केंद्र सरकार की आर्थिक (कु)नीतियों के चलते देश की अर्थव्यवस्था दिनोंदिन गिरती जा रही है जिसे कंट्रोल करना फिलहाल अब उस के खुद के वश में भी नहीं है. वहीं, अपनी तानाशाही प्रवृत्ति के चलते सत्ता पर काबिज भगवा सरकार विशेषज्ञों से सलाह लेने से भी हिचक रही है. ऐसे में देशवासियों को चौकन्ना होना बहुत जरूरी हो गया है.
भारतीय अर्थव्यवस्था इस समय दोहरे संकट से जू?ा रही है. कोविड महामारी का असर कम होने के बाद, बुरी तरह लड़खड़ाई देश की अर्थव्यवस्था के संभलने की उम्मीद थी, लेकिन महंगाई और तेजी से गिरते रुपए ने अर्थव्यवस्था को पटरी पर लाने का काम और मुश्किल कर दिया है. एक्सपर्ट कितनी भी बातें कर लें, लेकिन इस के संभलने के आसार फिलहाल न के बराबर हैं. देखा जाए तो यह समस्या साल 2016 के 8 नवंबर को घोषित डिमोनिटाइजेशन से शुरू हुई और अब यह विकराल रूप धारण कर रही है. वर्तमान में अमीर और गरीब के बीच की खाई दिनोंदिन बढ़ती जा रही है.
जो कुछ चहलपहल मार्केट में आम जनता को दिख रही है, उस की वजह देश की बड़ी जनसंख्या का होना है, जिस के फलस्वरूप विदेशी भी देश में इन्वैस्ट कर रहे हैं. बनी आम जनता अपराधी अर्थव्यवस्था के गिरने की शुरुआत डिमोनिटाइजेशन से हुई है जब पूरे देश के नागरिक खुद को अपराधी मान लंबी कतारों में खड़े रहने व कुछ अपनी जान गंवाने को विवश थे. इस बारे में औल इंडिया बैंक औफिसर्स कन्फैडरेशन के पूर्व अध्यक्ष व वर्तमान में औल इंडिया पंजाब नैशनल बैंक औफिसर्स एसोसिएशन के जनरल सैक्रेटरी दिलीप साहा, जिन्होंने 37 साल बैंक में मैनेजर के रूप में काम किया है, का कहना है कि नोटबंदी के उद्देश्य, जो देश की गरीब जनता को गिनाए गए थे जिन में गरीब को अभी मुश्किल होगी पर बाद में चैन की नींद सो सकेंगे जबकि अमीरों की परेशानी बढ़ेगी जिन्हें दवाई लेनी पड़ेगी, नकली नोटों और टैरेरिज्म का अंत होगा आदि शामिल थे,
में से कोई भी उद्देश्य पूरा नहीं हुआ. भारतीय रिजर्व बैंक की रिपोर्ट के अनुसार, बहुत कम मात्रा में आम लोगों के पैसे वापस नहीं आए. उस के अनुसार, 99.4 प्रतिशत लोगों के पास से पैसे आ गए. इस का अर्थ यह हुआ कि करीब 100 प्रतिशत लोगों से कालाधन आ गया है और यह व्हाइट मनी में बदल चुका है. लक्ष्य रहा अधूरा बैंकर दिलीप साहा कहते हैं कि डिमोनिटाइजेशन के अगले साल ही रिपोर्ट में 2 हजार रुपए के जाली नोटों में वृद्धि हो गई, टैरेरिज्म में भी बढ़त हो गई. इस से सरकार का लोगों को नोटबंदी के बारे में सम?ाने का कोई भी लक्ष्य पूरा नहीं हुआ. इस के तुरंत बाद डिजिटलाइजेशन शुरू हुआ, जिस में कम कैश को मनी सर्कुलेशन में लागू किया गया.
समय के साथ इस में बढ़त होना था, लेकिन जितना कहा गया, उतनी बढ़त नहीं हुई. इस तरह से केवल गरीब लोगों ने लाइन में खड़े हो कर घंटों इंतजार करतेकरते अपनी जानें ही नहीं गंवाईं बल्कि बैंक कर्मचारियों को भी अधिक समय तक इन पैसों के एक्सचेंज में समय लगा और रोजमर्रा के काम कम हुए, साथ ही, जिन लोगों ने लाइनें लगाईं और पैसे एक्सचेंज नहीं कर पाए, उन्होंने बैंक वालों पर घोटाला करने का आरोप लगाया. हालांकि पैट्रोल पंप और कई जगहों पर एक्सचेंज करने की व्यवस्था की गई थी पर उस का फायदा जनसाधारण को नहीं मिला. अहमदाबाद के कोऔपरेटिव बैंक ने हर दिन 2 से 3 करोड़ रुपए का ट्रांजैक्शन किया, लेकिन कुछ दिनों बाद बैंकों को भी आरबीआई ने एक्सचेंज करने से मना कर दिया. जनता के सैंटिमैंट से हुआ खेल दिलीप साहा कहते हैं कि आम जनता को लगने लगा कि इस से अमीरों को अधिक समस्या होगी क्योंकि उन के द्वारा छिपाया हुआ कालाधन बाहर निकलेगा. आम जनता को कोई समस्या नहीं होगी, लोगों को कुछ ऐसे ही सम?ाया गया था.
इस तरह डिमोनिटाइजेशन आम जनता के सैंटिमैंट से खेला गया एक खेल था, जिसे जनता सम?ा न पाई. आज गिरती अर्थव्यवस्था, जरूरत के सामान के बढ़ते दाम, गैस और पैट्रोल के बढ़ते दाम आदि कुछ भी कम नहीं हो रहे हैं. सब्सिडी को कायम रखने और गरीबों को कम दाम में गैस मुहैया कराने की बात भी बेमानी हो गई है. पहले आमजन को गैस के सिलिंडर कम दाम में दिए गए, लेकिन सिलिंडर के 200 प्रतिशत से अधिक बढ़ते दाम ने जनता को फिर से लकड़ी के चूल्हे पर काम करने को विवश कर दिया. बिना प्लानिंग के हुए काम देश की सत्ता पर काबिज भारतीय जनता पार्टी की सरकार द्वारा कोई भी काम ईमानदारी से प्लानिंग के साथ नहीं किया गया.
यही वजह है कि देश की अर्थव्यवस्था लगातार गिरती जा रही है. जीडीपी की अगर बात करें तो वह घट कर 6.75 प्रतिशत से भी कम हो गई है. हालांकि इस से देश की इकोनौमी ग्रोथ का कोई संबंध नहीं है क्योंकि इस ग्रोथ का वितरण बहुत ही असमान है. साहा कहते हैं कि देश का एक व्यक्ति विश्व का तीसरा सब से धनी कहे जाने पर लोग बहुत खुश हैं, लेकिन मैं यह कहना चाहता हूं कि यह सैलिब्रेट करने की बात नहीं है. यह तो दिखाता है कि गरीब और धनवानों के बीच की खाई दिनोंदिन बढ़ती जा रही है, जो देश के लिए खराब है. इसलिए जीडीपी के बढ़ने को किसी प्रकार से रियल डैवलपमैंट नहीं कहा जा सकता, क्योंकि ग्रोथ वर्टिकल होता है, जबकि विकास, ग्रोथ से अलग होता है. क्या कहती है अंतर्राष्ट्रीय रिपोर्ट एक इंटरनैशनल रिपोर्ट के अनुसार, देश के केवल एक प्रतिशत लोग 10 प्रतिशत नैशनल इनकम को होल्ड किए हुए हैं, 10 प्रतिशत जनसंख्या 57 प्रतिशत नैशनल इनकम होल्ड कर रही है, नीचे की 10 प्रतिशत जनसंख्या 13 प्रतिशत नैशनल इनकम को होल्ड किए हुए है. इस की जिम्मेदारी गवर्नमैंट औफ इंडिया की है जो सारी पौलिसी निकालती है.
कोविड से पहले कौर्पोरेट टैक्स को कम कर दिया गया था, जबकि पर्सनल टैक्स कम नहीं किया गया. सरकार को लगा कि टैक्स बचाने के लिए लोग पैसे खर्च करेंगे, लेकिन इस का नतीजा सोच के हिसाब से नहीं मिला. विकास भी देखने को नहीं मिला. इस के अलावा यदि कोई कंपनी दिवालिया होती है तो प्रमुख रूप से यह मामला नैशनल कंपनी लौ ट्रिब्यूनल (एनसीएलटी) के पास जाता है. इस प्रोसैस द्वारा भी लोगों को लूटा गया. बैंक एसोसिएशन के बारबार कहने पर भी उन लोगों के नाम बताए नहीं गए जो इस के जिम्मेदार थे. आम इंसान को सामना जरूरी आम इंसान चीजों को समय नहीं पाते. देश की तरक्की किसी भी तरह से हो नहीं रही है. खरीदारी के बढ़ने की वजह हमारी जनसंख्या है और विदेशी यहां इन्वैस्ट भी कर रहे हैं. सरकार सबकुछ कंट्रोल करती है, अब यह डैमोक्रेटिक देश नहीं रह गया है. हर कोई सही बात कहने से डरता है. रियल स्टोरी आम जनता को पता नहीं चलती और कोई बात खुल कर सामने नहीं आती. जब जेब कटती है तो आम इंसान को समय में आता है कि कुछ गलत हो रहा है. इसलिए आम जनता को ही सुधारना पड़ेगा. इस के अलावा इस में सुधार की कोई गुंजाइश नहीं.
सीधा असर आम इंसान को हो रहा है. इस के अलावा बैंकों का प्राइवेटाइजेशन सही विचार नहीं है. हर तरीके की प्रक्रिया देश को आगे लाने की चल रही है, लेकिन अर्थव्यवस्था नीचे जा रही है. इस का प्रभाव धनी इंसान पर नहीं पड़ेगा, क्योंकि उन्हें इस बात की जानकारी नहीं है कि बाजार में आलू या प्याज की कीमत क्या है. चंद लोग कर रहे ग्रो हाउसिंग सैक्टर की अगर बात करें तो मुंबई में पहले अलगअलग तरीके के फ्लैट्स बनते थे, जिन्हें नौकरीपेशा भी खरीद सकते थे. अब सारे बिल्डर हाई एंड रैसिडैंस बना रहे हैं, क्योंकि लोअर एंड में कोई खरीदने वाला नहीं है. अफोर्डेबल हाउस की परिकल्पना अब गायब है. इस से यह पता चलता है कि मुंबई में अधिकतर लोग वर्किंग क्लास हैं और अपने वेतन से मुंबई में वे घर खरीद नहीं सकते. इस से यह पता चलता है कि इकोनौमी ग्रो नहीं कर रही है, बल्कि कुछ लोग ग्रो कर रहे हैं. केंद्र की भगवा सरकार भले ही उन अमीरों की देश के इंफ्रास्ट्रक्चर को सुधारने के लिए हैल्प कर रही है पर वे ऐसा नहीं कर रहे और सरकार से इंफ्रास्ट्रक्चर पर और ज्यादा खर्च करने को कह रहे हैं. यह पौलिसी भी काम नहीं कर रही है. सोशल सिक्योरिटी की कमी दिलीप साहा का कहना है कि सोशल सिक्योरिटी की बात करें तो यह एक बहुत बड़ा चैलेंज है. आज की जनसंख्या यंग है,
इस में सीनियर सिटिजन भी हैं जिन का ध्यान नहीं रखा जाता. हालांकि बीचबीच में पौलिसीज आती हैं जिन में गरीबों को लोन की छोटी रकम देने का प्रावधान रहता है, लेकिन उन्हें सही तरीके से सब्सिडाइज नहीं किया जाता और गरीबों को उन का हक नहीं मिल पाता. सरकार के पास पैसे नहीं हैं क्योंकि कौर्पोरेट सैक्टर द्वारा किए जाने वाले काम उसे करने पड़ते हैं. ये सब मिल कर इकोनौमी मेस हो चुकी है, क्योंकि इन्फ्लेशन आज ब्याजदर से अधिक है. इसलिए सीनियर सिटिजंस, जिन का घर केवल ब्याज के पैसे से चलता है, के लिए यह एक बड़ी समस्या हो चुकी है. पब्लिक और प्राइवेट सैक्टर बैंक के लिए यह जरूरी है कि उन्हें ब्याज दर एडवांस में देना पड़ता है. अगर 50 पैसे भी ब्याज दर बढ़ती है तो अखबार की सुर्खियों में ईएमआई की बढ़त के साथ महंगा होता कार लोन, बैंक लोन को बड़ेबड़े अक्षरों में बताया जाता है, जबकि बैंक डिपौजिट की ब्याज दर लगातार घटती रहती है, इस की जानकारी आम जनता को नहीं दी जाती, जिस के जमा पैसों को क्रैडिट के लिए प्रयोग किया जा रहा है,
जिस पर वरिष्ठ नागरिक आश्रित हैं. उन्हें कुछ पता नहीं होता. अर्थव्यवस्था को ऊपर लाने के लिए निचले तबके के लोगों की खरीदी को बढ़ाने से ही कलैक्टिवली वौल्यूम में इकोनौमी की बढ़त होगी. केवल अमीरों के अमीर बनने से देश की अर्थव्यवस्था कभी अच्छी नहीं हो सकती. विदेशों से लें सही डैमोक्रेसी का उदाहरण ब्रिटेन में दोनों प्रधानमंत्रियों ने इस्तीफा दिया, जो उन दोनों ने स्वेच्छा से नहीं, उन्हें मजबूरन देना पड़ा, क्योंकि वे देश की आर्थिक व्यवस्था संभाल नहीं पा रहे थे. हमारे देश में ऐसा न हो पाने की वजह यह है कि वहां की पार्टी के सदस्यों की खुद की एक विचारधारा होती है और वे समयसमय पर प्रधानमंत्री के काम की आलोचना करने से नहीं घबराते. यह यहां नहीं हो सकता, क्योंकि यहां पार्टी में रहने वाला भी अपनी मरजी से कुछ गलत देखने पर भी कुछ कहना नहीं चाहता, बल्कि चुप रहता है. यह केवल यूके और अमेरिका में स्ट्रौंगली पालन किया जाता है. हमारे देश में भी ऐसी डैमोक्रेसी विकसित होने की जरूरत है. केवल वोट द्वारा डैमोक्रेसी को आंका नहीं जा सकता.
जब तक किसी में अपनी बात कहने की आजादी न होगी, तब तक डैमोक्रेसी नहीं आ सकती और यह केवल आम जनता के लिए ही नहीं, लौ मेकर्स के लिए भी लागू होनी चाहिए. यूक्रेन युद्ध है बहाना यूक्रेन के युद्ध का देश पर किसी प्रकार का प्रैशर नहीं है, क्योंकि भारत उसे अधिक एक्सपोर्ट नहीं करता. पैट्रोल का भाव युद्ध से पहले ही काफी बढ़ चुका है.
असल में युद्ध एक बहाना है, इस का अर्थव्यवस्था से बहुत अधिक लेनादेना नहीं है. दोनों सरकारों के बीच अंतर बैंकर दिलीप साहा ने 37 वर्षों तक बैंक में काम किया है, इस दौरान उन के अनुभव को पूछने पर वे कहते हैं कि मैं अपने बैंक एसोसिएशन की तरफ से एक उदाहरण दे सकता हूं. पब्लिक सैक्टर बैंक के लिए एक कानून है जिस में औफिसर्स, डायरैक्टर और एक वर्कमेन्स डायरैक्टर हर बैंक बोर्ड में नियुक्त किया जाता था. यह संविधान के अंतर्गत आता है. पूर्व सरकार में सभी पब्लिक सैक्टर बैंक और स्टेट बैंक औफ इंडिया में यह लागू था. इसे लागू करने के लिए संसद द्वारा बिल भी पास किया गया था. इस सरकार के आने के बाद जिन्होंने अपना टैन्योर पूरा किया है, हमारे नाम देने से पहले ही उसे संसद में पास कर दिया जाता है.
आज तक कोई भी औफिसर और वर्कमेन्स डायरैक्टर नियुक्त नहीं किया गया. आज से 3 साल पहले बैंकों ने रेट को फाइल किया है और इधर रिजर्व बैंक औफ इंडिया कहता है कि 7 बैंकों के सारे काम पूरे हो चुके हैं लेकिन सब से बड़ी अथौरिटी द्वारा आज तक साइन नहीं किया जा सका है. असल में सत्ता पक्ष वाले सभी बैंकों को प्राइवेटाइज करना चाहते हैं. आज जो भी काम होता है, उसे तय करने वाला ट्रेड यूनियन होता है. इस के अलावा आज जो भी अमेंडमैंट लागू किए जाते हैं वे मालिक के फायदे के लिए ही होते हैं. अंतर यह है कि आज हर काम कौर्पोरेट को ध्यान में रख कर ही किया जाता है, भले ही सरकार ग्रोथ चाहती हो पर उस की पौलिसी फौर्मुलेशन प्राइवेट सैक्टर की तरफ ?ाका हुआ होता है. पहले जो भी पौलिसी संसद द्वारा पास की जाती थी, उस में सभी वर्गों को ध्यान में रखते हुए पास किया जाता रहा. सब से बड़ा अंतर दोनों सरकारों में यह है कि पहले की सरकार ने पब्लिसिटी में कमी की, क्योंकि अच्छा काम करने पर भी उस की पब्लिसिटी बहुत कम दिखाई पड़ती थी.