Viral News : जस्टिस शेखर कुमार यादव ने जब ‘कठमुल्ला’ शब्द का प्रयोग किया तब उन को इस की गहराई का अंदाजा नहीं होगा कि यह महाभियोग का जरिया बन जाएगा.

रविवार 8 दिसंबर 2024 का विश्व हिंदू परिषद के विधि प्रकोष्ठ ने इलाहाबाद हाई कोर्ट के लाइब्रेरी हौल में एक कार्यक्रम का आयोजन किया था. इस कार्यक्रम में जस्टिस शेखर कुमार यादव के अलावा इलाहाबाद हाई कोर्ट के एक और मौजूदा जज जस्टिस दिनेश पाठक भी शामिल हुए. कार्यक्रम में वक्फ बोर्ड अधिनियम, धर्मांतरण कारण एवं निवारण और समान नागरिक संहिता एक संवैधानिक अनिवार्यता जैसे विषयों पर अलगअलग लोगों ने अपनी बात रखी. इस दौरान जस्टिस शेखर यादव ने ‘समान नागरिक संहिता एक संवैधानिक अनिवार्यता’ विषय पर बोलते हुए कहा कि ‘देश एक है, संविधान एक है तो कानून एक क्यों नहीं है ?’

कठमुल्ले’ देश के लिए घातक

लगभग 34 मिनट की इस स्पीच के दौरान उन्होंने कहा “हिंदुस्तान में रहने वाले बहुसंख्यकों के अनुसार ही देश चलेगा. यही कानून है. आप यह भी नहीं कह सकते कि हाई कोर्ट के जज हो कर ऐसा बोल रहे हैं. कानून तो भैय्या बहुसंख्यक से ही चलता है.”
अपने इसी भाषण में जस्टिस शेखर यादव यह भी कह जाते हैं कि ‘कठमुल्ले’ देश के लिए घातक हैं. वह यह समझते हैं कि ‘कठमुल्ला’ शब्द गलत है. इस के बाद भी कहते हैं ‘जो कठमुल्ला हैं, शब्द गलत है लेकिन कहने में गुरेज नहीं है, क्योंकि वो देश के लिए घातक हैं. जनता को बहकाने वाले लोग हैं. देश आगे न बढ़े इस प्रकार के लोग हैं. उन से सावधान रहने की जरूरत है.’
‘कठमुल्ला’ का शाब्दिक अर्थ ‘कट्टरपंथी मौलवी’, ‘अपने मत या सिद्धांत के प्रति अत्यंत आग्रहशीन या दुराग्रही व्यक्ति होता है. इस का मतलब कट्टर मौलवी होता है जो काठ के मनकों की माला फेरता हो. अब यही ‘कठमुल्ला’ शब्द विवाद का विषय बन गया है.
जस्टिस शेखर कुमार यादव की दूसरी उस बात पर विवाद है जिस में यह कहा कि ‘कानून तो बहुसंख्यक से ही चलता है.’ इस देश में कठमुल्ला, बहुसंख्यक, अल्पसंख्यक जैसे शब्द राजनीतिक दलों को बहुत लुभाते हैं. देश का संविधान कहता है कि राजनीति में जाति और धर्म का प्रयोग ठीक नहीं होता है. राजनीतिक दल संविधान हाथ में ले कर जाति और धर्म की राजनीति पहले चुनाव से कर रहे हैं. इस देश की राजनीतिक व्यवस्था इस तरह की हो गई है कि बिना जाति और धर्म का वोट बैंक बनाए चुनाव जीता ही नहीं जा सकता.

‘कठमुल्ला’ और ‘बहुसंख्यक’

1990 के दौर में अपनी सरकार बचाने के लिए वीपी सिंह ने मंडल कमीशन लागू किया. क्योंकि भाजपा ने राममंदिर आंदोलन के सहारे धर्म की राजनीति शुरू की थी. उत्तर प्रदेश के उस समय के मुख्यमंत्री मुलायम सिंह यादव ने राममंदिर के लिए आंदोलन करने वाले कारसेवकों पर गोली चलवाई. सैकड़ों लोग मारे गए. इस के बाद मुलायम सिंह का नाम ‘मुल्ला मुलायम’ पड़ गया. मुलायम सिंह यादव को यह नाम पसंद था क्योंकि इस के सहारे पूरा मुसलिम वोट उन को मिलने लगा. कांग्रेस के हाथ से मुसलिम वोट उस समय जब निकला तो आज तक नहीं आया.
जाति और धर्म की राजनीति अपनेअपने प्रतीकों से सहारे हमेशा से होती रही है. इस के बाद भी हर नेता कहता है कि वह जाति, धर्म और वोटबैंक की राजनीति नहीं करता. वह सबका साथ सबका विकास की बात करता है. इस से बड़ा देश की जनता के साथ कोई धोखा नहीं हो सकता है. जस्टिस शेखर कुमार यादव ने ‘कठमुल्ला’ और ‘बहुसंख्यक’ दो ऐसे चटपटे शब्दों को प्रयोग कर दिया जो उन को नहीं कहना चाहिए था.
किसी संवैधानिक पद पर बैठे व्यक्ति से ऐसे शब्दों की उम्मीद राजनीतिक बिरादरी के लोग नहीं करते हैं. वो तो बिना जाति और धर्म के वोट बैंक के अपनी राजनीति करते हैं. जस्टिस शेखर यादव के इस बयान को ले कर विवाद खड़ा हो गया था. मसला बढ़तेबढ़ते बात महाभियोग तक पहुंच गई थी. श्रीनगर से नैशनल काफ्रेंस के सांसद आगा सईद मेहदी की मुहिम में कांग्रेस, समाजवादी पार्टी, डीएमके और तृणमूल कांग्रेस के सांसद भी एकजुट को  गए.

कैसे लाया जाता है महाभियोग ?

तृणमूल कांग्रेस की सांसद महुआ मोइत्रा ने लिखा, ‘जब हम संविधान के 75 साल का जश्न मना रहे हैं तो इस तरह की बातें ठीक नहीं हैं. सुप्रीम कोर्ट इस को संज्ञान ले.’ जस्टिस शेखर कुमार यादव के खिलाफ महाभियोग भी संविधान के ही दायरे में आ सकता है. संविधान के अनुच्छेद 124(4), (5), 217 और 218 में जजों के खिलाफ महाभियोग की पूरी प्रक्रिया का जिक्र है. सब से पहले जजों को हटाने के लिए नोटिस देना पड़ता है.
सुप्रीम कोर्ट या हाई कोर्ट के जज को हटाने की प्रक्रिया की शुरुआत संसद के किसी भी सदन यानी लोकसभा या राज्यसभा में हो सकती है. इस के लिए सांसदों के हस्ताक्षर वाला नोटिस देना पड़ता है. अगर ये नोटिस लोकसभा में दिया जा रहा है, तो इस के लिए 100 या इस से अधिक सांसदों का समर्थन चाहिए. अगर यह प्रक्रिया राज्यसभा में शुरू हो रही है, तो इस के लिए 50 या इस से अधिक सांसदों का समर्थन चाहिए. नोटिस के बाद अगर लोकसभा के स्पीकर या राज्यसभा के सभापति इसे स्वीकार करते हैं, तभी किसी जज को हटाने की प्रक्रिया आगे बढ़ती है.
अगर यह नोटिस स्वीकार होता है, तो सदन के चेयरमैन या स्पीकर 3 सदस्यीय जांच समिति का गठन करते हैं, ताकि जजों को हटाने के लिए जो आधार बताए जा रहे हैं, उन की जांच हो सके. इस समिति में सुप्रीम कोर्ट का एक जज, एक हाई कोर्ट का मुख्य न्यायाधीश, चेयरमैन या स्पीकर की सहमति से चुने गया एक न्यायविद सदस्य होता है. अगर यह नोटिस संसद के दोनों सदनों में स्वीकार किया जाता है, तो जांच समिति का गठन लोकसभा के स्पीकर और राज्य सभा के सभापति मिल कर करते हैं.
ऐसी स्थिति में जिस सदन में बाद में नोटिस दिया जाता है, उसे रद्द माना जाता है. जांच समिति अपनी पड़ताल के बाद औपचारिक रिपोर्ट बनाती है. इस रिपोर्ट को संबंधित सदन के स्पीकर को दिया जाता है. सदन के स्पीकर इस रिपोर्ट को सांसदों के सामने रखते हैं. अगर जांच रिपोर्ट में जज को दोषी पाया जाता है, तो जज को हटाने का प्रस्ताव संसद के दोनों सदनों में मतदान के लिए रखा जाता है.
संविधान के अनुच्छेद 124 (4) के मुताबिक जज को हटाने की प्रक्रिया तभी आगे बढ़ती है, जब इस प्रस्ताव को दोनों सदनों के उपस्थित कुल सदस्यों में से बहुमत का समर्थन मिलता है. साथ ही प्रस्ताव का समर्थन करने वाले सांसदों की संख्या सदन में मौजूद और मतदान करने वाले सदस्यों की दोतिहाई संख्या से कम नहीं होनी चाहिए. जज को हटाने की सारी प्रक्रिया अगर पूरी हो जाती है, तो यह प्रस्ताव राष्ट्रपति के पास जाता है. इस के बाद राष्ट्रपति के आदेश पर ही जज हटाए जा सकते हैं.

महाभियोग का कितना असर

असल में यह पूरी प्रक्रिया जिस तरह की है उस के पूरा करने की ताकत आज के विपक्ष में नहीं है. इस के पहले भी अब तक किसी जज को महाभियोग के जरिए हटाया नहीं गया है. कई जजों को हटाने की प्रक्रिया शुरू तो हुई पर वह पूरी नहीं हो सकी.
वर्ष 1991 में पंजाब और हरियाणा हाई कोर्ट के तत्कालीन मुख्य न्यायाधीश जस्टिस वी रामास्वामी को पद से हटाने की प्रक्रिया शुरू हुई थी. जांच समिति ने भी उन्हें दोषी पाया था. लेकिन महाभियोग प्रस्ताव को पर्याप्त सांसदों का समर्थन नहीं मिला. इस कारण यह प्रस्ताव गिर गया.
2011 में सिक्किम हाई कोर्ट के जज पीडी दिनाकरन को भी हटाए जाने की प्रक्रिया शुरू हुई थी. मामला जांच समिति तक गया. लेकिन इस प्रक्रिया को उस समय रोकना पड़ा, जब जस्टिस दिनाकरन ने जांच समिति की निष्पक्षता पर सवाल उठाते हुए इस्तीफा दे दिया. 2011 में कलकत्ता हाई कोर्ट के जस्टिस सौमित्र सेन के खिलाफ महाभियोग की प्रक्रिया शुरू हुई थी. जांच समिति ने भी उन्हें दोषी पाया. महाभियोग प्रस्ताव को राज्यसभा में काफी समर्थन मिला. लेकिन लोकसभा में मतदान से पहले ही जस्टिस सौमित्र सेन ने इस्तीफा दे दिया.
2015 में गुजरात हाई कोर्ट के जस्टिस पार्दीवाला को भी हटाने का प्रस्ताव आया था. मामला था आरक्षण के खिलाफ उन के फैसले में ‘जातिगत टिप्पणी’ का. जस्टिस पार्दीवाला ने अपने फैसले में से विवादित टिप्पणी को हटा दिया. जिस के बाद यह बात खत्म हो गई थी.
2015 में ही मध्य प्रदेश के हाई कोर्ट के जस्टिस एसके गंगेले को हटाने की प्रक्रिया शुरू हुई थी. लेकिन राज्य सभा की जांच समिति ने उन्हें क्लीन चिट दे दी. आंध्र प्रदेश और तेलंगाना हाई कोर्ट के जस्टिस सीवी नागार्जुन रेड्डी के खिलाफ 2016 और 2017 में महाभियोग की प्रक्रिया शुरू हुई थी. इस प्रस्ताव को समर्थन नहीं मिला. जिस के कारण यह नहीं पारित हो सका.

क्यों लाया जा रहा महाभियोग ?

दरअसल, विपक्ष भी जानता है कि जस्टिस शेखर कुमार यादव के खिलाफ महाभियोग पारित नहीं हो पाएगा. वह इस बहाने पूरी बहस को जनता के बीच चाहता है. जिस से आगे से कोई जज भी इस तरह की बात कहने का साहस न कर सके. राजनेताओं को यह काम करना चाहिए था कि समाज में जाति और धर्म की भावना ही न उठे. वोट की मजबूरी के कारण वह इस काम को नहीं कर पाए. हर चुनाव को जीतने के लिए जाति और धर्म का मुद्दा जरूरी हो जाता है. अब यह जाति और धर्म के मुददे की राजनीति हमारी अदालतों में ही नहीं हमारे घरों में भी घुस गई है.
घरों में जब कोई डिलीवरी मैन आता है तो हम यह जानने की कोशिश में रहते हैं कि यह किस जाति और धर्म का है. पिछले कुछ सालों में ऐसी तमाम घटनाएं हुईं जब खाने ले कर डिलीवरी करने गए लड़कों से जाति और धर्म को ले कर उन को प्रताड़ित किया गया. कई झगड़े हुए और मुददा पुलिस थाने तक गया. अभी उत्तर प्रदेश में कांवड यात्रा के दौरान दुकानों पर नाम लिखने के आदेश दिए गए जिस का मकसद केवल दुकानदार की जाति और धर्म की पहचान करने का था.

मुसलिम से परहेज

दलितों को यह शिकायत पिछड़ों और अगड़ों से होती है कि वह जाति के नाम पर छुआछूत का व्यवहार करते हैं. यही दलित, पिछड़ा और अगड़ा धर्म के नाम पर मुसलिम से परहेज करता है. 1980 के बाद से उत्तर भारत में राममंदिर आंदोलन के सहारे धर्म का प्रचार हुआ. जिस की वजह से आपसी दूरियां तेजी से बढ़ी.
2014 में भारतीय जनता पार्टी ने 80 बनाम 20 का नारा दे कर मुसलिमों को हाशिये पर ढकेल दिया. पहली बार भाजपा ने राजनीतिक दलों को समझा दिया कि देश में बिना मुसलिम के भी चुनाव जीते जा सकते हैं. इस के बाद जो हिंदूमुसलिम भावना भड़की उस में जस्टिस शेखर कुमार यादव जैसे पढ़ेलिखे लोग भी भटक गए. उन को भी कठमुल्ला ही परेशानी समझ आने लगी.
यह उदाहरण है कि राजनीति केवल वोट लेने देने का मसला भर नहीं है. इस से घर और समाज दोनों प्रभावित होते हैं. लोगों के मन की भावना बदल जाती है. चुनाव जीतने के लिए हिंदूमुसलिम करेंगे तो उस का प्रभाव समाज में दरार डालने का काम करेगा. जो घर परिवार समाज और देश के लिए ठीक नहीं होगा.

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