लंबी बहस और तमाम अवरोधों को दरकिनार कर रियल एस्टेट रैगुलेशन बिल संसद में आखिर पारित हो गया. बिल्डरों की ठगी से उपभोक्ताओं को बचाने का दावा करता यह बिल अपनी तमाम खामियों और एकतरफा होने के चलते आशियाने की चाह पाले लोगों को कितना सुकून दे पाएगा, बता रही हैं अनुराधा.
संसद में पारित रियल एस्टेट रैगुलेशन बिल को ले कर भवन निर्माताओं और आम उपभोक्ताओं में कोई खास उत्साह नहीं दिखा. सरकार का बिल को लाने का उद्देश्य बिल्डरों द्वारा घर के नाम पर ठगी, बेईमानी और विलंब को रोकना था. घर खरीदने वालों को तो इस से थोड़ी राहत मिलेगी लेकिन बिल्डरों को उन पर नियंत्रण का खमियाजा भुगतना पड़ेगा. लंबे समय तक सोचविचार और उद्योग जगत के विरोध के बावजूद इसे मंजूरी दे दी गई?है.
बिल के तहत अब बिल्डरों को तय समय के भीतर ही ग्राहकों को उन का घर देना होगा वरना उन पर भारी जुर्माना लगेगा. पहले तो आशियाने के सुनहरे सपने को संजोते ही कई सवाल उपभोक्ता के मन को सताने लगते थे. मसलन, प्रोजैक्ट कानूनी है या गैर कानूनी, बिल्डर या डैवलपर का रिकौर्ड कैसा है, पजेशन समय पर मिलेगा या नहीं, पैसे तो नहीं फंस जाएंगे आदि. लेकिन अब इन सब पचड़ों से पीछा छूटा तो दूसरा डर उपभोक्ताओं को सताने लगा है. यह डर है फ्लैट की कीमतें और भ्रष्टाचार बढ़ने का.
रियल एस्टेट सैक्टर की सब से बड़ी संस्था कन्फैडेरेशन औफ रियल एस्टेट डैवलपर्स एसोसिएशन औफ इंडिया (सीआरईडीएआई) के चेयरमैन ललित कुमार जैन कहते हैं, ‘‘इस बिल के लागू होते ही फ्लैट खरीदारों को फायदा होने के बदले भ्रष्टाचार को बढ़ावा मिल सकता है क्योंकि यह एकतरफा बिल है. इस बिल में उपभोक्ताओं की सुविधाओं का तो ध्यान रखा गया है लेकिन बिल्डर्स की परेशानियों को नजरअंदाज कर दिया गया है जिस का असर उपभोक्ताओं पर ही पड़ेगा.’’
कीमत को ले कर खामोश है बिल: जब ग्राहक बाजार में कोई सामान खरीदने जाता है तो उसे इस बात का संतोष होता है कि पैकेट में लिखे एमआरपी यानी मैक्सिमम रिटेल प्राइस से ज्यादा दुकानदार उस वस्तु का मूल्य नहीं ले सकता. लेकिन फ्लैट की कीमतों के साथ ऐसा कुछ भी नहीं है. इस बिल की सब से बड़ी खामी है कि इस में डैवलपर्स के पर काटने के तो सारे प्रावधान हैं लेकिन फ्लैट्स की आसमान छूती कीमतों पर लगाम कसने का कहीं कोई जिक्र नहीं है.
इस में दोराय नहीं है कि रियल एस्टेट रैगुलेशन बिल के अस्तित्व में आने के बाद उपभोगता बिल्डर्स की किसी भी तरह की धोखाधड़ी से बच जाएंगे लेकिन उन्हें डैवलपर्स की ठगी का शिकार होने से कोईर् नहीं बचा सकेगा.
प्रौपर्टी के जानकारों की मानें तो रैगुलेटर के आ जाने के बाद फ्लैट्स की कीमतों में 40 से 50 फीसदी का इजाफा हो सकता है. यानी कि बिल के आने से सीधा असर उपभोक्ताओं की जेब पर पड़ेगा. हो सकता है कि ऐसे में कई लोगों का अपना घर खरीदने का सपना चकनाचूर हो जाए. इस मसले में अपनी राय देते हुए सीआरईडीएआई के प्रैसीडैंट एवं आम्रपाली ग्रुप के सीएमडी अनिल कुमार शर्मा का कहना है, ‘‘बिल के अनुसार, सारे कानूनी विभागों से अप्रूवल मिलने के बाद ही प्रोजैक्ट पर काम शुरू हो सकेगा. ऐसे में अप्रूवल देने में जितना अधिक समय लगेगा उतना ही प्रौपर्टी का दाम भी बढ़ता जाएगा.’’
लालफीताशाही की शाही : विशेषज्ञों का मानना है कि भारत में प्रौपर्टी का कोई भी प्रोजैक्ट पूरा करने के लिए एक बिल्डर को 60 के करीब स्वीकृतियां लेनी होती हैं. साथ ही उसे 175 डौक्यूमैंट पेश करने होते हैं और ये सब करने के लिए उसे केंद्र और राज्य की सरकारों के 40 विभागों के पास जाना होता है. एक अनुमान के मुताबिक, एक बिल्डर को अगर ये सब कानूनी तरीके से करना हो तो उसे 3 से 4 साल का वक्त लग जाएगा.
कई विभाग ऐसे होते हैं जहां बिना घूस के सियासतदां और नौकरशाहों की कलम तक नहीं हिलती. आखिर में जल्दी स्वीकृतियां पाने के लिए बिल्डर को इन भ्रष्टाचारियों को घूस देनी पड़ती है. अब इस बिल के आ जाने से इन घूसखोरों के नखरे और भी बढ़ जाएंगे और बिल्डरों को समय पर प्रोजैक्ट को पूरा करने के दबाव के चलते इन्हें मोटी रकम का चढ़ावा चढ़ाना पड़ेगा. यह रकम बिल्डर अपनी जेब से देंगे जरूर लेकिन सूद समेत इसे उपभोक्ताओं से वसूल भी लेंगे. ऐसे में बिल में घूसखोर अधिकारियों पर कानूनी चाबुक चलाने की कहीं चर्चा नहीं की गई है.
इन सब बातों के अतिरिक्त बिल में उल्लेख किया गया है कि सारे अप्रूवल लेने के बाद बिल्डर को रैग्युलेटर के पास एक आखिरी अप्रूवल के लिए जाना होगा. रैग्युलेटर के पास प्रोजैक्ट को अप्रूव या डिसअप्रूव करने का अधिकार होगा. यानी कि इतनी सारी मशक्कतें करने के बाद भी हो सकता है कि बिल्डर के प्रोजैक्ट में खामियां निकाल कर उसे रिजैक्ट कर दिया जाए और दोबारा से उसे सारी मेहनत फिर करनी पड़ जाए. कुल मिला कर कह सकते?हैं कि बलि का बकरा उपभोक्ताओं को ही बनना पड़ेगा.
डैवलपर्स ही क्यों दोषी : बिल्डरों की कुछ शिकायतें हैं. उन का कहना है कि बिल एकतरफा है. इस बिल में ग्राहकों की समस्याओं का समाधान है लेकिन बिल्डर्स की सुविधाओं का कोई प्रावधान नहीं है. इस बारे में अनिल कुमार शर्मा कहते हैं, ‘‘बिल का मौजूदा स्वरूप प्रैक्टिकल नहीं?है और सिर्फ प्रौपर्टी खरीदने वालों के ही पक्ष में है.
‘‘अगर किसी प्रोजैक्ट की मंजूरी या फिर फंडिंग में देरी हो रही है तो भला डैवलपर्स या बिल्डर्स को उस के लिए कैसे जिम्मेदार ठहराया जा सकता है? यह सरासर गलत है क्योंकि प्रोजैक्ट के पास होने के बाद जो समय सीमा निर्धारित की जाएगी वह सिर्फ बिल्डर्स के लिए होगी न कि उन लोगों के लिए जो कंस्ट्रक्शन प्रोजैक्ट से जुड़े हैं. अगर वे किसी वजह से काम में देरी करते हैं तो अकारण बिल्डर को ही सजा भुगतनी पड़ेगी. इसलिए प्रोजैक्ट से जुड़े हर क्षेत्र को इस बिल के दायरे में लाना चाहिए.’’
बिल में साफ शब्दों में उल्लेख यह किया गया है कि अगर बिल्डर निर्धारित समय पर फ्लैट का पजेशन नहीं देता है तो उसे ब्याज सहित उपभोक्ता की मूल राशि देनी पड़ेगी और साथ ही हर्जाना भी भरना पड़ेगा. ऐसे में भले ही उपभोक्ता को उस की मूल राशि और ब्याज मिल जाए लेकिन 2 से 3 साल तक फ्लैट का कब्जा मिलने के इंतजार के बाद अब उसे फिर से नए फ्लैट की तलाश करनी पड़ेगी और बढ़ी हुई कीमतों का सामना भी करना पड़ेगा.
इस के अतिरिक्त अगर बिल्डर निर्धारित समय सीमा पर बिना फिनिशिंग, मसलन, फर्नीचर, बिजली, पानी के फ्लैट उपभोक्ता को सौंप दे तो बिल में प्रावधान के उल्लंघन पर सजा की बात कही गई है. ऐसे में उपभोक्ता के रैग्युलेटर में शिकायत करने पर डैवलपर के खिलाफ सजा और प्रोजैक्ट का रजिस्ट्रेशन रद्द करने का भी प्रावधान है. यानी कि विवाद के सुलझने तक उपभोक्ता को भी कानूनी पचड़ों में फंसना पड़ेगा और पैसे खर्च करने पड़ेंगे.
महंगा हो जाएगा आशियाना : पाबंदियों और दायरों में बिल्डर्स को बांधने वाले इस बिल में कई ऐसे प्रावधान हैं जो बिल्डर्स को यह क्षेत्र छोड़ने पर भी मजबूर कर सकते हैं. ऐसे में कम बिल्डर्स यानी कम प्रोजैक्ट्स और कम प्रोजैक्ट्स यानी महंगे फ्लैट्स. इस तरह देखा जाए तो एक बार फिर नुकसान ग्राहक को ही होगा. साथ ही सीमित फ्लैट्स होने के चलते फ्लैट्स खरीदारों में मचने वाली मारामारी भी हर उपभोक्ता को परेशान करेगी. फिर फ्लैट की बुकिंग कराने तक के लिए ग्राहक को चढ़ावा चढ़ाना होगा.