अगर सब कुछ ठीकठाक रहा तो आदिवासी बाहुल्य राज्य झारखंड के संताल परगना में इस साल भी एक रोमांटिक चुंबन प्रतियोगिता का आयोजन होगा. इस प्रतियोगिता में आदिवासी दंपत्ति भाग लेते हैं और विजेताओं को पुरुस्कृत किया जाता है. इस साल यह प्रतियोगिता 15 दिसंबर को प्रसिद्ध पाकुड़ मेले में आयोजित की जाएगी जिसके अघोषित आयोजक झारखंड मुक्ति मोर्चा यानि झामुमो के डांगपाड़ा से विधायक साइमन मराण्डी हैं .
क्या है यह दिलचस्प और रोमांटिक प्रतियोगिता जिसे लेकर झारखंड की सियासत गरमाई हुई है और पौराणिकवादियों के पेट में मरोड़ें उठ रहीं हैं इससे पहले पिछले साल हुई प्रतियोगिता पर एक नजर डालना जरूरी है जिससे समझ आ जायेगा की अब हिंदूवादियों से आदिवासियों का चुंबन भी बर्दाश्त नहीं हो रहा और वे धर्म और संस्कृति के नाम पर आदिवासियों की जिंदगी और मौजमस्ती में भी टांग फंसा रहे हैं.
पिछले साल 9 दिसंबर को लिट्टीपाड़ा प्रखण्ड के एक गांव तालपहाड़ी के डुमरिया मैदान में इस अनूठी प्रतियोगिता का आयोजन हुआ था. हर साल धान कटाई के बाद इस इलाके में सिदो-कान्हू मेले का आयोजन होता है जिसमें आदिवासी पूरी मस्ती और अपने रंग में होते हैं. इसी मेले में आदिवासियों की चुंबन प्रतियोगिता भी हुई थी. मैदान के गोल घेरे में कोई दस हजार दर्शक मौजूद थे जो प्रतियोगिता में हिस्सा ले रहे दर्जन भर आदिवासी दंपत्तियों का तालियां उत्साह बढ़ा रहे थे. इस प्रतियोगिता को दुलार चो नाम दिया गया था जिसका जिक्र बांटे गए आमंत्रण पत्रों और प्रचार सामग्री में भी था. दुलार चो एक सांथाली शब्द है जिसका हिन्दी में मतलब होता है प्यार भरा चुंबन या चुम्मा.
प्रतियोगिता स्थल के गोल मैदान में आदिवासी पति पत्नी एक दूसरे को चूम रहे थे इस दौरान चुंबन लेते लेते वे पूरा गोल घेरा घूमे , शर्त यह थी कि जो पति पत्नी एक दूसरे को ज्यादा देर तक चूमेंगे वे विजेता घोषित किए जाएंगे. जिनका चुंबन टूटता गया वे हटते गए और जिनका नहीं टूटा वे मैदान में डटे रहे. आखिर में उन तीन दंपत्तियों को इनाम दिया गया जिन्होंने सबसे ज्यादा देर तक एक दूसरे का लगातार चुंबन लिया.
तालपहाड़ी साइमन मराण्डी का पैतृक गांव है लिहाजा वे भी इस जलसे में मौजूद थे उनके साथ एक और विधायक स्टीफन मराण्डी भी थे. इस मेले में और भी कई प्रतियोगिताओं का आयोजन किया गया था.
विरोध के नाम पर बवाल – हिन्दूवादियों को उम्मीद के मुताबिक यह प्रतियोगिता रास नहीं आई क्योंकि इसमे कहीं भी शंकर – पार्वती, सीताराम या फिर राधाकृष्ण नहीं थे लिहाजा उनहोंने इसका हर मुमकिन विरोध किया मानो आदिवासी पति पत्नी को चुंबन के जरिये प्यार करने या जताने का हक ही नहीं .
यह हक भी शायद सभ्य कही जाने वाली ऊंची जाति को ही है गंवार कहे जाने वाले आदिवासियों को नहीं.
तब झारखंड भाजपा के उपाध्यक्ष हेमलाल मुर्मू ने साइमन और स्टीफन मराण्डी को इसका जिम्मेदार ठहराते कहा था कि झामुमो के विधायकों ने आदिवासी संस्कृति के खिलाफ काम किया है. वे सांथाल परगना को यरूशलम और रोम बनाने पर तुले हुये हैं, हम इस कोशिश को कामयाब नहीं होने देंगे. मुर्मू ने झामुमो के विधायकों पर ईसाई मिशनरियों के इशारे पर काम करने का आरोप भी लगाया था. बक़ौल मुर्मू उनकी मंशा राजनीति करने की नहीं बल्कि संस्कृति बचाने की है.
भाजपा को उस वक्त केन्द्रीय सरना समिति का भी समर्थन मिला था जिसके कार्यकारी अध्यक्ष बबलू मुंडा ने भगवा खेमे की हां में हां मिलाते हुए कहा था कि यह आदिवासी संस्कृति के विनाश की कोशिश है इसलिए सरना समिति के लोग इसके विरोध में जुलूस निकालेगे और काले झंडे लगाएंगे.
एक आदिवासी धर्मगुरु बंधन तिग्गा ने भी दुलार चो का विरोध करते कहा था कि आदिवासी समाज में ऐसे जलसों की इजाजत नहीं है हमारे त्योहारों सरहुल और करमा वगैरह में लड़का लड़की एक साथ नाचते हैं लेकिन खुले में चुंबन लेने की इजाजत सरमा समाज नहीं देता .
भाजपा का तो मकसद ही हिंदूवाद फैलाना और आदिवासियों की खुशी और आजादी से चिढ़ना और उसे खत्म करना है. इस राह में बबलू मराण्डी और बंधन तिग्गा जैसे लोग भी साथ हो लिए तो इसके पीछे उनके अपने स्वार्थ और आदिवासियों को संस्कृति के डंडे से हांक कर अपनी बादशाहत कायम रखने की है .
अच्छी बात यह रही कि आदिवासियों के बुद्धिजीवी और शिक्षित वर्ग ने विरोध को नाजायज ठहराया . साइमन मराण्डी की दलील यह थी कि कुछ दिनों से आदिवासी समाज में तलाक के मामले बढ़े हैं उनकी नजर में दुलार चो से पति पत्नी के सम्बन्धों में प्रगाढ़ता आएगी और इसमें कुछ भी गलत नहीं है. बात में दम इस लिहाज से है कि इस प्रतियोगिता में पति पत्नी ही हिस्सा लेकर एक दूसरे को चूमते हैं. प्यार की चुंबन के जरिये समारोहपूर्वक अभियक्ति कोई अश्लीलता तो कहीं से नहीं कही जा सकती.
अनुज लुगुन एक जाने माने आदिवासी कवि हैं उनके मुताबिक दुलार चो का विरोध करने वाले आदिवासी समाज को भी हिन्दू नजरिए से देखने की कोशिश कर रहे हैं. उन्हें यह समझना होगा कि आदिवासी समाज हिन्दू समाज नहीं है. न ही उसका व्यवहार और आचरण हिन्दू समाज की तरह हो सकता. यह समाज शुरू से ज्यादा स्व्छंद रहा है इसे किसी दायरे में बांधने की कोशिश नहीं करनी चाहिए. अनुज के ही मुताबिक दुलार चो में कुछ भी अराजक नहीं था क्योंकि वे विवाहित जोड़े थे और अपनी मर्जी से इसमें भाग ले रहे थे. इसे मुद्दा नहीं बनाया जाना चाहिए.
अव्वल तो विरोध की मंशा और हकीकत बताने के लिए अनुज का इतना कहना ही काफी है जिसका सार यह है कि भगवा खेमा जबरिया आदिवासियों को हिन्दू बताने और मानने को बैचेन रहता है जबकि आदिवासी खुद को हिन्दू कहलाने से किस कदर डरते हैं इसका एक उदाहरण पिछले साल फरवरी में मध्यप्रदेश के आदिवासी बाहुल्य जिले बैतूल में देखने में आया था. आरएसएस के एक प्रोग्राम का आदिवासियों ने जमकर विरोध किया था. आदिवासियों की खुद के हिन्दू न होने की आवाज हर कहीं से आती रहती है.
बहरहाल अनुज लुगुन की दलील को विस्तार देने वाले आदिवासी विषयों पर लेखन करने वाले अश्विनी कुमार पंकज की मानें तो यह प्रेम प्रदर्शन का तरीका है आदिवासी समाज मानता है कि प्रेम कोई बुरी चीज नहीं है. सांथाली समाज संकीर्ण दायरों में नहीं रहना चाहता इसी वजह से वे फैशन शो जैसे आयोजनों में भी शामिल है लिहाजा इसे एक इवैंट की तरह देखा जाना चाहिए न कि संस्कृति पर हमले की नजर से.
बात बहुत साफ है जिसके निहितार्थ ये भी हैं कि हिन्दू समाज बेहद संकीर्ण है उसके कट्टरवादी संगठनों को फैशन शो भी नहीं भाते और प्यार का इजहार करने वाला वेलेंटाइन डे भी, लिहाजा वे डंडा लेकर घूमते हैं और प्रेमियों के सर फोड़कर अपनी संस्कृति का हिंसक प्रदर्शन करते रहते हैं. इन ठेकेदारों की नजर में हर वो काम गैर सांस्कृतिक है जिसमें चढ़ावा नहीं मिलता और लोग अपनी मर्जी से रहते हैं. हां अगर लोग इन कामों का टेक्स इन्हें देने लगें तो ये कोई एतराज नहीं जताते.
साइमन मराण्डी ने इस बार कमर कस ली है उन्होने धनबाद से चुंबन प्रतियोगिता का ऐलान कर दिया है और ज़ोर शोर से तैयारियां भी शुरू कर दी हैं. आदिवासियों में भी पिछले साल से ज्यादा उत्साह इस प्रतियोगिता को लेकर है. उधर साइमन की घोषणा को लेकर भाजपाइयों ने भी विरोध शुरू कर दिया है.
झारखंड के कृषि मंत्री रणधीर सिंह साइमन को चुनौती दे चुके हैं और झारखंड भाजपा के प्रवक्ता प्रतुल सहदेव भी पुराना आरोप दोहरा रहे हैं कि झामुमो झारखंड की सांस्कृतिक विरासत और संस्कृति को नष्ट करने पर तुला हुआ है.
जबकि सच यह है कि भाजपा और भगवा खेमा खुद धर्म और संस्कृति की आड़ में आदिवासियों की आजादी और मर्जी छीनने की साजिश रच रहा है पर उसकी दिक्कत यह है कि उसे आदिवासियों का समर्थन नहीं मिल रहा है जो ज़िंदादिली से दुलार चो मनाना चाहता है अब देखना दिलचस्प होगा कि जीत किसकी होती है प्यार करने वालों की या फिर प्यार के दुश्मनों की.