ‘नारीधर्म’, ‘स्त्री के लिए जीवन के आदर्श’, ‘दांपत्य जीवन के आदर्श’, ‘गृहस्थ में कैसे रहें’ आदिआदि. ऐसा ही एक आदेश गुवाहाटी हाईकोर्ट ने भी सुना डाला कि अगर एक विवाहित महिला सिंदूर और मंगलसूत्र नहीं पहनती तो इस का मतलब है वह अपने शादीशुदा जीवन में खुश नहीं है.
2018 में पुणे में एक महिला से एक पुलिस वाले ने पूछताछ की कि आप ने कोई गहना क्यों नहीं पहना है? सिंदूर क्यों नहीं लगाया है? एक पारंपरिक गृहिणी की तरह कपड़े क्यों नहीं पहने हैं? वह उस औरत के विवाहित होने पर संदेह क्यों कर रहा था, इसलिए कि वह औरत ढकोसलों में भरोसा नहीं करती. 2018 में ही आंध्र प्रदेश के पश्चिमी गोदावरी जिले के गांव थोकलापल्ली की औरतों को दिन में नाइटी न पहनने का फरमान सुनाया गया था.
एक बार किसी ने कहा था कि शादी के बाद लड़कियां सिंदूर और चूडि़यां नहीं पहनतीं तो लगता ही नहीं है कि वे शादीशुदा हैं. यानी, लड़कियों के लिए शादीशुदा दिखना जरूरी है. यह दिखाना जरूरी है कि उन के शरीर पर एक पुरुष का कब्जा है. सिंदूर और मंगलसूत्र के जरिए यह दिखाना होता है कि उक्त महिला किसी की संपत्ति है. सो, वह किसी और के लिए उपलब्ध नहीं है. अदालत ने भी इस बात को पुख्ता कर दिया है कि शादी के बाद महिलाओं को सिंदूर लगाना और मंगलसूत्र पहनना ही पहनना है, वरना माना जाएगा कि उन्हें शादी में विश्वास नहीं है.
गुवाहाटी कोर्ट ने महिला को अत्याचारी भी बताया क्योंकि वह अपनी सास की सेवा नहीं करती. यानी कि उन्हें बहू नहीं, नौकरानी चाहिए थी अपने लिए?
महिलाओं के खिलाफ फैसला सुनाने वाली ज्यूडीशियरी खुद एक पुरुषप्रधान है तो वह कहां महिलाओं की भावना को समझ पाएगी.
यह समझ लें कि उच्च न्यायालय का हर निर्णय देश का कानून बन जाता है जब तक कि संसद या विधानसभा या सर्वोच्च न्यायालय उसे न बदलें. वकील इसे कानून मान कर कहीं भी लागू करवा सकते हैं.
यह वही भाषा है जो अपने एक प्रवचन के दौरान बागेश्वर बाबा धीरेंद्र शास्त्री ने मंगलसूत्र को ले कर कहा था, ‘किसी स्त्री की शादी हो गई हो तो उस की 2 पहचान होती हैं- मांग का सिंदूर और गले का मंगलसूत्र. अगर कोई महिला मांग में सिंदूर और गले में मंगलसूत्र पहने न दिखे तो समझ लो प्लौट खाली है और अगर किसी महिला की मांग में सिंदूर भरा दिखे और गले में मंगलसूत्र लटका दिख जाए तो समझ उस प्लौट की रजिस्ट्री हो चुकी है.’ बाबा के इस बयान पर सोशल मीडिया पर महिलाओं का गुस्सा फूटा था, लेकिन आज तक बाबा का कोई कुछ बिगाड़ नहीं पाया.यदि ऐसा बयान कोई और दे तो उस के खिलाफ कई अदालतों में धार्मिक भावनाओं को ठेस पहुंचाने के मुकदमे दायर कर दिए जाएंगे और उसे अदालतअदालत में जाना पड़ेगा.
पीएम मोदी की एक चुनावी रैली में मंगलसूत्र चर्चा का विषय बना रहा. इस विषय को उठाने का मतलब यही था कि प्रधानमंत्री भी कह रहे हैं कि विवाहित स्त्रियां मंगलसूत्र पहने रहें, उतारें नहीं, तभी संस्कारी हैं, तभी विधिक दृष्टि में उन का विवाह कानूनों का संरक्षण पा सकता है.
चुनावी सभा में मंगलसूत्र का जिक्र होने का अर्थ है, एक तरीके से पूरे समाज को आवाज देना है, क्योंकि छाप-तिलक और कंठीमाला से ज्यादा हमारी रोज की जिंदगी का सब से अभिन्न अंग है मंगलसूत्र, जो उत्तर से ले कर दक्षिण तक, हरेक विवाहित महिला के गले में अपनी मौजूदगी दर्ज कराता मिलेगा फिर चाहे वह सोने का हो, पीतल का या सिर्फ धागे में पिरोए काले मोतियों से बना हो. राजतिलक की चाहत ने चुनावी रण के दांवपेंच अचानक बदल दिए. मोदी से पहले मंगलसूत्र पहुंच गया. देश की करोड़ों महिलाओं का मंगलसूत्र चुनावी रण में भाजपा का नया मुद्दा बन कर उभरा और इंडिया ब्लौक ने मंगलसूत्र की निरर्थकता पर मुंह खोलने की हिम्मत नहीं दिखाई.
कानून की नजर में विवाह की वैधता
कोर्ट का यह अजीबोगरीब फैसला शादी की अस्मिता पर सवाल तो उठा रहा है लेकिन हम यहां जानते हैं कि कानून की नजर में विवाह कब वैध माना जाता है?
हिंदू मैरिज एक्ट 1955 की धारा 5 के अनुसार-
- विवाह के लिए किसी भी व्यक्ति या पार्टी को पहले से शादीशुदा नहीं होना चाहिए, यानी कि शादी के समय किसी भी पार्टी में पहले से ही जीवनसाथी नहीं होना चाहिए. इस प्रकार, यह अधिनियम बहुविवाह पर प्रतिबंध लगाता है.
- शादी के समय यदि कोई पक्ष बीमार है तो उस की सहमति वैध नहीं मानी जाएगी, भले ही वह वैध सहमति देने में सक्षम हो लेकिन मानसिक विकारग्रस्त नहीं होना चाहिए जो उसे शादी के लिए और बच्चों की जिम्मेदारी के लिए अयोग्य बनाता है. दोनों में से कोई पक्ष पागल भी नहीं होना चाहिए.
- दोनों पक्षों में किसी की उम्र विवाह के लिए कम नहीं होनी चाहिए.
- दोनों पक्षों को सपिंडों या निषिद्ध संबंधों की डिग्री के भीतर नहीं होना चाहिए, जब तक कि कोई भी कस्टम प्रशासन उन्हें इस तरह के संबंधों के विवाह की अनुमति नहीं देता.
इस के अलावा एक्ट में यह कहीं पर भी नहीं लिखा है कि यदि कोई विवाहित महिला मंगलसूत्र या सिंदूर नहीं पहनती है तो यह पति के साथ क्रूरता का प्रतीक है और इस का यह मतलब हुआ कि महिला शादी को नहीं मानती है.
गुवाहाटी कोर्ट ने यह भी कहा कि महिला ने अपनी तरफ से शादी निभाने का कोई प्रयास नहीं किया. यानी, उस ने मंगलसूत्र पहनने की सहमति नहीं दी. लेकिन सवाल यह उठता है कि शादी का रिश्ता पतिपत्नी दोनों के बीच का होता है तो फिर रिश्ता निभाने का सारा बोझ औरतों के सिर ही क्यों? विवाहित पुरुषों के लिए शादी का कोई सिंबल क्यों नहीं है, ताकि लग सके कि फलां पुरुष भी शादीशुदा है. केवल महिलाओं के लिए ही सारे नियमकानून क्यों बनाए गए हैं? जवाब कौन देगा, क्योंकि यह पुरुषप्रधान देश जो है, ऐसा पुरुषप्रधान देश जिस में हर धर्म औरतों को पुरुषों की सेवा करने का आदेश देता है.
मनुस्मृति में महिलाओं के लिए लिखा गया है कि एक लड़की को हमेशा अपने पिता के संरक्षण में रहना चाहिए. विवाह पश्चात पति द्वारा उस का संरक्षण होना चाहिए और पति के बाद अपने बच्चों की दया पर निर्भर रहना चाहिए. लेकिन किसी भी स्थिति में एक महिला आजाद नहीं हो सकती. यह बात मनुस्मृति के 5वें अध्याय के 148वें श्लोक में लिखी गई है. इस के अलावा मनुस्मृति में दलितों और महिलाओं के बारे में काफीकुछ लिखा गया है जो अकसर विवादों को जन्म देता है.
वैदिक पद्धति और उपनिषदों में कहीं पर भी मंगलसूत्र का जिक्र नहीं है. लेकिन इसे बाद में रूढि़वादी पुजारियों द्वारा पेश किया गया जब हम हिंदू बन गए. इस प्रणाली को पौराणिक पद्धति या पुराणों/ पौराणिक शास्त्रों द्वारा अपनाई गई प्रणाली के रूप में जाना जाता है. हिंदू धर्म के बाद के हिस्से में वैदिक धर्म की उपेक्षा की गई और हिदुओं ने इसे पौराणिक में बदल दिया. हां, विवाह में सात फेरों और सिंदूर का वर्णन जरूर मिलता है.
एक विवाह में बंधे रहने के लिए चूड़ी, सिंदूर और मंगलसूत्र से ज्यादा आपसी सम?ा, प्यार और विश्वास की जरूरत होती है. मंगलसूत्र और चूड़ी जैसी चीजें प्रेम की गारंटी नहीं होतीं. मंगलसूत्र और चूड़ी, सिंदूर पहनना न पहनना एक महिला का खुद का निर्णय होना चाहिए. लेकिन यह बात हाईकोर्ट समझ नहीं पाई और इसे पति के खिलाफ मानसिक क्रूरता की पराकाष्ठा बताते हुए अपना फैसला सुना दिया.
कितनी ही महिलाओं को सिंदूर से एलर्जी और चकत्ते जैसे हो जाते हैं, इसलिए वे इसे मांग में नहीं भरती हैं. पहले सिंदूर हर्बल सामग्री से बनाया जाता था लेकिन आजकल इसे लाल सीसा और पारा के साथ तैयार किया जाता है, जो महिलाओं के लिए हानिकारक सिद्ध हो रहा है. ऐसे सिंदूर लगाने से बाल ?ड़नेकी समस्या, खुजली और इस में मौजूद मरकरी सल्फाइड तत्त्व कैंसर का कारण बन सकते हैं.
इस के अलावा, आज की पढ़ीलिखी एजुकेटेड महिलाएं बड़ीबड़ी कंपनियों में जौब करती हैं, जहां औफिसवियर के साथ मंगलसूत्र और सिंदूर मैच नहीं करता, इसलिए वे इसे नहीं पहनती हैं तो इस का मतलब यह कैसे हो गया कि वे अपने पति को प्रताडि़त कर रही हैं? सच तो यह है कि इस पितृसत्तात्मक समाज में महिलाओं को सिंदूर, चूड़ी, मंगलसूत्र जैसी चीजों में बांध कर रखा गया है लेकिन आश्चर्य तो इस बात का है कि तर्क और तथ्य में विश्वास रखने वाली अदालतों का रुख महिलाओं के खिलाफ क्यों है?
अभी हाल ही में एप्पल कंपनी, फौक्सकौन ने भारत की विवाहित महिलाओं को आईफोन में नौकरी देने से मना कर दिया, यह कहते हुए कि शादीशुदा महिलाओं के पास ज्यादा पारिवारिक जिम्मेदारियां होती हैं और शादी के बाद उन के बच्चे होते हैं. विवाहित महिलाओं का ज्वैलरी पहनना भी प्रोडक्शन को प्रभावित कर सकता है. मतलब, महिलाओं की तो कोई मरजी है ही नहीं. वे क्या पहनें, क्या न पहनें, परिवार व सासससुर का ध्यान रखें न रखें, यह तय वे नहीं कोई और करेगा और वे मूकबधिरों की तरह देखती रहेंगी.
भारतीय सनातन परंपरा में जन्म से ले कर मृत्यु तक के बीच 16 संस्कार के विधान हैं. इन 16 संस्कारों में विवाह संस्कार सब से खास माना जाता है. यह 2 परिवारों के लिए उन के निजी उत्सव, उत्साह और समय के साथसाथ संपन्नता को प्रदर्शित करने का भी एक जरिया रहा है. बल्कि, राजामहाराजाओं के युग में तो विवाह संस्कार कूटनीति का भी हिस्सा रहा है. इस के जरिए बिना किसी युद्ध और शक्ति प्रदर्शन के समाज को सांकेतिक भाषा में ही अपनी ताकत का एहसास करा दिया जाता था.
इन में से अधिकांश संस्कारों में औरतों को कमतर ही माना गया है. यज्ञोपवीत संस्कार तो औरतों का होता ही नहीं. विवाह के समय भी अधिकांश संस्कारी रीतिरिवाज औरत को गुलाम सा बनाने वाले ही होते हैं.
भारत का कानून मैरिटल रेप को अपराध नहीं मानता
मैरिटल रेप या वैवाहिक बलात्कार की अवधारणा ही भारतीय समाज को अनुचित लगती है. समाज इस बात को अपने गले ही नहीं उतार पाया कि आखिर पति की मरजी को कोई पत्नी अस्वीकार भी कर सकती है. जहां पत्नी की इच्छा का कोई मतलब ही न हो, वहां इसे अपराध कैसे माना जा सकता है?
शादी का मतलब ही है एक पति का अपनी पत्नी पर पूर्ण अधिकार. ऐसी सोच के दायरे में भारत में अब भी मैरिटल रेप अपराध नहीं माना जाता है. कानून ने पतियों को इस से मुक्त रखा है, जबकि दुनिया के 150 देशों में इसे अपराध मानते हुए कानून बन चुके हैं. जब भी ऐसा मामला भारतीय न्यायालय के सामने आया, संवेदनशीलता बरती गई. लेकिन महिलाओं के दर्द को किसी ने नहीं समझ, न देश ने, न समाज और परिवार ने और न ही देश के कानून ने. एक अच्छा लोकतंत्र वही होता है जो अपने नागरिकों की समस्याओं को सम?ो. उसे प्रताडि़त होने और रोनेकलपने से पहले ही उस के अधिकार दे दे, जो एक गरिमापूर्ण जीवन जीने के लिए जरूरी होता है.
बलात्कारी से करो शादी
इलाहाबाद हाईकोर्ट ने पोक्सो एक्ट के तहत जेल में बंद एक आरोपी को अंतरिम जमानत दे दी ताकि वह शिकायतकर्ता, जिस का उस ने रेप किया था, से शादी कर सके. कोर्ट ने राज्य सरकार की इस दलील के बावजूद आरोपी को जमानत की अनुमति दे दी कि लड़की की अभी शादी की उम्र नहीं हुई है, क्योंकि वह अभी केवल 17 साल की है.
बलात्कार कानून का एक नियम है जिस के तहत बलात्कार, यौन उत्पीड़न, वैधानिक बलात्कार, अपहरण या इसी तरह का कोई अन्य कृत्य करने वाले व्यक्ति को दोषमुक्त कर दिया जाता है यदि वह पीडि़त महिला से विवाह कर लेता है या कुछ अधिकार क्षेत्रों में कम से कम उस से विवाह करने की पेशकश जरूर करता है. ‘बलात्कारी से विवाह करो’ कानून अभियुक्त के लिए अभियोजन या दंड से बचाने का एक कानूनी तरीका है.
‘सहमति से बनाए गए संबंधों के बाद अगर कोई शादी से इनकार कर दे तो इसे रेप नहीं माना जाएगा,’ यह टिप्पणी केरल हाईकोर्ट की है. रेप के आरोप में गिरफ्तार एक वकील की जमानत पर सुनवाई के दौरान जस्टिस बेचू कुरियन थौमस की बैंच ने यह बात कही थी. साथ ही, आरोपी को जमानत भी दे दी थी.
जमानत तो खैर दे देना गलत नहीं अगर पूरी सुनवाई को जमानत का आदेश प्रभावित न करे. सजा तो निर्णय देने के बाद ही मिलती है.
केरल हाईकोर्ट के मामले में महिलावादी लेखिका कविता कृष्णन कहती हैं कि कोर्ट का यह फैसला सही है लेकिन इस का यह मतलब नहीं कि लड़कियों के साथ गलत नहीं होता. कई बार लड़के बिना बताए दूसरी शादी कर लेते हैं, रिश्ता तोड़ देते हैं या लड़कियों को गलत तरीके से ट्रीट करते हैं. लेकिन रिश्ते में चीटिंग कानूनी मसला नहीं बल्कि सामाजिक और पितृसत्तात्मक नजरिए का मामला है.
विजातीय विवाह पर सवाल
2020 में उत्तर प्रदेश सरकार द्वारा ‘उत्तर प्रदेश विधि विरुद्ध धर्म परिवर्तन प्रतिषेध अध्याय’ जारी किया गया था. देश में कई अन्य राज्यों की सरकारें भी ऐसे ही भारीभरकम प्रावधानों को लागू करने की प्रक्रिया में हैं. उत्तर प्रदेश सरकार द्वारा जारी विविध बल सीआरवाई, प्रभावशाली, धोखाधड़ी से या विवाह के उद्देश्य से किए जाने वाले किसी भी धर्मांतरण को प्रतिबंधित करता है, साथ ही, इस तरह के विवाह को अवैध घोषित किए जाने का प्रावधान भी करता है और धर्मांतरण के तहत एक गैरजमानती अपराध माना जाता है.
इलाहाबाद हाईकोर्ट ने धर्मांतरण की प्रवृत्ति को ले कर गंभीर टिप्पणी करते हुए कहा कि यदि धार्मिक सभाओं में धर्मांतरण की प्रवृत्ति जारी रही तो एक दिन भारत की बहुसंख्यक आबादी अल्पसंख्यक हो जाएगी. इसलिए धर्मांतरण करने वाली धार्मिक सभाओं पर तत्काल रोक लगाई जानी चाहिए. यह आदेश न्यायमूर्ति रोहित रंजन अग्रवाल ने हिंदुओं को ईसाई बनाने के आरोपी मौदहा, हमीरपुर के कैलाश की जमानत अर्जी को खारिज करते हुए दिया.
एक उच्च न्यायालय रेप करने के गुनाहगार को जमानत देता है कि वह पीडि़ता से विवाह कर सके, दूसरे उस युवक को जमानत नहीं देता जिस ने विधर्मी से विवाह किया. यह कैसा न्याय है?
भारतीय संविधान के अनुच्छेद 25 से 28 तक एक भारतीय नागरिक को अपनी पसंद के किसी भी धर्म को स्वीकार करने का अधिकार प्राप्त है. जबकि उत्तर प्रदेश सरकार द्वारा लाया गया कानून किसी व्यक्ति द्वारा अपनी पसंद के चुनावों में हस्तक्षेप कर के उस की व्यक्तिगत स्वतंत्रता का हनन करता है.
उत्तर प्रदेश सरकार द्वारा जारी यह धर्मांतरण निषेध नीति महिलाओं के किसी भी रिश्तेदार को उस के विवाह की वैधता को चुनौती देने की अनुमति देता है यानी पतिपत्नी के संबंधों पर तीसरे बाहरी व्यक्ति को दखल देने का हक. अगर पति को गिरफ्तार कर लिया जाएगा, यह पत्नी क्या घी के दीये जलाएगी?
ऐसी स्थिति में प्रभाव उलटा पड़ेगा जिस के तहत धर्मांतरण और विवाह के लिए महिला की सहमति होने की गवाही को अनदेखा किया जाएगा.
असल में सदियों से पितृसत्तात्मक सोच यह रही है कि महिलाओं को स्वतंत्र नहीं होने देना है. उन्हें नियंत्रण में रखना है. महिलाओं के जीवन से जुड़ी महत्त्वपूर्ण बातों पर उन की सहमति जरूरी नहीं मानी जाती है और उन्हें अपने जीवन के निर्णय लेने के अधिकारों से भी वंचित रखा जाता है.
ऐतिहासिक रूप से विवाह को महिलाओं की कामुकता को नियंत्रण करने, जातिगत जातियों को बढ़ावा देने और महिलाओं को उन की स्वात्यतता का प्रयोग करने से रोकने के लिए एक माध्यम के रूप में देखा जाता रहा है. इस प्रकार के सांप्रदायिक दुष्प्रचार का महिलाओं के अधिकारों की रक्षा करने में कोई योगदान नहीं होता है, बल्कि यह उन के पैरों में बेडि़यां डालने का काम करता है.
क्यों आसान नहीं है एक महिला के लिए तलाक लेना
समाज की सोच आज भी उसी ढर्रे पर है जहां महिलाओं को यह समझाइश दी जाती है कि भले ही पति से नहीं बन रही है पर साथ रहो, वरना समाज तुम पर ही थूकेगा. लेकिन बात तो यह है कि महिलाओं को दी गई हर इंच आजादी के लिए खतरा है. लगभग हर समाज के नियम महिलाओं के हितों के विरुद्ध है. अंतर बस इतना है कि कोई नियम ज्यादा खिलाफ है और कोई कम.
हमारे समाज में शादी को उम्रभर के बंधन की तरह देखा जाता है. शादी में हिंसा और उत्पीड़न की वजह से भले ही दरार पड़ने लगे पर महिलाओं को परंपरा के नाम पर बरदाश्त करने की सलाह दी जाती है. मुश्किल शादियों में फंसी महिलाओं से अकसर यह कहा जाता है कि अलग हुए तो समाज क्या कहेगा? परिवार व समाज के दबाव के कारण ही महिलाएं एक असहनीय रिश्ते की गिरफ्त में कैद हो कर घुटघुट कर जीने को मजबूर हो जाती हैं. अगरकोई महिला शादी के बंधन को तोड़ कर तलाक लेने का फैसला लेती है तो समाज उसे ही गलत ठहराने का प्रयास करता है.
मुआवजे बिना गुजारा
तलाक लेने के बाद भी महिलाओं की स्थिति में कोई ज्यादा सुधार नहीं होता, क्योंकि उन्हें बहुत कम मेंटिनैंस मिलता है या मिलता ही नहीं है. 2021 में इलाहाबाद हाईकोर्ट में एक मामले की सुनवाई हुई, जिस में गुजारा भत्ता देने से बचने के लिए पति नामपता बदल कर गायब हो गया. उसे खोजने के लिए बनी पुलिस टीम भी उस का कुछ पता नहीं लगा पाई. तलाक की चाह में पति एलिमनी पर हामी तो भर देते हैं, लेकिन डायवोर्स मिलते ही कहीं गायब हो जाते हैं. वरिष्ठ अधिवक्ता मनीष भदौरिया कहते हैं कि तलाक के बाद पति गुजारा भत्ता से बचने के लिए तरहतरह के जुगाड़ लगाते हैं.
राजकोट की रहने वाली 52 साल की मीना बेन का कहना है कि उस के 2 युवा बेटे हैं. पति सरकारी जौब में हैं. सबकुछ बढि़या चल रहा था, लेकिन असल में पति का किसी और औरत से चक्कर चल रहा था. जब महिला ने इस बात पर पति से सवाल किया तो वह उखड़ गया और बच्चों को छोड़ कर घर से चला गया. जातेजाते उस ने धोखे से तलाक पेपर पर साइन भी ले लिए. महिला ने अदालत का दरवाजा खटखटाया. गुजरात हाईकोर्ट ने उस के हक में फैसला भी सुनाया. लेकिन उसे अब तक न्याय नहीं मिला. हाईकोर्ट के आदेश के बावजूद 14 वर्षों से वह महिला गुजाराभत्ता पाने के लिए लड़ रही है. मीना बेन एकलौती महिला नहीं है जो गुजाराभत्ता के लिए एडि़यां रगड़ रही है. ऐसे ढेरों मामले हैं.
भारत में विवाह समाप्त करना अधिकांश व्यक्तियों के लिए दर्दनाक होता है, लेकिन महिलाओं के लिए यह स्थिति और भी बदतर हो जाती है, जिन्हें समझने की शर्तों को समझना पड़ता है.
मिताली अपनी 11 साल की शादी से ऊब चुकी है. वह कहती है कि पति की ज्यादतियां अब उस की बरदाश्त के बाहर हैं. न तो वह अपने पति से लड़ना चाहती है और न ही उसे उस से कोई गुजाराभत्ता चाहिए. वह, बस, इस अशांत विवाह से बाहर निकलना चाहती है.
हिंदू विवाह अधिनियम जैसे कुछ व्यक्तिगत कानूनों के तहत पति भी भरणपोषण के लिए क्लेम कर सकता है, लेकिन यह कानून केवल निर्दिष्ट धर्मों से संबंधित व्यक्तियों को भरणपोषण के लिए आवेदन करने की अनुमति देता है.
दंड प्रक्रिया संहिता (सीआरपीसी) की धारा 125 में भी भरणपोषण का प्रावधान है. यह एक धर्मनिरपेक्ष प्रावधान है जिस के तहत सभी धर्मों की महिलाएं भरणपोषण के लिए आवेदन कर सकती हैं.
एक वरिष्ठ वकील संध्या राजू का कहना है कि ‘धारा 125 सीआरपीसी का मुख्य उद्देश्य तलाक के बाद महिला को बेसहारा होने से बचाना है. इसलिए जब कोई महिला भरणपोषण के लिए अदालत जाती है तो बहुत उम्मीद के साथ जाती है और अदालत ज्यादातर मामलों में सहायक भी रही है. लेकिन भरणपोषण आदेश का प्रभावी क्रियान्वयन हमेशा उस पुरुष पर निर्भर करता है जिसे भुगतान करना होता है.
तलाक का अधिकार
साल 2020 में टाइम्स ग्रुप के ‘मुंबई मिरर’ के लिए चित्रा सिन्हा की किताब ‘डिबेटिंग पैट्रिआर्की, द हिंदू कोड बिल कंट्रोवर्सी इन इंडिया (1941-1959) पर एक आर्टिकल में लिखा था, जिस में उन्होंने तलाक के अधिकार के लिए महिलाओं का संघर्ष बताया था. ऐसा संघर्ष जो जारी है. वजह है कि भले ही कानून ने महिलाओं को अधिकार दिए हैं लेकिन अदालत की लंबी प्रक्रिया और समाज का दबाव तलाक लेना मुश्किल बना देता है. कठिनाई महिला व पुरुष दोनों के लिए है पर महिलाओं के लिए थोड़ा ज्यादा ही.
यह किताब 1948 में बनाए जा रहे हिंदू कोड बिल पर है जिस में हिंदू महिलाओं को तलाक का अधिकार देने की मांग की गई थी. चित्रा सिन्हा की इस किताब पर विरोध के स्वर भी उठे. राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की ओर से बुलाई गई बैठक में एक वक्ता कथित तौर पर बोले थे कि यह बिल हिंदू समाज पर एटम बम है. वहीं एक अखबार के संपादक इस की तुलना विभाजन से करते हैं.
उसी बैठक में बैठे एक नेता कहते हैं कि तलाक के अधिकारों से गरीब का जीवन मुश्किल हो जाएगा. उन्हें अदालत में जाना पड़ेगा और वकील करना पड़ेगा. बाद में जवाहरलाल नेहरू ने हिंदू विवाह कानून 1955 व हिंदू विरासत कानून 1956 बनवा कर कागजों पर तो औरतों को सजा दी. ये कानून हिंदू धर्मशास्त्रों की नीयत के विरुद्ध थे.
सच तो यही है कि आज भी हमारे भारतीय समाज में महिलाओं के लिए तलाक लेना आसान नहीं है. तलाक के बाद भी एक महिला को ही समाज को जवाब देना पड़ता है, पुरुष को नहीं. यह एक गहरी सोच है कि स्त्री चाहे पद और पैसे में कितनी ही बड़ी क्यों न हो, लेकिन वह रहेगी पुरुष से नीचे ही. अदालतों में वकील, जज, गवाह सब यही कोशिश करते हैं कि किसी तरह आसानी से तलाक न हो पाए.
हमारे समाज में जहां एक लड़के के जन्म पर खुशी मनाई जाती है वहीं एक लड़की के जन्म पर मातम छा जाता है. लड़की के जन्म के बाद उस के बचपन से ही मातापिता पैसे जोड़ने लगते हैं ताकि उसे दूसरे घर भेजा जा सके. उसे शिक्षित करने, कैरियर बनाने या खुद से जीवन जीने से हतोत्साहित करना, उस से कहना कि वह तो पराया धन है और एक दिन यह घर छोड़ कर चली जाएगी आदि सब कह कर मातापिता एक लड़की को बचपन से ही यह एहसास दिला देते हैं कि वह इस घर के लिए पराई अमानत है और बड़ी होने के बाद उसे दूसरे घर जाना है.
लड़की को एक संपत्ति की तरह ट्रीट किया जाता है. जताया जाता है कि वह किसी एक पुरुष की संपत्ति है जिसे शादी के बाद उसे सौंप दिया जाएगा और फिर वह उसे चाहे जैसे इस्तेमाल करे. शादी के बाद एक महिला का कर्तव्य पति की सेवा करना और उस का वंश बढ़ाना मात्र ही रह जाता है. आज भले ही समाज कई चीजों के प्रति दृष्टिकोण बदल रहा है लेकिन महिलाओं को पुरुष से नीचे रखने की सोच नहीं बदली है. कानूनों में बदलाव क्या हो रहा है. अब यूनिफौर्म सिविल कोड के नाम पर जो कानून बन रहे हैं उन में औरतों को 1955, 1956 और 2005 में दिए गए हकों का क्या किया जा रहा है.
औरतों के प्रति दुराभाव कितना है, यह इस से स्पष्ट होता है कि एमपी हाईकोर्ट ने एक मामले की सुनवाई के दौरान कहा था कि पत्नी के साथ अप्राकृतिक यौन संबंध बनाना बलात्कार नहीं है. साथ ही, हाईकोर्ट ने यह भी कहा था कि चूंकि वैवाहिक बलात्कार आईपीसी के तहत अपराध नहीं है, इसलिए पत्नी की सहमति महत्त्वहीन हो जाती है.
जस्टिस गुरपाल सिंह अहलूवालिया की बैंच ने कहा कि यदि एक पत्नी वैध विवाह के दौरान अपने पति के साथ रह रही है तो पति द्वारा अपनी पत्नी (15 साल से ऊपर) के साथ किसी भी प्रकार का यौन संबंध बलात्कार नहीं होगा. बता दें कि अक्तूबर 2017 में सुप्रीम कोर्ट ने इंडिपैंडैंट थौट बनाम यूनियन औफ इंडियन (2017) के फैसले में नाबालिग पत्नी के साथ यौन संबंध को बलात्कार की श्रेणी में लाने के लिए धारा 375 के अपवाद 2 में उम्र को 18 साल के बजाय 15 साल कर दिया था.
बालविवाह अब भी जारी
बालविवाह को ले कर सरकार ने भले ही सख्त कानून बनाए हों और सजा का प्रावधान भी रखा हो लेकिन बालविवाह आज भी बेरोकटोक जारी है. जिस उम्र में लड़कियां पढ़नेलिखने और जिंदगी में कुछ कर गुजरने के सपने देखती हैं, उस नाजुक उम्र में लड़कियों की शादी उस से बड़े उम्र के पुरुष से करा दी जाती है और फिर उसे बच्चे पैदा करने को मजबूर किया जाता है. लेकिन लोग छोटी उम्र में मां बनाने के जोखिम को समझ नहीं पाते हैं.
एक टीवी चैनल ने उन इलाकों का रुख किया जहां औरतों की शादी होते ही उन्हें बच्चा पैदा करने की मशीन से ज्यादा कुछ नहीं समझ जाता. उम्र 16 की हो या 18 की, शादी के 9 महीने बाद से उसे मां बनाने के लिए मजबूर किया जाने लगता है और अगर किसी कारणवश लड़की मां नहीं बन पाती है तो उस के साथ मारपिटाई शुरू हो जाती है. धमकी दी जाती है कि अगर वह मां नहीं बनी तो उस की शादी टूट जाएगी और इसी डर से लड़कियां कम उम्र में मां बनने को मजबूर हो जाती हैं, यह सोच कर कि कहीं उस की शादी न टूट जाए, पति उसे घर से न निकाल दे.
सीमा की शादी 15 साल की उम्र में कर दी गई और शादी के अगले साल यानी 16 साल की उम्र में उस के पेट में बच्चा आ गया. लेकिन वह बच्चा उस के पेट में ठहर नहीं पाया. ऐसे कर के 5 बार उस का मिसकैरेज हो चुका है. वह कहती है कि अब उस का शरीर पहले जैसा नहीं रहा, काफी कमजोर हो चुका है. लेकिन फिर भी उसे मां बनना है नहीं तो उस का पति उसे छोड़ देगा. यह कहते हुए उस की आंखों से आंसू ढलक पड़ते हैं.
20 साल की सावित्री की शादी को 4 साल हो चुके हैं लेकिन अब तक वह मां नहीं बन पाई है. वह अपना इलाज किसी डाक्टर से न करवा कर एक तांत्रिक से झाड़फूंक करवा रही है ताकि वह मां बन सके और उस का पहला बच्चा बेटा ही पैदा हो क्योंकि उस की सास और पति ऐसा चाहते हैं.
मन से डरपोक
यूपी के एक गांव की रहने वाली मालती की शादी को 9 साल हो चुके हैं. वह कहती है कि शादी के एक साल बाद से ही ताने शुरू हो गए कि अब तक वह पेट से क्यों नहीं हुई. जैसेजैसे साल आगे बढ़ता गया, वैसेवैसे पति का अत्याचार भी बढ़ता चला गया. शराब के नशे में चूर पति उसे इस बात की धमकी देता था कि अगर वह उसे बच्चा नहीं दे सकती तो उसे धक्के मार कर इस घर से बाहर निकाल देगा और दूसरी शादी कर लेगा. तबीयत खराब में भी पति उसे इलाज के लिए पैसे नहीं देता था. एक दिन तंग आ कर वह खुद ही ससुराल छोड़ आई और मायके में रहने लगी. लेकिन यहां भी भाईभाभी उसे देखना नहीं चाहते, कहते हैं कि वह वापस ससुराल चली जाए. लेकिन मालती अब किसी भी हालत में अपने पति के पास नहीं जाना चाहती है.
रिलेशनशिप एक्सपर्ट डाक्टर गीतांजलि शर्मा का कहना है कि लंबे समय से घरेलू हिंसा झेल रही महिलाएं मन से डरपोक हो चुकी होती है. उन्हें हर वक्त इस बात का डर लगा रहता है कि घर आने पर पति उसे मारेगापीटेगा तो नहीं?
मालती अपने पति से अलग हो चुकी है और वह अब अपने मायके में रहती है पर यहां भी उसे भाईभाभी के तानोंउलाहनों से गुजरना पड़ता है जो उसे मानसिक कष्ट देता है. मालती जानती है कि बापदादा की अर्जित संपत्ति में उस का भी बराबर का अधिकार है पर वह बोलने से डरती है कि कहीं यहां से भी मां, भाईभाभी ने उसे निकाल दिया तो फिर वह कहां जाएगी.
हिंदू विरासत कानून के तहत कांग्रेस काल में 2005 में हुए संशोधन के बाद बेटियों को बेटों के बराबर ही पैतृक संपत्ति के अधिकार हैं. लेकिन फिर भी महिलाएं अपने अधिकार से वंचित हैं तो इसलिए कहीं उस के ऐसा करने से मायके से उस का रिश्ता न टूट जाए.
45 साल की गोदावरी कहती है कि उस ने केवल अपने बापदादा की संपत्ति में हिस्से की बात की और भाइयों ने उस का फोन नंबर ब्लौक कर दिया. अगर लड़झगड़ कर संपत्ति ले लेती तो शायद वे लोग उस की जान ही ले लेते. कानून के दिए अधिकार को ले कर वह कहती है कि वह सब सिर्फ कागजों में ही सिमट कर रह गए हैं. अगर सच में कानून बेटियों को उस के अधिकार दिला पाते तो मानते.
इस पुरुषसत्तात्मक समाज में अजीबोगरीब तर्क दे कर महिलाओं को उन के अधिकार से वंचित रखने की कुचेष्टा की जाती रही है. बात चाहे पैतृक संपत्ति में अपने अधिकार की हो, सवैतनिक मातृत्व अवकाश की हो, कार्यस्थल पर नवजात शिशु की देखभाल की हो या समान वेतन की हो, महिलाओं को हर जगह वंचित रखा गया है.
देखा जाए तो आजादी के इतने सालों बाद भी देश की आधी आबादी अभी भी गुलाम है. वह अपने अधिकारों के लिए आज भी संघर्ष कर रही है. वैश्विक महामारी कोरोना ने इन के संघर्षों को और बढ़ा दिया था. यह कहना गलत नहीं होगा कि पूरी दुनिया में महिलाओं की स्थिति हमेशा हाशिए पर रही है. महिला सशक्तीकरण के तमाम दावे इस सत्य को झुठलाते नजर आते हैं कि महिलाओं को पूरी तरह से पुरुषों के बराबर अधिकार प्राप्त हैं. सचाई यह है कि अपने छोटेबड़े अधिकार के लिए महिलाओं को अदालत का दरवाजा खटखटाना पड़ता है और यह भी जरूरी नहीं है कि वहां उन्हें न्याय मिल ही जाए.
वहीं, यह भी सच है कि पहले के मुकाबले आज कहीं ज्यादा बच्चियां शिक्षा पा रही हैं, बालविवाह और खतना जैसी कुप्रथाओं में गिरावट आई है. महिला स्वास्थ्य की दिशा में प्रगति हुई है जिस की वजह से महिलाओं की औसत उम्र में इजाफा हुआ है. इसी तरह बच्चों को जन्म देते समय महिलाओं की होने वाली मौतों की दरों में भी गिरावट आई है. अब पहले से ज्यादा महिलाएं संसद पहुंच रही हैं. उन के खिलाफ होने वाली हिंसा पर लोग बोलने लगे हैं. महिला श्रमिकों के अधिकारों में भी बढ़ोतरी हुई है. 155 देशों में अब घरेलू हिंसा कानून हैं. 140 देशों के पास कार्यस्थल पर होने वाले यौन उत्पीड़न से जुड़े कानून हैं.
इस सब के बावजूद महिलाओं और पुरुषों के बीच असमानता की जो खाई है उसे अनदेखा नहीं किया जा सकता. उन के बीच इस गहरी खाई को भरने में सदियों लग जाएंगे. भले ही हम ने विकास के कितने ही पायदान चढ़ लिए हों, लेकिन आज भी महिलाओं को पुरुषों के बराबर दर्जा नहीं मिल पाया है. महिलाएं आज भी रोजगार, आय, शिक्षा, स्वास्थ्य सहित कई क्षेत्रों में पुरुषों से पीछे हैं.
लेकिन देश और कानून को यह बात सम?ानी होगी कि समाज को महिलाओं के अनुकूल बनाए बिना हम सभ्य नहीं कहलाए जा सकते. सुप्रीम कोर्ट ने महिलाओं के अधिकारों की रक्षा के लिए कई महत्त्वपूर्ण कदम उठाए हैं, लेकिन उस का असर अभी दिख नहीं रहा है.
चीन के राजनीतिक विचारक माओत्से तुंग ने एक बार कहा था कि ‘आधा आकाश महिलाओं का है’ लेकिन महिलाओं की स्थिति को देख कर लगता है कि न तो उन की धरती आधी है और न ही आधा आकाश.
महिला अधिकारों की रक्षा की जंग केवल महिलाओं के लिए नहीं, बल्कि समाज के विकास के लिए भी जरूरी है, यह बात देश के कानून, सरकार और समाज को समझनी होगी, तभी असल में देश का विकास होगा.
महंगा इंसाफ और लंबा इंतजार
सुप्रीम कोर्ट के चीफ जस्टिस रह चुके आर सी लाहोटी ने अपने विदाई भाषण में कहा था, ‘‘मैं ने देश की सर्वोच्च अदालत की प्रमुख कुरसी पर बैठ कर यह नजारा देखा है कि यहां एक गरीब, आम इंसान को इंसाफ मिलना तो दूर की बात है, अगर वह अदालत की चौखट तक भी पहुंच जाए, यही बहुत बड़ी बात है. क्योंकि न्याय मिलना भी अब इतना महंगा हो चुका है जिस के बारे में कभी सोचा तक नहीं था. इसलिए आज मेरी आंखें नम हैं क्योंकि मैं चाहते हुए भी देश की न्यायिक प्रक्रिया में सुधार लाने के लिए बहुतकुछ नहीं कर पाया.’’
देश के महान लेखक मुंशी प्रेमचंद ने वर्षों पहले लिखा था कि ‘न्याय वह है जो दूध का दूध और पानी का पानी कर दे. यह नहीं कि खुद कागजों के धोखे में आ जाए और खुद ही पाखंडियों के जाल में फंस जाए.’
दुनिया के तमाम बड़े कानूनविदों ने कहा है कि न्याय सिर्फ होना ही नहीं चाहिए, बल्कि होते हुए दिखना भी चाहिए. लेकिन, देरी से मिलने वाला न्याय एक नए जुर्म की जमीन तैयार करता है.
कानूनी अधिकारों से वंचित महिलाएं
वर्ल्ड बैंक ने कुछ समय पहले दुनिया के प्रमुख 187 देशों में कुछ 35 पैमानों के आधार पर एक सूची तैयार की. इस में संपत्ति के अधिकार, नौकरी की सुरक्षा व पैंशन पौलिसी, विरासत में मिलने वाली चीजें, शादी संबंधित नियम, यात्रा के दौरान सुरक्षा, निजी सुरक्षा, कमाई आदि आधार पर जब आंकड़े जुटाए तो पता चला कि दुनिया में केवल कुछ देश ही ऐसे हैं जहां वाकई महिलाओं को उन के अधिकार प्राप्त हैं. हालांकि एकदो दशकों पहले महिलाओं को बराबरी का दर्जा किसी भी देश में नहीं था, यानी यह संख्या शून्य थी. लेकिन बीते सालों में इस में प्रगति हुई. बराबरी के 35 मानदंडों पर खरा उतरने वाले कुछ देश ही हैं. लेकिन भारत नहीं है.
वर्ल्ड बैंक की एक अन्य रिपोर्ट के मुताबिक, दुनियाभर में करीब 240 करोड़ महिलाएं पुरुषों के समान अधिकारों से वंचित हैं. पुरुषों की तुलना में महिलाएं अपने कानूनी अधिकारों का बमुश्किल 77 फीसदी ही लाभ ले पाती हैं.
यह बात हमारे देश के लिए सचमुच ही शोचनीय है कि जिसे हम जननी कहते हैं, पूजनीय कहते हैं और जिसे देवी का दर्जा मिला हुआ है, उसी देश की महिलाओं को अपने हक के लिए अदालतों का दरवाजा खटखटाना पड़ रहा है और वहां उन्हें ज्यादातर निराशा ही हाथ लग रही है.
सुप्रीम कोर्ट और सरोगेसी एक्ट
भाजपा सरकार ने सरोगसी (रैगुलेशन) एक्ट 2021 बना व इस के अंतर्गत 2022 व 2023 में कठिन नियम बना कर सरोगेसी की मैडिकल साइंस का फायदा औरतों को न मिल सके, इस का पक्का इंतजाम कर डाला है. मातृ सुख न पा सकने योग्य औरतें अब किराए की कोख आसानी से नहीं पा सकतीं. एबीसी बनाम यूनियन औफ इंडिया मुकदमे में 4-5 औरतों, जिन्हें मेयर-रोकिटांस्की-कुस्टर-हाउसर नाम की बीमारी थी, को 2022 में सीधे सुप्रीम कोर्ट पहुंचना पड़ा और बड़े बेमन से अक्तूबर 2023 में उन में से 1 को सरोगेसी करवाने की इजाजत मिली.
नए कानून के अनुसार सरोगेट मदर केवल जेनेटिकली रिश्तेदार महिला हो सकती है. इस मामले में आवेदक महिलाओं को 22-23 वकील खड़े करने पड़े थे, तब भी फैसला कम से कम एक साल बाद हुआ.
अभी भी सरोगेसी एक्ट के तहत औरतों का अपने शरीर पर हक है या नहीं, यह स्पष्ट नहीं है. औरतों की कोख पर हक पति का है, सरकार का है, कानून का है, वकीलों का है, औरतों का नहीं.