यूट्यूब पर पोडकास्ट चलाने वाले इन्फ्लुएंसर्स की संख्या खूब बढ़ रही है. हालत यह है कि इंस्टाग्राम ओपन करते ही इन्हीं की काटी हुई शौर्ट रील्स जबरदस्ती हर दूसरी फीड में आ जाती है. इन रील्स में काम का होताजाता कुछ नहीं, बस कैमरे के सामने एक हैडफोन पहने पोडकास्टर कुरसी पर बैठे दिखता है. थोड़ाबहुत पैसा जोड़ लिया हो तो रौड कंपनी का ब्लैक माइक्रोफोन सामने लगा रहता है और ट्रैंडिंग बैकग्राउंड म्यूजिक से बातों को ऐसे सैंसेशनलाइज किया जाता है जैसे इस से जरूरी कुछ और नहीं.
इंडिया में अधिकतर पोडकास्टर्स यूट्यूब पर अपनी गपों की दुकान चला रहे हैं. ध्यान से यदि इन के पोडकास्ट सुनें तो समझ आ जाएगा कि ये डिजिटल एरा में ठीक उसी तरह के गपोड़िए हैं जैसे हर रिश्तेदारी में मिर्चमसाला लगा कर यहां से वहां करने वाली कोई न कोई चाचीताई होती है, या ये ठीक उसी तरह के गपोड़िए हैं जैसे चौपालों या ड्राइंगरूम में ज्ञान दे रहे शर्मा और वर्मा अंकलों की अधकचरी राजनीतिक व सामाजिक समझ.
माजरा यह है कि पोडकास्ट इन्फ्लुएंसर बनने में लगताजाता कुछ नहीं है. एक छोटे से कमरे में स्टूडियो सैटअप लगाना होता है. दीवारों पर वौयस कैंसिलेशन वाले गद्दे, अगर यह नहीं भी है तो बिस्तर के गद्दे ही जमीन पर बिछा कर काम चल जाता है. पीछे काला परदा, एक एचडी कैमरा (ईएमआई पर खरीदा फोन ही सही), कोई भी ऐसा लैपटौप जिस में एडिटिंग सौफ्टवेयर चल सके, काफी है. अगर हलका बजट ज्यादा है तो ट्राईपोड, कौलर माइक और लाइटिंग किट भी जोड़ लिया जाता है. कुल मिला कर 15-20 हजार रुपए लगा कर किसी भी ऐरेगैरे को ज्ञानगपोड़ी बनने का लाइसैंस यूट्यूब दे ही देता है.
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