कभी गपशप करते वक्त जिस इंसान का हम जिक्र कर रहे होते हैं वही इंसान अचानक वहां आ जाता है तो हम अनजाने में बोल जाते हैं कि तुम सौ साल जिओगे. कुछ लोग एहसान जता कर हंसतेहंसते उस बात को स्वीकार करते हैं, तो कुछ अरे बाप रे 100 साल जीना? वह बुढ़ापा और दूसरों के एहसानों पर जीना... ‘नहीं चाहिए’ कह कर अपना विरोध व्यक्त करते हैं. हालांकि हम कितने साल जीने वाले हैं, किसी को भी मालून नहीं होता है. यह सत्य  है कि जन्म लेने वाले हर जीव को मरना होता ही है.

इंसान के जन्म के वक्त खुशियां लुटाई जाती हैं लेकिन मृत्यु होते ही शोक व्यक्त किया जाता है. आज भी हर इंसान के मन में मृत्यु के संबंध में एक अनामिक आकर्षण है. वैसे, प्रकृति की शृंखला यानी जन्म, वृद्धि, पुनरुद्धार और मृत्यु, ये सभी चीजें क्रमानुसार होती हैं. लेकिन इंसान ने प्रगति के नशे में इस शृंखला को छेदते हुए जन्म लेने की प्राकृतिक प्रक्रिया में हस्तक्षेप कर दिया है जबकि मृत्यु को ले कर सख्त कानून बना रखा है. और बाकी चीजों को देख इंसान का एक कदम इस बारे में थोड़ा पीछे पड़ा है. यह एक सच है.

सालोंसाल की चर्चाएं, वादविवाद और कानूनी लड़ाई के बाद सुप्रीम कोर्ट के निर्देशानुसार केंद्र सरकार ने इच्छामरण के बिल का प्रारूप तैयार किया है. डाक्टरी जांच लेनी है या रुकवानी है, इस का अधिकार पेशेंट को मिलने वाला है. इस बिल को ‘टर्मिनली इल पेशेंट बिल’ कहा जाता है. यह कानून विचाराधीन स्थिति में है. फिर भी ‘इच्छामरण’ या ‘दयामरण’ का कानून कभी अरुणा शानबाग के कारण या कभी सुप्रीम कोर्ट के कारण हमेशा से ही चर्चा का विषय रहा है.

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