आम लोग सुकून की जिंदगी जिएं, इस के लिए तो सरकारें कुछ करती नहीं लेकिन सुकून छीनने के लिए वे बेकार के नियमकायदेकानून जरूर बनाती हैं. ऐसे में कोफ्त होना स्वाभाविक है. किराएदारों के लिए पुलिस वैरिफिकेशन कैसीकैसी परेशानियां खड़ी कर रहा है,

पढि़ए इस रिपोर्ट में.

सामाजिक बदलाव का जो दौर 15-20 वर्षों पहले शुरू हुआ था वह थमने का नाम नहीं ले रहा बल्कि कोरोनाकाल के थोड़े से ठहराव के बाद इस में और तेजी आई है. लोग गांवकसबे व छोटे शहर छोड़ कर महानगरों की तरफ भाग रहे हैं. पढ़ाई, रोजगार और बेहतर जिंदगी की तलाश ने गांवदेहात की आबादी को 20 फीसदी कम कर 60 फीसदी पर ला दिया है. शहर एक बड़ी आबादी का बो?ा उठा पा रहे हैं तो इस की एक बड़ी वजह वहां तेजी से बनते और बढ़ते मकान हैं. कोरोना के बाद रियल एस्टेट कारोबार फिर गुलजार हो उठा है. किसी भी शहर को देख लें, वहां चारों दिशाओं में ढेरों मकान बनते दिख जाएंगे.

आमतौर पर एक परिवार के लिए एक मकान पर्याप्त होता है लेकिन एक लाख रुपए महीने से ज्यादा आमदनी वाले अधिकतर लोगों के पास एक से ज्यादा मकान हैं. पूरे देश की तरह भोपाल जैसे बी कैटेगरी के शहर में सब से ज्यादा निवेश मकानों पर हो रहा है क्योंकि यह अपेक्षाकृत सुरक्षित व मुनाफा देने वाला है. यह मुनाफा बढ़ते दामों के अलावा किराए की शक्ल में होता है.

शहर आने वालों के लिए किराए का मकान बड़ा सहारा होता है जो आसानी से या थोड़ी भागादौड़ी के बाद मिल भी जाता है. सिर छिपाने को छत मिलने के बाद लोग इत्मीनान व बेफिक्री से अपने मकसद को पूरा करने में लग जाते हैं. सबकुछ ठीकठाक चलता रहे तो लोग सालोंसाल किराए के एक ही मकान में गुजार देते हैं और मकान मालिक से खटपट हो तो अपना बोरियाबिस्तर समेट कर दूसरा मकान ढूंढ़ लेते हैं. अब कहीं भी मकानों का टोटा नहीं है. बहुत पहले मकान सिर्फ जानपहचान वालों को ही दिया जाता था, अब अनजान लोगों से भी मकानमालिकों को परहेज नहीं होता.

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