बांबे हाईकोर्ट का नाम बदल कर मुंबई हाईकोर्ट हो चुका है. इसी तरह मद्रास हाईकोर्ट भी चेन्नई हाईकोर्ट हो गया है. जहां तक कलकत्ता हाईकोर्ट का सवाल है तो केंद्रीय कानून मंत्रालय ने महानगर कोलकाता का नाम जोड़ कर कैलकटा (कलकत्ता) हाईकोर्ट का नाम बदल कर कोलकाता हाईकोर्ट किए जाने के बारे में हाईकोर्ट की राय जानना चाहा था. हाईकोर्ट औफ जूडिकेचर एट कैलकाटा का नाम बदल कर जूडिकेचर औफ कोलकाता किए जाने के पक्ष में नहीं है कलकत्ता हाईकोर्ट. कलकत्ता हाईकोर्ट के न्यायाधीशों ने कलकत्ता के इतिहास और इसकी सदियों पुरानी परंपरा को देखते हुए सर्वसम्मत तौर पर नाम न बदले जाने के पक्ष में ही अपना सुनाया है.
गौरतलब है कि 1862 में स्थापित कलकत्ता हाईकोर्ट देश के सबसे पुराने उच्च अदालत के तौर पर जाना जाता है. तब यह हाईकोर्ट औफ जूडिकेचर एट फोर्ट विलियम कहलाता था. बंगाल के साथ अंदमान-निकोबार भी इसी अदालत के अधिकारक्षेत्र में था. बाद में फोर्ट विलियम की जगह कैलकाटा कर दिया गया. और तबसे यह हाईकोर्ट औफ जूडिकेचर एट कैलकटा बन गया. बहरहाल, देश के तीन प्रेसीडेंसी हाईकोर्ट – कैलकाटा, बांबे और मद्रास हाईकोर्ट का नाम बदल कर क्रमश: कोलकाता, मुंबई और चेन्नई कर दिए जाने का प्रस्ताव केंद्रीय कानून मंत्रालय की ओर दिया गया था. बांबे और चेन्नई हाईकोर्ट ने नाम परिवर्तन पर भले ही अपनी सहमति जता दी है, लेकिन कैलकाटा हाईकोर्ट इसके लिए राजी नहीं नहीं हुआ.
कोलकाता का एक बुद्धिजीवी वर्ग कैलकाटा हाईकोर्ट के इस फैसले से खुश है. तृणमूल कांग्रेस के सांसद सुगत बसु हों या जानेमाने इतिहासकार सुरंजन दास – दोनों का यही मानना है कि हाईकोर्ट और युनिवर्सिटी जैसे प्रतिस्ष्ठानों से किसी राज्य का इतिहास, उसकी परंपरा जुड़ी होती है. नाम परिवर्तन इसकी कड़ी से छेड़छाड़ करने जैसा है. अब जहां तक किसी राज्य व शहर के नाम बदले जाने का सवाल है तो यह पूरी तरह से केंद्र सरकार के अख्तियार का विषय है. राज्य की वाममोर्चा ेरकार ने वेस्ट बेंगाल का नाम बदल कर पश्चिम बंगाल करने की कई बार कोशिश की की. लेकिन यह नहीं हो पाया. 1905 में बंगभंग के बाद ब्रिटिश शासकों ने इस राज्य का नाम वस्ट बेंगाल रखा था. 1971 के बाद ईस्ट बेंगाल बांग्लादेश बन गया. इसी कारण भावनात्मक रूप से वेस्ट बेंगाल को पिछली सरकारों ने बंग, बंगप्रदेश और कभी बांग्ला कर दिए जाने की कोशिश की गयी. पर बांग्ला नाम पर बांग्लादेश की ओर से आपत्ति जाहिर की गयी थी. बहरहाल, वेस्ट बेंगाल का नाम नहीं बदला जा सका.
हालांकि जब ममता बनर्जी के नेतृत्व में सरकार बनी तो ममता की पार्टी तृणमूल कांग्रेस वेस्ट बेंगाल की जगह अंग्रेजी में पश्चिम बंग लिखे जाने के पक्ष में रही है. तर्क यह कि अंग्रेजी वर्णमाला में वेस्ट बेंगाल का नाम सबसे अंत में आने के कारण केंद्रीय बैठकों में बंगाल को अपनी बात कहने का मौका सबसे अंत में मिलता है. अगर अंग्रेजी में पश्चिम बंग होगा तो बंगाल को थोड़ी सहूलियत हो जाएगी. विधानसभा ने पश्चिम बंग नाम का अनुमोदन पांच साल पहले ही कर दिया है. पर यह आज तक कार्यकारी नहीं हो पाया. बहरहाल, हाईकोर्ट के इस फैसले के बाद कलकत्ता के नाम परिवर्तन को लेकर एक फिर नए सिरे से बहस शुरू हो गयी है. हाईकोर्ट के इस फैसले को कुछ न्याय व्यवस्था और सरकार के बीच टकराव के रूप में देख रहे हैं. उल्लेखनीय है कि 2001 में कलकत्ता का नाम बदल कर जब कोलकाता कर दिया गया था, तब भी राजनीति से लेकर सामाजिक हलकों में जोरदार बहस शुरू हो गयी थी. पर अंतत: कलकाता नाम स्वीकार कर लिया गया.
लेकिन जहां तक सरकारी दस्तावेजों में नाम बदले जाने का सवाल है तो इसमें कोलकाता होने में बहुत समय लग गया है. सीएसडीए यानि कैलकाटा मेट्रोपौलिटन डेवलपमेंट औथरिटी को केएमडीए यानि कोलकाता मेट्रोपौलिटन डेवलपमेंट औथरिटी और केएमडी यानि कैलकाटा इंप्रुवमेंट ट्रस्ट को केएमडी यानि कोलकाता इंप्रुवमेंट ट्रस्ट बनने में और कैलकाटा पुलिस को कोलकाता पुलिस बनने में सालों लग गए.
लेकिन आज भी कई संस्थान हैं जिनका नाम बदला जाना संभव नहीं हुआ है. मसलन- लगभग 160 साल पुराना कैलकाटा युनिवर्सिटी कोलकाता युनिवर्सिटी नहीं हो पाया है. आज भी कलकत्ता विश्वविद्यालय का मार्कशीट या प्रमाणपत्र कैलकटा युनिवर्सिटी के नाम से मिलता है. इसी तरह राज्य सरकार की परिवहन संस्था आज भी सीएसटीसी यानि कैलकाटा स्टेट ट्रांसपोर्ट कंपनी के तौर पर ही जानी जाती है. इसी तरह कैलकाटा ट्रामवे कंपनी भी आज तक कोलकाता ट्रामवे कंपनी नहीं बन पायी है. इसी तरह कैलकाटा स्टौक एक्सचेंज, कैलकाटा क्रिकेट एंड फुटबौल क्लब, रेस क्लब आज भी रौयल कैलकाटा ट्रफ कल्ब के तौर पर आज भी जाना जाता है.
नौवें दशक में जानेमाने साहित्यकार सुनील गंगोपाध्याय के नेतृत्व में राज्य, खासकर कलकत्ता के कुछ विशिष्ट बुद्धिजीवियों ने बांग्ला भाषा को तरजीह देने की कवायद शुरू की. तब कलकत्ता समेत पूरे प. बंगाल में दूकानों के नाम और साइनबोर्ड में बांग्ला भाषा की प्रधानता होने का एक अलिखित नियम बना डाला. इस दौरान अंग्रेजी व हिंदी भाषा में लगाए गए साइनबोर्ड पर कालिख पोतने का चलन शुरू हो गया. महाराष्ट्र में शिव सैनिकों भी इसी राह की राही रही है. यह और बात है कि अब बंगाल का जनगन नाम बदलने की राजनीति को ज्यादा महत्व नहीं दिए जाने के पक्ष में नहीं है. लेकिन हाल के कुछ समय में देखने में आया है कि शहर से लेकर राजपथ तक का नाम बदलने की एक कवायद शुरू हो गयी है. और दिनोंदिन यह संक्रामक बीमारी की तरह फैलती जा रही है. कुछ समय पहले गुडगांव को गुरुग्राम करने की मंशा के पीछले हिंदू इतिहास को बढ़ाचढ़ा कर नए सिरे से पेश करने की भाजपा की संकीर्ण राजनीति ही नजर आती है.
हां, इतना जरूर है कि आजादी के बाद पिछले 20 सालों में धीरे-धीरे देश के कई राज्य के नाम बदले गए. मसलन, यूनाइटेड प्रोविंस उत्तर प्रदेश बन गया, हैदराबाद आंध्रप्रदेश, त्रावंकोर-कोचीन से केरल, मध्य भारत मध्यप्रदेश, मद्रास राज्य तमिलनाडू और महीशूर कर्नाटक में बदल गया. इसके बाद 1995 में बंबई मुंबई, 2001 में कलकत्ता, कोलकाता, 2006 में पंडीचेरी पुदुचेरी बन गया. इसके बाद उत्तरांचल उत्तराखंड बना. हाल ही में उड़ीसा-ओडिशा, आसाम-असम बन गया.
नाम बदलने की कवायद आज भी जारी है. पिछले कुछ सालों में दक्षिण भारत में आंध्रप्रदेश के 20 शहरों के नाम, केरल के 18, तमिलनाडू के 14 और कर्नाटक के 13 शहरों के नाम बदले जा चुके हैं. उत्तर भारत में मध्यप्रदेश के 11 शहरों, पश्चिम में गुजरात के सात और महाराष्ट्र के पांच शहर्रों के नाम बदले गए. पूरे देश में अकेला बिहार ही एक ऐसा राज्य है जो नाम परिवर्तन की टुच्ची भावनात्मक राजनीति से दूर रहा है. राष्ट्र-जाति-भाषा की अस्मिता के नाम पर संकीर्ण राजनीति से ऊपर उठना ही होगा.