राजनीति हो या बिजनेस सही उत्तराधिकारी का चयन ही विरासत को आगे बढ़ाता है. यदि उत्तराधिकारी ढूंढने में समय लगता है तो परिणाम भविष्य में घातक भी साबित होते हैं.
‘पूत सपूत तो क्या धन संचय, पूत कपूत तो क्या धन संचय’ एक कहावत है. इस का मतलब है कि अगर आप का बेटा सपूत है, यानी योग्य, समझदार और जिम्मेदार है, तो उस के लिए धन संचय करने की जरूरत नहीं है. ऐसा बेटा अपनी मेहनत से धन कमा लेगा और जीवन में सफल होगा. दूसरी तरफ अगर आप का बेटा कपूत है, यानी गैरजिम्मेदार, आलसी या गलत रास्ते पर है तो भी धन संचय करने का कोई मतलब नहीं है. ऐसा बेटा संचय किए गए धन का सही इस्तेमाल नहीं करेगा और उसे बरबाद कर देगा.
आज समाज में स्टार्टअप करने वाले कई युवाओं के उदाहरण हैं. जिन के लिए मातापिता ने कोई कारोबार का खजाना नहीं छोड़ा, फिर भी अपनी योग्यता और क्षमता से सफल लोगों में गिने जाते हैं. आज इस कहावत पर चर्चा इसलिए क्योंकि अरबपति वारेन बफेट ने अपनी संपत्ति का एक बड़ा हिस्सा ट्रस्ट को दिया और अपने बच्चों को उन की जरूरत भर का ही पैसा दिया. उन्होंने कहा कि बच्चों के लिए इतना ही पैसा नहीं छोड़ना चाहिए कि वह काम न करे और इतना कम भी नहीं छोड़ना चाहिए कि वह काम करने लायक ही न रहे.
सवाल उठता है कि क्या अपनी मेहनत की कमाई उन ट्रस्टों को देना चाहिए जिन का आप और आप की संपत्ति से कोई मानसिक लगाव नहीं है ? क्या ऐसे ट्रस्ट और उन के डायरैक्टर आप की भावना के अनुसार काम करेंगे ? अगर आप का पैसा आप की संतानों को जाएगा तो क्या वो आप की विरासत को आगे नहीं बढ़ाएगें ? भारत के समाज में ऐसे उदाहरण कम मिलते हैं. विदेशों में ऐसे बहुत सारे उदाहरण मिल जाते हैं. भारत में राजनीतिक दलों में ऐसे उदाहरण मिलते हैं जहां विरासत अपनी संतान को भी दी गई.
कौन है वारेन बफेट ?
फोर्ब्स की लिस्ट के अनुसार वारेन बफेट दुनिया के अमीरों की लिस्ट में छठें पायदान पर हैं. वारेन बफेट के पास 147.2 बिलियन डौलर से अधिक की संपत्ति है. वारेन बफेट ने अपने ही पिता से कारोबार करना सीखा और उन के काम से ही अपने कैरियर की शुरूआत की. 30 अगस्त 2024 को वारेन बफेट का 94वां जन्मदिन था. वारेन बफेट के पिता हौवर्ड बफेट स्टोक ब्रोकर थे. इस वजह से बचपन से ही वारेन बफेट की रुचि स्टोक में थी. सब से पहले वारेन ने वर्ष 1942 में अमेरिकी पेट्रोलियम कंपनी सिटीज सर्विस के 3 शेयर खरीदे थे. सिटीज सर्विस के 3 शेयर खरीदने के 4 महीने बाद उन्हें इन स्टोक से 5 डौलर का मुनाफा हुआ था.
इन शेयर की खरीद से ही उन के निवेश का सफर शुरू हुआ था. इस के बाद उन्होंने शेयर बाजार में निवेश करना शुरू किया. शेयर में निवेश कर के वारेन बफेट 56 साल की उम्र में अरबपति बन गए. वारेन बफेट ने 99 फीसदी संपत्ति 50 साल के उम्र के बाद कमाई है. लगातार निवेश कर के वारेन ने वर्ष 1944 में निवेश के जरिए 228 डौलर से ज्यादा की राशि कमाई थी. इसी तरह निवेश की दुनिया में अपना परचम लहराया. उन की कंपनी हैथवे के शेयर दुनिया के सब से महंगे शेयर हैं.
वारेन बफेट ने 1952 में सुसान थाम्पसन से शादी की थी. उन के 3 बच्चे सूसी, हावर्ड और पीटर है. जुलाई 2004 में सुसान की मौत हो गई. 2006 में बफेट ने एस्ट्रिड मेंक्स से दूसरी शादी कर ली. वारेन बफेट अपनी वसीयत को ले कर चर्चा में है. वारेन बफेट ने अपनी संपत्ति का 85 प्रतिशत बिल और मेलिंडा गेट्स फाउंडेशन सहित 5 धर्मार्थ संगठनों को जाएगा. शेष 15 प्रतिशत में से कुछ उन के बच्चों को जाएगा. कुछ लोग इस फैसले की प्रशंसा कर रहे हैं पर असल में यह बहुत आदर्श नहीं है. वारेन को ट्रस्ट भी बनानी हो तो बनाए पर उसे चलाने की जिम्मेदारी अपनी जैविक संतानों को दे क्योंकि बाहरी लोग चाहे जितने नाम वाले हों वे कब बेईमानी करने लगें कहा नहीं जा सकता. सरकार को ट्रस्टी मान कर जनता खरबों रुपए टैक्स के रूप में देती है पर ऊपर से नीचे तक सभी, सभी देशों में, बेईमानी करते रहते हैं.
यूक्रेन में प्रेजिडेंट ने थोड़े दिन पहले कुछ रीजनल मिलिट्री जनरलों को हटाया था क्योंकि वे रिश्वत ले कर लोगों को देश छोड़ने का रास्ता दे रहे थे. देश को रूसी हमले से बचाने वाले भी रिश्वतखोरी से बाज नहीं आते तो आम सिविलियन का तो कहना क्या.
जीवित रहते पिता करे हिस्सेदारी की तैयारी
भारत में हिंदू विरासत कानूनों में समाज उत्तराधिकारी के रूप में संतान को ही मान्यता दी जाती है. ऐसे में जरूरी होता है कि पिता अपनी संपत्ति अपनी संतान को ही दे. यदि वह पूरा कंट्रोल किसी कारण नहीं देना चाहता तो ट्रस्ट बना कर संपत्ति उस के नाम करने से धन का उपयोग ट्रस्ट के डायरैक्टर के विवेक पर छोड़ना गलत होगा. यह हमारे यहां कम ही होता है.
वास्तव में ट्रस्टीयों का किसी और के कमाए धन से कोई भावनात्मक लगाव नहीं होता. इस कारण वह सही तरह से धन का इस्तेमाल नहीं करते हैं. ऐसे में जरूरी है कि पिता समय रहते अपनी संतानों को अपने कारोबार से परिचित कराए. उस को काम करना सिखाएं फिर समय आने पर उसे संतान के हवाले कर दे.
अगर बच्चे एक से अधिक हैं तो उन की योग्यता के हिसाब से बंटवारा करें और यह फैसला जीवित रहते बच्चों को सुनाएं और समझाएं.
कारोबारी परिवारों में संतान को ही अधिकार मिलते हैं. जिस के तहत वह संपत्ति का प्रयोग अपने हिसाब से करते हैं. अम्बानी परिवार में संपत्ति का बंटवारा मुकेश अंबानी और अनिल अंबानी को किया गया था. यह बात और है कि दोनों भाईयों ने अपनेअपने मुकाम तय किए. ऐसे में संपत्ति का बंटवारा संतानों के बीच हो और उन को पहले से ही इस जिम्मेदारी के लिए तैयार किया जाए. जिस से वह संपत्ति के बोझ में बिखर न जाए.
सामान्य बिजनेस परिवार इसी तरह से अपनी तैयारी करते हैं. पिता के साथ ही साथ बेटा कारोबार संभालने की कला में निपुण हो जाता है. ऐेसे में उस की विरासत बिखरने से बच जाती है. जहां पारिवारिक विवाद सही से सुलझाए नहीं जाते वहां पूरी विरासत बिखर जाती है.
भारत में ऐसे उदाहरण न के बराबर हैं. समाजिक उत्तराधिकार के मामले यहां जरूर दिखते हैं. जिन में उत्तराधिकारी विरासत नहीं संभाल पाएं.
बीकानेर के पूर्व राजघराने की अरबों की संपत्ति को ले कर महाराजा करणी सिंह की बेटी और अंतर्राष्ट्रीय शूटर राज्यश्री कुमारी, करणी सिंह के बेटे नरेंद्र सिंह की बेटी सिद्धि कुमारी के बीच विवाद है. दोनों प्रोपर्टी से जुड़े ट्रस्टों को ले कर अपनाअपना अधिकार जता रही हैं. सिद्धि कुमारी पर होटल चलाने वाली कंपनी ने यह मुकदमा दर्ज कराया है और दूसरा केस बुआ राज्यश्री पर सिद्धि कुमारी के ट्रस्ट की ओर से संपत्ति खुर्द-बुर्द को ले कर कराया गया है. यह सोचना भी सही नहीं है कि अगर संपत्ति ट्रस्ट के नाम कर दी जाएगी तो उस का सही उपयोग हो सकेगा.
राजनीति एक अच्छा उदहारण है जिस में विरासत अपनों को देने से किसी की बनाई पार्टी दशकों तक चल जाती है. कुछ मामलों में उदार बन कर पार्टी दूसरों को दे भी दी तो बिखर ही जाती है. लोग फिर भी बनाने वाले की संतानों के साथ काम करना ज्यादा पसंद करते हैं. परिवार के द्वारा चलाए जा रहे ऐसे दलों की संख्या तो है जिन के वारिस बहुत अच्छा नहीं कर पाए.
इस का बड़ा उदाहरण राष्ट्रीय लोकदल भी है. इस के प्रमुख चौधरी चरण सिंह ने 1929 जिला पंचायत सदस्य का चुनाव निर्विरोध जीत कर राजनीति में अपनी शुरूआत की थी. इस के बाद चौ. चरण सिंह ने छपरौली में अपनी सियासी जमीन तैयार की. छपरौली से चौ. चरण सिंह ने विधायक से ले कर प्रदेश के मुख्यमंत्री और देश के प्रधानमंत्री तक का सफर तय किया. 1986 में चौधरी चरण सिंह के बीमार होने पर चौधरी अजित सिंह आइबीएम कंपनी की कंप्यूटर इंजीनियरिंग की नौकरी छोड़ अमेरिका से भारत लौटे और राज्यसभा सदस्य बन सियासत में सक्रिय हो गए. अगले ही साल 1987 में चौधरी चरण सिंह के निधन के बाद अजित सिंह ने पिता की राजनीतिक विरासत संभाली.
अजित सिंह अलगअलग केन्द्र सरकारों में मंत्री बनते रहे. वे अपना ठिकाना तो ढूंढ पाए पर किसानों का मुद्दा खो गए. अगर पार्टी किसी और के पास जाती तो इतनी भी नहीं बचती और उस का हाल कम्युनिस्ट पार्टी या प्रजा सोशलिस्ट पार्टी जैसा होता.
इस के विपरीत चौधरी चरण सिंह को अपना राजनीतिक गुरू मानने वाले मुलायम सिंह यादव न केवल खुद 3 बार उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री बने बल्कि केन्द्र में मंत्री भी रहे और अपने बेटे अखिलेश यादव को मुख्यमंत्री बनवाया. 2024 के लोकसभा चुनाव में 37 सीटें जीत कर मुलायम सिंह यादव की निजी सी समाजवादी पार्टी देश की तीसरे नम्बर की सब से बड़ी पार्टी बनी.
आज बहुत सारे राजनीतिक दल ऐसे हैं जो अपने अस्तित्व के लिए परिवार के लोगों को सामने ला रहे हैं. समाजवादी पार्टी में मुलायम सिह यादव ने अपने राजनीतिक जीवन में ही अपने बेटे अखिलेश को पार्टी की बागडोर सौंप दी. अगर 2012 में मुलायम सिंह यादव ने बेटे अखिलेश को राजनीतिक विरासत नहीं सौपी होती तो मुलायम के बाद पार्टी बिखर कर खत्म हो गई होती. बिहार में लालू प्रसाद यादव ने अपने जीवनकाल में ही पूरी पार्टी की बागडोर बेटीबेटों को सौंप दी.
बिहार में ही रामविलास पासवान अपने बेटे चिराग को पार्टी सौपने में देर की तो वहां पर पार्टी दो हिस्सों में बंट गई. रामविलास पासवान के भाई पशुपति पारस और बेटे चिराग पासवान के बीच झगड़ा है. जिस का प्रभाव पार्टी पर पड़ रहा है. वह भाजपा की पिछलग्गू बन कर रह गई है.
बहुजन समाज पार्टी अपने उत्तराधिकारी को तलाश रही है. दलित आन्दोलन से जन्म लेने वाली इस पार्टी के संस्थापक कांशीराम ने मायावती को अपना उत्तराधिकारी बनाया था. जिन का कोई पारिवारिक रिश्ता नहीं था. अब मायावती अपने भतीजे आकाश आनंद को ही राजनीतिक उत्तराधिकारी बना रही है.
कांग्रेस ने राहुल गांधी को उत्तराधिकार देने में मुलायम सिंह यादव वाली समझदारी नहीं दिखाई. अगर 2004 से 2014 के बीच जब केन्द्र में डाक्टर मनमोहन सिंह प्रधानमंत्री थे उसी समय राहुल गांधी को सरकार में कोई बड़ा पद दे देती तो राहुल गांधी की स्वीकार्यता बढ़ जाती.
भारत का समाज और कानून जैविक उत्तराधिकारी यानि अपनी संतानों को ही संपत्ति देने की सलाह देता है. ऐसे में बेटेबेटियों को ही संपत्ति देने से झगड़े कम हो जाते हैं. अगर ऐसा नहीं हो तो विवाद बढ़ते ही जाते हैं. विवादों में ही संपत्ति बरबाद हो जाती है. राजनीतिक भी परिवार के विरासत जैसी ही हो गई है. जिस के कारण अब नेताओं के बच्चे ही उन के स्वाभाविक उत्तराधिकारी होते जा रहे हैं. सही उत्तराधिकारी ही विरासत को आगे ले कर जा पाता है.